पूर्वोत्तर में फिर गरमाने लगा सीएए का मुद्दा
१७ दिसम्बर २०२०इसमें असम के उन पांच परिवारों के लोग भी शामिल हैं जो बीते साल हुई हिंसा में मारे गए थे. असम में भी अगले साल अप्रैल-मई में विधानसभा चुनाव होने हैं. असम में तो बीते साल यह आंदोलन काफी हिंसक हो उठा था और पुलिस की फायरिंग में पांच युवकों की मौत हो गई थी. कई दिनों तक हिंसा, कर्फ्यू और धारा 144 की वजह से राज्य में सामान्य जनजीवन ठप हो गया था. बाद में कोरोना और इसकी वजह से शुरू लॉकडाउन के कारण आंदोलन थम गया था, लेकिन अब इसकी बरसी के मौके पर दोबारा नए सिरे से इसे शुरू किया गया है. इस आंदोलन की शुरुआत काला दिवस के पालन के साथ हो चुकी है. नार्थ ईस्ट स्टूडेंट्स आर्गनाइजेशन (नेसो) की अपील पर 18 संगठनों ने पूर्वोत्तर में काला दिवस मनाया. अब इस आंदोलन को और तेज करने की योजना है.
फिर शुरू हुआ आंदोलन
सीएए के एक साल पूरा होने के मौके पर नेसो के बैनर तले इलाके के तमाम संगठनों ने केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को चेतावनी दी है कि इस कानून के खिलाफ पूरा पूर्वोत्तर एकजुट है और इलाके में इस विवादास्पद कानून को लागू करने के किसी भी प्रयास का कड़ा विरोध किया जाएगा. दोबारा शुरू हुए आंदोलन के दौरान काला दिवस मनाने के साथ ही तमाम राज्यों में रैलियां निकाली गईं और प्रदर्शन किए गए. प्रदर्शनकारियों ने सीएए के खिलाफ काले झंडे दिखाए और नारेबाजी करते हुए इसे रद्द करने की मांग की और इसे असंवैधानिक, सांप्रदायिक और पूर्वोत्तर-विरोधी करार दिया. नए सिरे से शुरू होने वाले इस आंदोलन से खासकर असम में सत्तारुढ़ बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं. राज्य में मई तक विधानसभा चुनाव होने हैं.
पूर्वोत्तर के विभिन्न संगठनों के भारी विरोध के बीच केंद्र ने बीते साल नौ दिसंबर को उक्त कानून को लोकसभा में पेश किया था जहां अगले दिन इसे पारित कर दिया गया. उसके एक दिन बाद यानी 11 दिसंबर को राज्यसभा ने भी इस पर मुहर लगा दी. 12 दिसंबर को राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के जरिए इसे कानून जामा पहनाया गया. लेकिन नार्थ ईस्ट स्टूडेंट्स ऑर्गनाइजेशन ने उससे पहले 10 दिसंबर को ही इसके खिलाफ पूर्वोत्तर बंद की अपील की थी. विधेयक पारित होने के बाद तो असम समेत इलाके के विभिन्न राज्यों में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन शुरू हो गया था. उस दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के असम दौरे पर उनका जबरदस्त विरोध हुआ था और काले झंडे दिखाए गए थे. उसके बाद राज्य में हिंसा व आगजनी का लंबा दौर चला था.
पूर्वोत्तर में क्यों सीएए का विरोध
नेसो के अध्यक्ष सैमुएल जेवरा कहते हैं, "कोरोना महामारी और लॉकडाउन की वजह से हमने सीएए के खिलाफ अपना आंदोलन रोक दिया था. लेकिन हम अब पहले से भी बड़े पैमाने पर इसे जारी रखेंगे. बांग्लादेशियों के वोट के लालच में केंद्र सरकार ने पूर्वोत्तर के लोगों पर जबरन इस कानून को थोपा है. इसे रद्द नहीं करने तक हमारा आंदोलन जारी रहेगा. इलाके के लोग इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगे.” नेसो के सलाहकार समुज्जवल कुमार भट्टाचार्य कहते हैं, "हम पूर्वोत्तर को बांग्लादेशियों के लिए कचरे का डब्बा नहीं बनने देंगे. पूर्वोत्तर के लोगों पर सीएए थोपने का फैसला बेहद अन्यायपूर्ण है. हम इस कानून के खिलाफ लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन जारी रखेंगे.” उनका कहना है कि इलाके के लोग धर्म के आधार पर नागरिकता देने वाले ऐसे किसी कानून को स्वीकार नहीं करेंगे.
अस्सी के दशक में असम आंदोलन का नेतृत्व करने वाले ताकतवर छात्र संगठन अखिल असम छात्र संघ (आसू) ने भी किसी भी कीमत पर सीएए को लागू नहीं करने देने की बात कही है. आसू के अध्यक्ष दीपंकर नाथ व महासचिव शंकर ज्योति बरुआ ने राजधानी गुवाहाटी में जारी एक बयान में कहा है कि केंद्र को इस विवादास्पद कानून को रद्द करना होगा. इसके विरोध में हुई हिंसा में पांच लोगों की मौत हो गई थी. उनके परिजनों को भी अब तक न्याय का इंतजार है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा तमाम केंद्रीय नेता बार-बार सफाई देते रहे हैं कि सीएए किसी की नागरिकता लेने के लिए नहीं बनाया गया है. इसका मकसद पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से अत्याचार का शिकार होकर आने वाले अल्पसंख्यकों को नागरिकता देना है. लेकिन असम के लोग इसे अपनी पहचान और संस्कृति पर खतरा बताते हुए बाहर से आने वाले लोगों को नागरिकता दिए जाने का विरोध कर रहे हैं.
असम के लोगों की आशंका
दरअसल, राज्य के लोगों को डर है कि बीजेपी इस कानून की आड़ में बांग्लादेश से बड़े पैमाने पर आने वाले घुसपैठियों को नागरिकता देने की योजना बना रही है. बांग्लादेश से घुसपैठ का मुद्दा असम के लिए बेहद संवेदनशील है. इसी मुद्दे पर छह साल तक असम आंदोलन भी चला था. कई संगठनों ने इस कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में भी याचिकाएं दायर कर रखी हैं. राज्य सरकार में बीजेपी की सहयोगी असम गण परिषद भी इस कानून को लागू किए जाने के खिलाफ है.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि सीएए खासकर असम के विधानसभा चुनावों में एक प्रमुख मुद्दा होगा. कैलाश विजयवर्गीय समेत बीजेपी के कई नेता जनवरी से इस कानून को लागू करने की बात कह चुके हैं. इससे आम लोगों में आशंकाएं बढ़ रही हैं. हालांकि बीजेपी के वरिष्ठ नेता हिमंत बिस्वा सरमा का दावा है कि सीएए यहां कोई चुनावी मुद्दा नहीं होगा. लेकिन राजनीतिक पर्यवेक्षक सुनील कुमार डेका कहते हैं, "कोरोना की वजह से सीएए का मुद्दा दब गया था. लेकिन अब नए सिरे से इसका विरोध शुरू होने से बीजेपी के लिए मुश्किलें पैदा हो सकती हैं. खासकर तमाम छात्र और युवा संगठन किसी भी हालत में इसे लागू नहीं होने के लिए कृतसंकल्प हैं.”
__________________________
हमसे जुड़ें: Facebook | Twitter | YouTube | GooglePlay | AppStore