प्रयोगशालाओं से लीक को लेकर चिंता
३१ मई २०२१चीन के वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी और एसएआरएस-सीओवी-2 के बीच संबंध स्थापित करने के प्रमाण सिर्फ पारिस्थितिक ही हैं, लेकिन कई विशेषज्ञ ऐसी प्रयोगशालाओं पर कड़े नियंत्रण की मांग कर रहे हैं. उन्हें डर है कि ऐसी प्रयोगशालाओं से गलती से हुई कोई लीक अगली महामारी ना शुरू कर दे. वुहान इस तरह की सबसे सुरक्षित प्रयोगशालाओं में से है. उसकी सुरक्षा के स्तर को बायोसेफ्टी लेवल चार या बीएसएल4 कहा जाता है.
इस तरह के केंद्रों को सबसे खतरनाक बैक्टीरिया और वायरसों के साथ सुरक्षित रूप से काम करने के लिए बनाया जाता है. ये ऐसे वायरस होते हैं जो ऐसी गंभीर बीमारियां पैदा कर सकते हैं जिनका अभी तक ना तो कोई इलाज है और ना टीका. जॉर्ज मेसन विश्वविद्यालय के बायोडिफेंस ग्रैजुएट कार्यक्रम के निदेशक ग्रेगरी कोब्लेंत्ज कहते हैं, "ये एचवीएसी फिल्ट्रेशन सिस्टम होते हैं जो यह सुनिश्चित करते हैं कि वायरस एग्जॉस्ट के रस्ते ना भाग जाए. केंद्र से जो भी गंदा पानी निकलता है उसे या तो केमिकलों या ऊंचे तापमान से ट्रीट किया जाता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उसमें कुछ भी जिंदा ना हो."
शोधकर्ता खुद भी उच्च स्तर के प्रशिक्षित होते हैं और वो हजमत सूट भी पहनते हैं. कोब्लेंत्ज और कुछ और लोगों द्वारा लिखी गई एक रिपोर्ट इसी हफ्ते जारी की गई जिसमें बताया गया है कि दुनिया भर में ऐसी 59 प्रयोगशालाएं हैं. मैपिंग मैक्सिमम बायोलॉजिकल कन्टेनमेंट लैब्स ग्लोबली नाम की इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि रोगाणुओं पर सुरक्षित रूप से और जिम्मेदारी से काम करने के लिए कोई बाध्यकारी अंतरराष्ट्रीय मानक नहीं हैं. हादसे हो सकते हैं और कभी कभी सर्वोच्च स्तर के केंद्रों पर भी हो सकते हैं.
हादसों की लंबी सूची
निचले स्तर की प्रयोगशालाएं तो हजारों हैं और उनमें और ज्यादा हादसे हो सकते हैं. ह्यूमन एच1एन1 वायरस 1977 में सोवियत यूनियन और चीन में लीक हुआ था और पूरी दुनिया में फैल गया था. यह वही वायरस है जिसकी वजह से इसके दशकों पहले 1918 की महामारी पूरी दुनिया में फैली थी. 2001 में अमेरिका के एक बायोलैब के एक मानसिक रूप से अशांत कर्मचारी ने ऐंथ्रैक्स के बीजाणु पूरे देश में डाक से भेज दिए थे जिसकी वजह से पांच लोगों की जान भी चली गई थी.
2004 में एसआरएस से संक्रमित होने वाले दो चीनी शोधकर्ताओं ने औरों को भी संक्रमित कर दिया था, और एक की जान भी चली गई थी. 2014 में अमेरिका के फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन के दफ्तर बदलने के दौरान चेचक की कुछ शीशियां बरामद हुई थीं. सेंटर फॉर आर्म्स कंट्रोल एंड नॉन-प्रॉलीफरेशन में वरिष्ठ साइंस फेलो लिन्न क्लोत्ज इस तरह के केंद्रों से जन सुरक्षा को होने वाले खतरों के बारे में कई सालों से आगाह करते रहे हैं.
वो कहते हैं, "प्रयोगशालाओं में होने वाली गड़बड़ियों में से 70 प्रतिशत मानवीय गड़बड़ी का नतीजा होती हैं." उन्होंने यह भी बताया कि इस तरह के हादसों के बारे में जानने के लिए अमेरिका में शोधकर्ताओं को सूचना की आजादी के तहत मिलने वाले डाटा पर निर्भर रहना पड़ता है. अमेरिकी सरकार ने वुहान में चमगादड़ से कोरोना वायरस पर शोध के लिए पैसे दिए थे, लेकिन वॉशिंगटन और कुछ स्वतंत्र वैज्ञानिकों के बीच इस बात को लेकर असहमति है कि यह शोध विवादास्पद "गेन ऑफ फंक्शन" (जीओएफ) शोध था.
