प्रकृति को बचाना है तो महिलाओं की हिस्सेदारी जरूरी
७ मई २०२१अगर अमिताभ बच्चन की फिल्म दीवार आपको याद हो तो उसमें फिल्म का नायक विजय एक गोदी पर काम करता है, जहां कुछ गुंडे मजदूरों से हफ्ता लेते हैं. गोदी पर काम करने वाले एक बुजुर्ग विजय से कहते हैं ‘यहां गरीब को सौ बातें सोच के चलना पड़ता है, और फिर ये लोग तो मवाली ठहरे, इनके मुंह कौन लगे, पच्चीस बरस हो गये हमें यहां काम करते. हमने नहीं देखा कोई कुली उन्हें हफ्ता देने से इनकार कर दे.' नायक विजय अपने साथ काम कर रहे बुजुर्ग से कहता है, ‘रहीम चाचा, जो पच्चीस बरस में नहीं हुआ वो अब होगा. अगले हफ्ते एक और कुली इन मवालियों को पैसा देने से इनकार करने वाला है'.
जब फिल्म में नायक ने ये संवाद बोला तो पूरे हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट गूंजी, लेकिन किसे पता था दीवार फिल्म के रिलीज होने के 7 साल बाद बिहार के एक छोटे से शहर के पिछड़े गांव में एक औरत ठीक इसी तरह अपने इलाके के दबंगों को हफ्ता देने से इंकार कर देगी. सिर्फ इसलिए कि उसे अपने बच्चों की फिक्र थी, उसे अपनी गंगा को बचाना था. चलिए इस बात को समझने के लिए कहलगांव चलते हैं.
बहुत लंबा है फेकिया देवी का सफर
कहलगांव में गंगा किनारे एक बस्ती थी, कागजी टोला. एलसीडी और कालीघाट के पास मौजूद इस बस्ती में मछुआरों के करीब पांच सौ परिवार रहा करते थे. देश आजाद हो चुका था लेकिन ये और इनके हिस्से की गंगा आजाद नहीं हुई थी. इनकी मछली पर दबंगों का अधिकार होता था. दबंग इनकी मेहनत को इनसे छीन लिया करते थे. उन्हें कपड़ों का जाल लगाने पर मजबूर करते थे ताकि ज्यादा से ज्यादा मछली पकड़ी जा सके. जबकि मछुआरा समुदाय जानता था कि कपड़ों का जाल नदी की बायोडायवर्सिटी को किस कदर नुकसान पहुंचा सकता है. क्योंकि इस जाल के छेद बहुत बारीक होते थे जिसमें मछली सहित उसके अंडे भी फंस जाते थे. लेकिन मछुआरे खुद को मजलूम मानकर इस जुल्म को सहे जा रहे थे.
1982 में इसी कागजी टोले की फेकिया देवी ने इस शोषण को सहन ना करने की ठानी और विरोध करना शुरू कर दिया. शुरू में उनके साथ महज पांच महिलाएं थी. दूसरी तरफ जयप्रकाश आंदोलन से निकले संगठनों का कागजी टोले को समर्थन मिला और एकजुटता के साथ ये आंदोलन गंगा मुक्ति आंदोलन बन कर उभरा. इस आंदोलन का एक ही ध्येय था, गंगा को कर मुक्त करना और पूरा आंदोलन अंहिसा के रास्ते तय करना. फेकिया देवी महिला गुट का प्रमुख चेहरा थी और इस तरह लगातार संघर्ष करके इस आंदोलन की वजह से गंगा टैक्स मुक्त हुई. फेकिया देवी के इस प्रयास की बदौलत कागजी टोले के परिवारों को रोजगार मिला और सब चीजें ठीक हो गई.
