"पागल हैं ये जर्मन"
११ मार्च २०१६इन दिनों बर्लिन कुछ ऐसा है: शाम में ऊर्जा नीति में बदलाव पर गोष्ठी होती है. इसमें एक पूर्व पर्यावरण मंत्री, उद्यमों के एक प्रतिनिधि और एक पर्यावरण संरक्षक हिस्सा लेते हैं. वे पवन चक्कियों और कोयले से चलने वाले बिजली घरों से निकलने वाली कार्बन डाय ऑक्साइड गैस के विरोध की बात करते हैं. सिर्फ कभी कभार परमाणु बिजली घरों की चर्चा होती है. ऐसा लगता है कि भविष्य के लिए अतीत से सीखने की कोशिश हो रही है. जर्मनी में अभी भी 8 परमाणु बिजलीघर काम कर रहे हैं. कभी 20 हुआ करते थे. अगले छह सालों में उन्हें भी बंद कर दिया जाएगा. संसद में इस पर अब कोई वाद विवाद नहीं हो रहा, मीडिया में कोई बहस नहीं हो रही है. इस पर भी कोई ध्यान नहीं दे रहा कि एक आयोग इस पर विचार कर रहा है कि परमाणु बिजलीघरों को डिसमैंटल करने का अरबों का खर्च कौन उठाएगा. कंपनी खुद या करदाता?
चांसलर का फैसला
पांच साल पहले हालत अलग थी. अपनी राय पूरी तरह बदलते हुए चांसलर अंगेला मैर्केल ने फुकुशिमा की दुर्घटना के बाद परमाणु बिजलीघरों को बंद करने के इरादे की घोषणा की. कुछ ही समय पहले ही उन्होंने उनका लाइसेंस बढ़ाया था. चांसलर ने फैसला करने से पहले इसके बारे में अपनी पार्टी सीडीयू से भी नहीं पूछा. इस पर लोग अभी भी नाराज हैं. सीडीयू के लिए यह जानने का पहला मौका था कि देश का चांसलर समय आने पर पार्टी से पूछे बगैर भी फैसला ले सकता है. अब शरणार्थी नीति के साथ भी वही हुआ है.
फुकुशिमा दुर्घटना के बाद जर्मनी में ऊर्जा नीति में हो रहे परिवर्तन में तेजी आ गई. इस बीच जर्मनी में पैदा हो रही बिजली का एक तिहाई हिस्सा अक्षय ऊर्जा का है. उत्तर के समुद्र तट से पवन बिजली दक्षिण के औद्योगिक इलाकों तक पहुंचाने के लिए बिजली के तार बिछाए गए हैं. हालांकि पवन और सौर ऊर्जा को दी जा रही सबसिडी के कारण बिजली महंगी हो रही है जिस पर लोग नाराज हैं. लेकिन इतना भी नहीं कि अक्षय ऊर्जा को प्रोत्साहन देने का प्रोजेक्ट ही खतरे में पड़ जाए. एकाध लोग कभी कभी बिजली की कमी होने की आशंका जताते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि किसी और देश में बिजली की सप्लाई इतनी सुरक्षित नहीं है, जितनी जर्मनी में.
जर्मनी का हुनर
विदेशों में हालत एकदम अलग है. बहुत से देशों में फुकुशिमा को मुख्य रूप से प्राकृतिक आपदा समझा गया. खुद जापान कुछ सालों के विराम के बाद परमाणु बिजली पर वापस लौट गया है. फ्रांस और अमेरिका ने तो कभी सोचा ही नहीं कि परमाणु बिजलीघरों को बंद करना है. चीन और भारत जैसे देश अपनी बिजली की जरूरतों को पूरा करने के लिए परमाणु बिजलीघर बना रहे हैं. सिर्फ जर्मनी ने फुकुशिमा के सबक को लागू किया है. लेकिन इसके पीछे जर्मन बारीकी की भी भूमिका है. जब फैसला किया तो उसे पूरा भी करना है. जर्मनी में सूरज की रोशनी बहुत ज्यादा नहीं है, लेकिन वह सौर ऊर्जा पर दूसरों से कहीं ज्यादा खर्च कर रहा है. पूर्व पर्यावरण मंत्री क्लाउस टोएप्पफर ने विदेशों की प्रतिक्रिया के बारे में कहा था, "पागल हैं, ये जर्मन. लेकिन यदि कोई ये काम कर पाएगा तो वे."
और सचमुच जर्मनी लगातार अपनी ऊर्जा आपूर्ति की संरचना को करीने से बदल रहा है. इसके लिए बहुत से बदलाव जरूरी हैं. उनमें अरबों निवेश किया जा रहा है. 2011-12 में कहा जा रहा था कि यह चांद पर जाने के प्रयास जैसा है. लेकिन आज कोई इसे असंभव नहीं बता रहा. चांद पर जाना आज शरणार्थी संकट का समाधान है. ऊर्जा नीति में जर्मनी चुपचाप पायनियर की तरह काम किए जा रहा है. सस्ती परमाणु बिजली की बात तो सब करते हैं, लेकिन जो जानना चाहते है कि पुराने परमाणु बिजलीघर को बंद करने पर कितना खर्च आता है, वह कुछ दिनों बाद जर्मनी से जान सकेगा. और बदलाव करने में आने वाली समस्याओं के बारे में भी. जर्मनी फिर कभी परमाणु बिजली की ओर नहीं लौटेगा, फुकुशिमा ने यह हमेशा के लिए तय कर दिया है.
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