पेटेंट के दांव में फंसी दवा कंपनियां
१३ मार्च २०१२भारत के पेटेंट दफ्तर ने जर्मन कंपनी बायर का एकाधिकार खत्म कर जिगर और गुर्दे के कैंसर की दवा पहले के मुकाबले महज तीन फीसदी कीमत पर मरीजों तक पहुंचाने का रास्ता बना दिया है. अब यह दवा भारत में नेटको नाम की कंपनी बनाएगी जो मरीजों को आसानी से मिल सकेगी और उसकी कीमत भी उनकी पहुंच में होगी. लाखों मरीज जिनके लिए हर महीने पौने तीन लाख रुपये की कीमत वाली दवा की खुराक ले पाना नामुमकिन था, अब यह दवा ले सकेंगे जो उनकी उम्र कई सालों के लिए बढ़ा सकती है.
2005 में भारत ने जरूरी चीजों के लाइसेंस से जुड़ा कानून बनाया था. इसी कानून के तहत पहला बड़ा फैसला इस रूप में सामने आया है. लंबे समय से भारत और आस पास के देशों में लोगों की स्वास्थ्य जरूरतों के लिए और दवा कंपनियों के एकाधिकार के खिलाफ आवाज बुलंद कर रही डॉ मीरा शिवा इस फैसले से काफी खुश हैं और कहती हैं कि ऐसा करना बेहद जरूरी हो गया था. डॉयचे वेले से बातचीत में डॉ शिवा ने कहा, "पहली बार कंपल्सरी लाइसेंसिंग के तहत यह ऐतिहासिक फैसला आया है. 2 लाख 80 रुपये प्रति माह के बदले अब सिर्फ 8 हजार 8 सौ रूपये देने पडेंगे तो जिन लोगों के परिवार में गुर्दे या जिगर के कैंसर का कोई मरीज है, उनके लिए तो यह बहुत बड़ी खुशखबरी है."
भारत के पेटेंट ऑफिस ने यह फैसला दे दिया है और इससे भारत के लोगों और भारत की कंपनियों को बड़ा फायदा भी होगा. लेकिन बदले वक्त में जब भारत पश्चिमी देशों के लिए विकासशील देशों तक पहुंचने का रास्ता और एक बड़ा बाजार बन रहा है, क्या ऐसे कदम से नुकसान उठाने के कारण कंपनियों के मनोबल पर असर पड़ेगा. डॉ शिवा कहती हैं, "यह उनके बनाए डब्ल्यूटीओ के अंतर्गत ट्रिप्स (ट्रेड रिलेटेड इंटेलेक्चुल प्रॉपर्टी राइट्स) कानून के तहत ही हो पाया है. यह कानून लोगों की स्वास्थ्य जरूरतों के खिलाफ था लेकिन इसमें गरीब और विकासशील देशों की जरूरतों के लिए एक बहुत छोटी सी खिड़की रखी गई जिसका जनहित में इस्तेमाल हो सकता है. कंपल्सरी लाइसेंसिंग को ट्रिप्स में कानूनी मान्यता दी गई है जिसका भारत इस्तेमाल कर रहा है."
इसके साथ ही डॉ शिवा कंपनियों के हितों के बदले लोगों के हितों को ऊपर रखने की बात कहती है. उनका कहना है, "कंपनियों का मनोबल तो तब भी टूटा था जब दक्षिण अफ्रीका ने एड्स के रोगियों के लिए एंटीरेट्रोवायरल की एक दवा सस्ते में बनाने को मंजूरी दी थी. तब 15000 डॉलर में बनने वाली दवा महज 300 डॉलर में बनने लगी. उस वक्त 39 दवा कंपनियों ने दक्षिण अफ्रीकी सरकार को चुनौती दी." डॉ शिवा सीधे सवाल करती हैं क्या कंपनियों का हित लोगों के स्वास्थ्य से ज्यादा जरूरी है? क्या एड्स के रोगियों को जीने का हक नहीं है?"
बायर कंपनी भारत के लोगों को ध्यान में रख कर चाहती तो कुछ उपाय कर सकती थी. कंपनी ने न तो बाजार में इस दवा की पर्याप्त मात्रा पहुंचाई न ही इसे भारत में बनाने का उपाय किया. नेक्सावर नाम की यह दवा अगर भारत में बनती तो इसकी कीमत कम हो सकती थी. इसके अलावा यह कंपनी भारतीय कंपनियों को लाइसेंस भी नहीं दे रही थी. अब पेटेंट दफ्तर ने भारतीय कंपनी को बायर के पेटेंट वाली दवा की कॉपी बनाने की अनुमति दे दी है.
पश्चिमी देशों की कंपनियां जिस कीमत पर अपने देशों में दवा बेचती हैं वही कीमत दूसरे देशों से भी वसूल करती हैं जो भारत जैसे देश के करोड़ों लोगों की पहुंच से इन दवाओं को बाहर बना देता है. इस फैसले से उनका मुनाफा घटेगा तो जाहिर है कि वो भी चुप नहीं बैठेंगी. डॉ शिवा कहती हैं, "मुनाफा कोई नहीं छोड़ना चाहता. ये लोग तो एड़ी चोटी का जोर लगा देंगे, कानूनी और गैरकानूनी तरीके से चुनौती देंगे. दबाव बनाएंगे, सरकारों से नीतियां बदलवाएंगे. यह रास्ता तो पहले से ही था लेकिन जिन देशों ने भी इस्तेमाल करने की कोशिश की उसे कई तरह से परेशान किया गया. थाईलैंड के साथ ही यह हुआ जब उसने एड्स की रेट्रोवायरल दवा बनाई. लेकिन इस रास्ते का इस्तेमाल होना चाहिए." भारतीय कंपनियां पहले भी इसका फायदा उठा सकती थीं लेकिन पश्चिमी देशों की बड़ी कंपनियों के खिलाफ मैदान में उतरने से पहले वो दस बार सोचती हैं. जानकार इसे दवा बाजार में खुले मुकाबले के लिए जमीन तैयार करने वाले कदम के रूप में भी देख रहे हैं. इस बारे में पीपुल्स हेल्थ मूवमेंट से जुड़े डॉ अमित गुप्ता कहते हैं, "यह एक दुर्लभ मामला है जब एक आम कंपल्सरी लाइसेंस जारी किया गया है और जिसमें किसी सरकार को किसी प्रावधान या फिर अत्यंत आपात की स्थिति का दबाव नहीं है. बिना बहुत ज्यादा परेशान किए नेटको को यह लाइसेंस देने से कंपल्सरी लाइसेंस के जरिए खुले मुकाबले का रास्ता खुल जाएगा."
रिपोर्टः एपी/एन रंजन
संपादनः महेश झा