कैसा आंदोलन, कौन सा टैक्स
जमींदारी के बारे में तो आपने सुना ही होगा, लेकिन भारत का एक हिस्सा ऐसा था जहां पानीदारी की प्रथा चलती थी. बिहार के सुल्तानगंज से लेकर पिरपैंती तक के 80 किलोमीटर के क्षेत्र में जो गंगा बहती है, उस पर 1991 से पहले पानीदारी चला करती थी. जैसी जमींदारी वैसी पानीदारी. ये जमींदारी मुगलकाल से चली आ रही थी. इस 80 किलोमीटर के पानीदार थे, महाशय घोष और मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक. सुल्तानगंज से बरारी के बीच बहती गंगा पर महाशय घोष लगान वसूलते थे. पिरपैंती से लेकर सुल्तानगंज तक की गंगा का हिस्सा मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक के पास था. 1930 से गंगा पथ पर मछुआरों से मछली पकड़ने के एवज में जो लगान वसूला जा रहा था, उसे छिपाने का तरीका भी बड़ा ही दिलचस्प था. मछुआरों से वसूला लगान देवी-देवताओं के खाते में दिखाया जाता था. दरअसल पानीदारों ने श्री श्री भैरवनाथ जी, श्री श्री ठाकुर वासुदेव राय, श्री शिवजी जैसे तमाम ट्रस्टी बना दिए थे. और पानीदार खुद बस ट्रस्ट के सेवादार थे.
1982 में जब इसका विरोध होना शुरू हुआ, उससे पहले तक ये लगान था, 1500 रूपए सालाना. खास बात ये है कि ये पैसा सिर्फ गंगा में नाव उतारने भर का था. उसके बाद हर जाल पर अलग लगान होता था यानि जितने जाल उतना टैक्स. शोषण की इंतेहा ये थी कि मछुआरे जो मछली पकड़ते थे उस पर भी पानीदारों का हिस्सा होता था. तो जितनी मछली उतना लगान. लगान नहीं देने पर मछुआरों की नाव छीन ली जाती थी. मछुआरों के साथ मारपीट, उनकी महिलाओं को तंग करना. ये सब कुछ आम बात थी. मछुआरों ने इसे अपनी नियति मान लिया था. देश को आजाद हुए भले ही 30 साल से ज्यादा गुजर चुके थे, लेकिन यहां पर शोषण बदस्तूर जारी था. मछुआरों की हालत दयनीय होती जा रही थी. लेकिन अति का अंत होता जरूर है. और अगर महिला किसी काम को हाथ में ले ले तो अंजाम तक जरूर पहुंचा देती है. इस तरह बड़का जोगेन्दर जो इस आंदोलन के अहम हिस्सा थे उनके साथ कंधे से कंधा मिलाया फेकिया देवी ने, और इस तरह गंगा मुक्ति आंदोलन का चेहरा बनी फेकिया देवी और उनके साथ की महिलाओं ने मिलकर गंगा के 80 किलोमीटर के क्षेत्र को पानीदारी से मुक्ति दिलाई. वही फेकिया देवी आज फिर बुढ़ापे में एक आंदोलन चाहती हैं.
पानीदारी से निकले तो गाद में फंसे
कुछ दिनों पहले जब फेकिया देवी से मुलाकात हुई तो 60 साल की फेकिया देवी, थोड़ी बीमार और निराश सी लग रही थीं. कोरोना ने उनका कुछ नहीं बिगाड़ा, लेकिन अपनी नदी और अपने बच्चों के भविष्य के लिए किए संघर्ष को मिटता देख वो टूट चुकी हैं. वो कहलगांव में अपने घर के पास मौजूद चर्चित एलसीडी घाट पर बैठी हुई हैं. वो हाथ से सूखी हुई गंगा के दूसरे छोर पर एक चट्टान पर बने मंदिर को दिखाती है. ज्यादा नहीं आज से 10 साल पहले काली या एलसीडी घाट से नाव में सवार होकर इस पहाड़ तक जाने पर समुद्र का अहसास होता था. पूरे बिहार में गंगा यहीं सबसे ज्यादा गहरी हुआ करती थी. अब आलम ये है कि पहाड़ पर बने मंदिर पर जाने के लिए मल्लाहों को 50 रूपए आने जाने के मिल पाते हैं. जो चट्टान कभी आधी पानी में डूबी रहती थी, अब उसके चारों तरफ रेत के टापू उभर चुके हैं. किसी-किसी जगह तो स्थानीय बच्चे पैदल गंगा को पार कर लेते हैं. मछलियां वैसे ही कम थी. कुछ को कपड़ा जाल ने छीन लिया और कुछ फरक्का की वजह से नहीं रही. अब अगर कुछ है तो बस गाद.
