ब्रेक्जिट पर संसद में हार के बाद आम सहमति की कोशिश
१६ जनवरी २०१९ब्रिटेन के निचले सदन हाउस ऑफ कॉमन्स के सदस्यों ने ब्रेक्जिट संधि पर मतदान को कितनी गंभीरता से लिया ये मतदान के आंकड़ों में दिखता है. हालांकि हार की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन हार 202 के मुकाबले 432 वोटों से हुई. संधि पर हुए मतदान में सरकार की हार ऐतिहासिक है. पिछली बार ऐसा 1924 में हुआ था. इसने ब्रिटिश संसदीय प्रणाली की खामियों को उजागर किया है जिसमें बहुमत की सरकारें तानाशाही रवैया अपनाती हैं और पहले तो अपने सांसदों और फिर पूरी संसद का तिरस्कार करती हैं. ब्रेक्जिट संधि पर पार्टी के अनुशासन से बाहर निकल कर किया गया मतदान दिखाता है कि साझा मत नहीं बनाने के क्या नतीजे हो सकते हैं.
ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली सामान्य बहुमत वाली प्रणाली है. संसदीय क्षेत्रों में जिसको सबसे ज्यादा मत मिले वह जीतता है. इसी तरह संसद में जिस पार्टी को बहुमत मिल जाता है उसकी सरकार बन जाती है. फिर जो सरकार में आता है वह अधिकारियों के साथ मिलकर नीतियां तय करता है और पार्टी के सांसद संसद में अपनी सरकार का समर्थन करते हैं. यही नियम और परिपाटी इस बार टेरीजा मे के गले की फांस बन गया है. एक और जहां यूरोपीय संघ के 27 देश ब्रिटेन के सदस्यता छोड़ने की शर्तों के बारे में एकजुट रहे हैं, ब्रिटेन खुद यह एकता नहीं दिखा पाया.
ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से निकलने का समर्थक नहीं होने के बावजूद प्रधानमंत्री के रूप में टेरीजा मे ने जनमत संग्रह में हुए ब्रेक्जिट के फैसले का समर्थन किया और उसे लागू करने की कोशिश की. लेकिन दिक्कत ये रही है कि इस प्रक्रिया में वे अकेली होती गई हैं और पहले तो अपने कई मंत्रियों और फिर अपने बहुत से सांसदों को साथ नहीं रख पाई हैं. यूरोपीय संघ के साथ संधि पर सौदेबाजी के दौर में कई मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया और संसद में मतदान के बाद अब सामने आया है कि कितने कंजरवेटिव सांसद अपने ही प्रधानमंत्री द्वारा किए गए समझौते के खिलाफ हैं.
संसद में करारी हार के बाद अपने पहले भाषण में टेरीजा मे ने संसद को साथ लेने की बात की. लेकिन शायद उन्हें यह काम पहले करना चाहिए था. अब 202 के खिलाफ 432 के विरोध के बाद कौन उनके साथ सहयोग करना चाहेगा, खासकर ऐसी स्थिति में जब यूरोपीय संघ के पास ब्रिटेन को देने के लिए अब बहुत कुछ नहीं है. जितनी रियायत वह कर सकता था, कर चुका. अब कोई भी रियायत दूसरे देशों को सदस्यता छोड़ने के लिए उकसा सकता है. यह काम सदस्यता परित्याग समझौता किए जाने के वक्त होना चाहिए था. तब शायद टेरीजा मे की सरकार के लिए संसद में शर्मनाक हार को बचाना संभव होता.
इंटरनेट और सोशल मीडिया के आज के युग में लोगों की सिर्फ आर्थिक आकांक्षाएं ही नहीं बढ़ी है, उनकी सामाजिक और राजनीतिक आकांक्षाओं ने भी जोर पकड़ा है. ऐसे में हर स्तर पर लोकतंत्र का विस्तार जरूरी है. संसद सार्वभौम जनता का चुनी हुई अवधि में प्रतिनिधि होता है. सदियों के लोकतांत्रिक अनुभवों के बाद संसदों को भी अधिक प्रतिनिधित्व वाला बनाने की जरूरत है, जहां हारे हुए उम्मीदवारों को वोट देने वाले मतदाताओं के विचारों और उनकी आकांक्षाओं का भी प्रतिनिधित्व हो. ऐसी संसदों में समझौते पर पहुंचना आसान होता है.
ब्रेक्जिट पर संसद में टेरीजा मे की हार से भारत भी सबक ले सकता है. ब्रिटेन जैसी भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में पराजितों का प्रतिनिधित्व न होने ने क्षेत्रीय पार्टियों को जन्म दिया है. और अलग अलग संसदों में यही प्रतिनिधित्व न होने का नतीजा राजनीतिक टकराहटों और सामाजिक विभाजनों के रूप में सामने आता है. एक विकासमान राष्ट्र के लिए ऐसी नीतियां तय करना जिसे जनता के विशाल बहुमत का समर्थन हासिल हो, हमेशा आगे बढ़ने में सहायक होता है. नहीं तो वे हमेशा दूसरी सरकारों के फैसलों को बदलने का परीक्षण ही दोहराते रहेंगे. और जब तक चुनाव व्यवस्था में परिवर्तन नहीं होते राष्ट्रीय महत्व की नीतियों पर आम सहमति बनाना ही सही उपाय होगा.