भारत इराक के लिए जरूरी दोस्ती
१८ जून २०१३सलमान खुर्शीद के रूप में 23 साल बाद भारत का कोई बड़ा नेता इराक जा रहा है. इस बीच इराक पूरी तरह से बदल चुका है. क्या मायने हैं इस दौरे के?
मैं तो कहूंगा कि देर आयद दुरुस्त आयद. इराक और भारत के संबंध इतने मजबूत रहे हैं, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक हर क्षेत्र में. इसे देखते हुए भारत को इराक से मजबूत संबंध बनाए रखने की हर कोशिश करनी चाहिए. अमेरिका के बाद भारत इराकी तेल का दूसरा सबसे बड़ा खरीदार रहा है. भारत को इराक से अपनी जरूरत का करीब 19 फीसदी तेल मिलता है. सउदी अरब के बाद दूसरा सबसे बड़ा सप्लायर है इराक. इसके अलावा सद्दाम हुसैन के समय में भी हमारे बहुत घनिष्ठ संबंध थे. बेबीलोन और मेसोपोटेमिया की सभ्यता के समय से यह संबंध चले आ रहे हैं. एक समय इराक के बुनियादी निर्माण क्षेत्र में भारतीयों की बड़ी भूमिका थी. बड़ी संख्या में इराकी छात्र भारत में पढ़ते थे. इराक युद्ध के बाद इन संबंधों में जो ठहराव आ गया था उसके लिए यह बहुत जरूरी था कि इसे दुरुस्त किया जाए.
युद्ध के पहले और अब के हालात में क्या फर्क देखते हैं आप. दोनों देशों के लिए संबंधों को पहले जैसा बनाने में किस तरह की चुनौतियां होंगी?
सबसे बड़ी चुनौती तो यह है कि युद्ध के बाद इराक में आंतरिक सुरक्षा को लेकर चिंता रहती है. थोड़े थोड़े दिनों पर धमाके और इस तरह की खबरें आती रहती हैं. अगर हम वहां बड़े प्रोजेक्ट लें, लोग वहां काम करने जाएं तो उनकी सुरक्षा को लेकर थोड़ी चिंता तो जरूर होगी. दूसरी चुनौती यह है कि किस प्रकार से इस नई सरकार के साथ पुराना भरोसा हासिल कर सकें. इसके अलावा यातायात के साधन, तेल के टैंकर, जहाजरानी की सुविधाएं इन सब को बेहतर करना होगा. हमारे पुराने संबंधों को देखते हुए यह सब हो सकता है. भारत की तेल के लिए मध्य एशिया पर काफी निर्भरता है. 50 से 60 लाख भारतीय वहां काम करते हैं. उनके जरिए भारत को बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा मिलती है. इन सब को देखते हुए यह बहुत जरूरी है कि भारत इराक के पुनर्निर्माण में बड़ी भूमिका निभाए. मेरा ख्याल है कि वाणिज्य मंत्री को भी वहां जाना चाहिए.
जब इराक पर हमला हुआ और कई देशों की सेना वहां गई उस दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने भारत से भी अपनी सेना भेजने को कहा था लेकिन भारत ने मना कर दिया. आपके विचार से भारत के साथ संबंध बेहतर करने में इराक कितना उत्साहित होगा?
इराक बहुत उत्साहित होगा. मैं समझता हूं कि इराक में इस वक्त ऐसे लोग सत्ता में हैं जो नहीं चाहते कि विदेशी दखलंदाजी जरूरत से ज्यादा हो. आज जैसी स्थिति है उसमें मुझे नहीं लगता कि भारत ने सेना नहीं भेजी इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव भारत और इराक के संबंधों को बेहतर करने में पड़ेगा.
अमेरिका दबाव बना रहा है कि भारत ईरान के साथ अपने तेल कारोबार को घटाए और अपनी उर्जा जरूरतों के लिए दूसरे विकल्प तलाशे. क्या भारत की इस पहल में अमेरिकी दबाव की भी भूमिका है?(ईरान से तेल लेता रहेगा भारत)
मैं नहीं समझता. भारत और अमेरिका सामरिक सहयोगी और रणनीतिक साझीदार हैं. भारत अमेरिका को समझा चुका है कि भारत की कुछ जरूरतें हैं, ना सिर्फ तेल को लेकर बल्कि ईरान से कुछ दूसरी चीजों के कारण भी. बल्कि आज अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण के लिए अमेरिका जिस भारतीय भूमिका को लेकर उत्सुक है उसके लिए भी ईरान से बेहतर संबंधों की जरूरत है. 2014 में स्थिति कैसी होगी उसके बारे में कोई नहीं कह सकता. भारत ने यही देखते हुए अफगानिस्तान जाने के दूसरे रास्ते तैयार करने में ईरान के साथ सहयोग किया है. पोर्ट बनाया गया है, दिलाराम के लिए जाने वाली सड़क बनाई गई है जिससे कि अफगानिस्तान में भारत की भूमिका निभाने में पाकिस्तान कोई बाधा न बन सके. तो इस सामरिक महत्व को देखते हुए भारत के लिए ईरान से संबंध अहम है. अमेरिका को भी अफगानिस्तान को ध्यान में रख कर ईरान के साथ संबंधों को समझना चाहिए और भारत पर कोई दबाव नहीं बनाना चाहिए.
भारत को इन संबंधों के बेहतर होने से तेल की समस्या से जूझने में मदद मिलेगी यह तो साफ है. इराक युद्ध के पहले कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जहां भारत की मौजूदगी नहीं थी, वहां इराक ने भारत का साथ दिया और उसके खिलाफ उठने वाले कदमों का विरोध किया. क्या अब भी ऐसा मुमकिन होगा?
मेरे ख्याल से अभी इस बारे में सोचना थोड़ी जल्दबाजी होगी. अभी संबंधों को फिर से खड़ा करने की चुनौती है, इसमें थोड़ा समय लगेगा. इराक के साथ पहले कारोबारी संबंध को बढ़ाना होगा. पहले भारत को वहां जाना होगा, उसके पुनर्निर्माण में मदद करनी होगी. भारतीय वहां जाकर सहयोग करें. इराक में तेल और दूसरे क्षेत्रों में निवेश हो. ज्यादा से ज्यादा इराकी छात्र और वहां के लोग भारत आकर शिक्षा और प्रशिक्षण हासिल करें. संबंध बेहतर होने के बाद भारत यह उम्मीद कर सकता है कि ओआईसी जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जहां भारत मौजूद नहीं होता और उसके खिलाफ प्रस्ताव पारित होते हैं तो इराक उनका विरोध करे. यह बाद की बात है फिलहाल तो वाणिज्य, राजनीति, संस्कृति, शिक्षा और आम जनता के बीच आपसी संबंधों को बढ़ाने पर हमें ध्यान देना होगा.
पूर्व राजनयिक जेसी शर्मा, 1972 में विदेश सेवा में शामिल हुए और कई देशों में भारत के राजदूत रहे हैं. विदेश नीति और अंतरराष्ट्रीय कारोबार के जानकार हैं.
इंटरव्यूः निखिल रंजन
संपादनः महेश झा