फेकिया देवी मंदिर के पास उभरे टापू की ओर इशारा करते हुए कहती हैं कि बहुत मेहनत की थी गंगा को करमुक्त करने की, सफल भी हुए. लेकिन नदी में पानी ही नहीं होगा तो मछुआरे करेंगे क्या? क्या मतलब रह जाता है हमारे आंदोलन का? बीमार फेकिया निराश होकर कहती हैं कि „हमने इतनी लंबी लड़ाई लड़ी ताकि हमारे बच्चे किसी के आगे नहीं झुकें, लेकिन करने वालों ने ऐसा काम कर दिया कि हम फिर उसी जगह पर आकर खड़े हो गए."
फेकिया देवी की निराशा की वजह वो गाद है जिसने बिहार में गंगा ही नहीं उन परिवारों को भी तबाह कर दिया जो गंगा के भरोसे थे. फरक्का बैराज बनने के बाद उत्तर बिहार में गंगा किनारे दियारा इलाके में बाढ़ स्थाई हो गई है क्योंकि गंगा में भराव होने की वजह से पानी का फैलाव ज्यादा हो गया. इसी इलाके में रहने वाले किशोर जायसवाल बताते हैं कि पहले तीन दिन के भीतर गंगा की बाढ़ का पानी उतर जाता था. लेकिन अब बरसात के बाद पूरे दियारा और टाल क्षेत्र में पानी जमा रहता है. फरक्का बांध बनने के बाद मुंगेर, नौगछिया, कटिहार, पूर्णिया, सहरसा और खगड़िया जिलों में इसका बुरा असर देखने को मिला.
बिहार से लेकर पहाड़ तक महिला झंडाबरदार
पर्यावरण से जुड़े तमाम तरह के आंदोलन जिन्हें हम सफलता की श्रेणी में रखते हैं उनमें कहीं ना कहीं महिलाओं का ही योगदान रहा है. मसलन गंगा के हालात पर लिखे गए यात्रा वृतांत ‘दर दर गंगे ' के मुताबिक „करीब दो दशक पहले पिंडर घाटी में पिंडर के पार, पहाड़ पर परीक्षण के लिए सुरंग खोदी जा रही थी, मजदूरों और सामान को सुरंग तक जाने के लिए जो रास्ता बनाया गया था, उसे टिकाने के लिए उसे एक पेड़ से मजबूती के साथ बांधा गया था.
इस सुरंग निर्माण का लगातार विरोध चल रहा था, ये विरोध महिलाएं ही कर रही थी, लेकिन विरोध के बावजूद जब पुलिस और प्रशासन ने सुरंग का काम नहीं रुकवाया तो महिलाओं ने उस पेड़ को ही काट दिया. पिंडर वैली की महिलाएं अपना घर बचाने के लिए बहुत उग्र रूप धारण कर चुकी थी. इन महिलाओं ने एक मंगल दल बनाया है जिसने बांध कंपनी का विरोध किया. वहीं पुरुषों के बारे में बात की जाए तो उनका सीधा फंडा है दारू दे दो और पूरा जंगल कटवा लो, नदी रुकवा लो. यही वजह है कि यहां कि महिलाएं महीने में एक दो बार अपने पतियों को घर में बंद कर देती थी. जिससे वो शासन की साजिश का हिस्सा नहीं बने."