शोध का एक विवादास्पद क्षेत्र
जीओएफ शोध में रोगाणुओं का स्वरूप बदला जाता है ताकि वो और फैल सकें, और घातक बन सकें या इलाज और टीके से बचने में और ज्यादा सक्षम हो सकें. यह सब इसलिए किया जाता है ताकि इनसे बेहतर तरीके से लड़ा जा सके. शोध का यह क्षेत्र लंबे समय से विवादास्पद रहा है. बहस तब और ज्यादा बढ़ गई जब 2011 में दो शोध टीमों ने दिखाया कि वो बर्ड फ्लू को स्तनधारियों में फैला सकते हैं.
हार्वर्ड विश्वविद्यालय में काम करने वाले महामारीविद मार्क लिप्सीच ने बताया कि उन्हें चिंता थी कि "इससे वायरस की एक ऐसी किस्म बन जाएगी जिसने अगर प्रयोगशाला के किसी व्यक्ति को संक्रमित कर दिया तो वो सिर्फ उसे मार नहीं देगा बल्कि एक महामारी भी फैला देगा." रटगर्स विश्वविद्यालय के मॉलिक्यूलर बायोलॉजिस्ट रिचर्ड इब्राइट ने बताया, "इस शोध की जरूरत ही नहीं है और इसका दवाओं और टीकों के विकास में कोई योगदान नहीं है."
2014 में अमेरिकी सरकार ने इस तरह के शोध के लिए पैसे देना बंद कर दिया, जिसके बाद 2017 में एक नया तंत्र आया. इसके तहत हर आवेदन के अलग अलग मूल्यांकन का नियम बनाया गया. लेकिन इस प्रक्रिया की भी आलोचना हुई है और कहा गया है कि इसमें पारदर्शिता और विश्वसनीयता की कमी है. पिछले साल तक भी एक गैर लाभकारी संस्था को एक शोध के लिए अमेरिका से पैसे मिले थे, जिसका विषय था वुहान में चमगादड़ से कोरोना वायरस के इंसानों में "फैलने के संभावना के पूर्वानुमान" पर शोध करना.
लैब हादसे सिद्धांत के सबूत
इसी हफ्ते अमेरिकी संसद ने नेशनल इंस्टीट्यूट्स ऑफ हेल्थ के फ्रांसिस कॉलिंस और एंथोनी फाउची दोनों से इस बारे में पूछताछ की तो दोनों ने इस बात से इनकार किया कि यह जीओएफ शोध था. लेकिन इब्राइट का कहना है कि यह बिल्कुल वही है. हालांकि इसमें से किसी भी बात का यह मतलब नहीं है कि कोविड-19 एक प्रयोगशाला से ही लीक हुआ था. बल्कि इब्राइट का कहना है कि प्राकृतिक शुरुआत हो या लैब हादसा, दोनों के पक्ष में कोई भी ठोस वैज्ञानिक सबूत नहीं है.
लेकिन लैब हादसे की संभावना के कुछ पारिस्थितिक सबूत जरूर हैं. जैसे, वुहान कोरोना वायरस के संभावित पूर्वज वायरस वाले चमगादड़ों की गुफाओं से 1000 मील दूर है, जो कि उनकी उड़ान क्षमता से बहुत दूर है. हालांकि इस बात की जानकारी है कि वुहान के वैज्ञानिक सैंपल लेने इन गुफाओं तक नियमित रूप से जाते थे. इन सब के बावजूद ब्रॉड इंस्टीट्यूट के मॉलिक्यूलर बायोलॉजिस्ट अलीना चैन कहती हैं कि ऐसा नहीं है कि महामारी के बाद रोगाणुओं पर होने वाला जोखिम भरी शोध रुक जाएगा.
बल्कि वो कहती हैं कि संकेत तो इस बात के हैं कि इस शोध का संभवतः विस्तार हो गया हो. पिछले साल चैन ने एक शोध के नतीजे छापे थे जो दिखाते हैं कि एसएआरएस के विपरीत, एसएआरएस-सीओवी-2 को जब पहली बार इंसानों में पाया गया था तब वो तेजी से विकसित नहीं हो रहा था. यह वायरस की लैब से शुरुआत होने का एक और पारिस्थितिक सबूत है. चैन कहती हैं कि उनका मत इन दोनों सिद्धांतों में से किसी के भी पक्ष में नहीं है, लेकिन वो जोखिम भरे शोध पर प्रतिबंध लगा देने का समर्थन नहीं करती हैं.
उन्हें डर है कि बैन करने से चोरी छुपे शोध शुरू हो जाएगा. उन्होंने कहा कि एक समाधान यह हो सकता है कि "इन शोध संस्थानों को अत्यंत सुदूर इलाकों में ले जाया जाए...जहां से आपको फिर से मानव समाज में वापस आने से पहले दो सप्ताह तक क्वारंटाइन रहना पड़े."
सीके/एए (एएफपी)