इस तरह ‘चिपको आन्दोलन' ने पर्यावरण संरक्षण खासतौर से वन-संरक्षण की दिशा में एक नई चेतना पैदा की है. यह आन्दोलन पूरी तरह से महिलाओं से जुड़ा हुआ था. इस आन्दोलन ने यह सिद्ध कर दिया था कि जो काम पुरुष नहीं कर सकते, उसे महिलाएं कर सकती हैं. आगे चलकर यही चिपको आंदोलन चमोली, कुमाऊं, गढ़वाल, पिथौरागढ़ जैसे इलाकों में भी पहुंचा. खास बात ये है कि इस आन्दोलन का संचालन करने वाली महिलाएं पहाड़ी ग्रामीण क्षेत्रों की रहने वाली निरक्षर एवं अनपढ़ महिलाएं थीं. ये स्वतःस्फूर्त और अहिंसक आंदोलन इतिहास में महिलाओं के प्रकृति के प्रति लगाव को दिखाता है. इन महिलाओं ने अपने आंदोलन को इस तरह से संगठित किया है कि उनके गांवों का प्रत्येक परिवार जंगलों की रक्षा के लिये सुरक्षाकर्मी तैनात करता था.
पेड़ों को बचाने के लिए देती रहीं जान
इसी तरह राजस्थान की बिश्नोई जाति की महिलाओं ने इस संबंध में एक अनोखा उदाहरण पेश किया है. थार रेगिस्तान के मध्य बिश्नोई जाति अकेला ऐसा समुदाय है जो पर्यावरण की ना सिर्फ परवाह करता है बल्कि उसे सहेजता भी है. इस जाति की महिलाओं का पेड़ों के प्रति जो लगाव है उसे लेकर इस समाज में एक कथा बहुत प्रचलित है, ‘‘प्राचीन काल में जब राजा के नौकर और कर्मचारी राजमहल बनाने के लिये पेड़ों को काटने आते थे इस जाति की महिलाएं पेड़ों को बचाने के लिए पेड़ों से ही लिपट जाती थीं और कर्मचारी पेड़ों के साथ निर्दयतापूर्वक महिलाओं को भी काट देते थे.
जब राजा ने यह सुना कि पेड़ों के साथ महिलाएं भी काट डाली जा रही हैं, तो राजा ने उस क्षेत्र में जंगलों को कटवाना रोक दिया.'' इस कहानी को लेकर विचार अलग हो सकते हैं लेकिन बिश्नोई जाति की महिलाओं का पर्यावरण और जानवरों के प्रति लगाव को लेकर सभी एक राय रखते हैं. प्रकृति और महिला के सशक्तिकरण को लेकर ही एक शब्द दिया जाता है ईकोफेमिनिज्म.
दरअसल हम आज जिस हाल में पहुंचे है इसकी पीछे की सबसे बड़ी वजह यही है कि हमने प्रकृति और औरत को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं. ईकोफेमिनिज्म पर्यावरण संकट, धरती और महिलाओं के बीच एक समानांतर संबंध देखता है. इस शब्द के जरिये हम उस शोषण को भी समझ सकते हैं जो दोनों के साथ एकरूप में हुआ है जिसके लिए दोहन, उपभोग जैसे शब्दों का इस्तेमाल भी किया जा सकता है. फेकिया देवी कभी बगैर किसी से डरे, बगैर किसी की परवाह किए, बगैर ये सोचे की समाज क्या सोचेगा, एक आंदोलन का हिस्सा बनी थीं. उन्होंने अपनी बस्ती के लोगों को लिए वो काम किया जिसकी वजह से आज भी उन्हें सम्मान से देखा जाता है. वही फेकिया देवी आज गंगा की तरफ इशारा करती हुई कहती हैं, "अब तो सही गंगा मुक्ति आंदोलन की जरूरत है. गंगा भी उस औरत की तरह हो गई है जो लगातार बंधनों से मुक्त होते हुए बंधनों में बांधी जाती है. अगर किसी को भी लगता है कि वो मदर्स डे मनाना चाहता है तो उसे बगैर किसी लाग-लपेट के प्रकृति को बचाने के लिए महिलाओं को प्रतिनिधि स्वीकार कर लेना चाहिए."