पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का निधन
३१ अगस्त २०२०नई दिल्ली में आर्मी के रिसर्च एंड रेफरल अस्पताल में भर्ती प्रणब मुखर्जी कोरोना वायरस से भी संक्रमित थे और कुछ हफ्ते पहले मस्तिष्क की जटिल सर्जरी करवा चुके थे, जिसके बाद से ही उनकी तबियत खराब चल रही थी. उनके बेटे अभिजीत मुखर्जी ने ट्वीट कर इस बारे में जानकारी दी.
पांच दशक से ज्यादा लंबी राजनीतिक पारी खेलने वाले प्रणब मुखर्जी सचमुच भारतीय राजनीति की एक बड़ी शख्सियत थे. संसद पर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार होने के नाते मुझे कम से कम तीन साल तक तो उन्हें करीब से देखने और समझने का मौका मिला.
कांग्रेस पार्टी के लिए मूल्यवान तो वो इंदिरा गांधी के जमाने से ही थे, लेकिन यूपीए एक और दो दोनों सरकारों के लिए तो वो कुछ ऐसे अमूल्य हो गए थे कि ऐसा लगता था कि उनके बिना गाड़ी चलेगी ही नहीं. 2004 से लेकर 2012 में राष्ट्रपति बनने से ठीक पहले तक केंद्रीय मंत्रिमंडल में प्रणब मुखर्जी का स्थान प्रभावी रूप से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के ठीक बाद ही था.
इस दौरान उन्होंने जो जो पद संभाले उन्हें गिनाना एक व्यक्ति नहीं बल्कि कई लोगों की जीवनी लगती है. विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री, वित्त मंत्री, सांसद, लोक सभा में नेता सदन, कम से कम 100 मंत्री समूहों के अध्यक्ष और पार्टी के प्रमुख संकटमोचक - भारत में इतने विस्तृत व्यक्तित्व वाले कम ही नेता हुए हैं.
2009 में लगातार दूसरी बार लोक सभा चुनावों में जीत दर्ज कर जब यूपीए एक बार फिर सत्ता में आई, तब मुखर्जी ने वित्त मंत्रालय की बागडोर संभाली. जुलाई में उन्होंने अपना बजट पेश किया. उन दिनों लोक सभा टीवी के पास बजट की प्रतियां बजट पेश होने के कुछ घंटे पहले ही इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधिकारियों की निगरानी में लाकर रख दी जातीं थीं. क्वारंटाइन शब्द कोरोना वायरस महामारी की वजह से आज बहुचर्चित हो गया है, लेकिन लोक सभा टीवी के कर्मचारियों का इस शब्द से पुराना परिचय है.
उन दिनों लोक सभा टीवी में एक क्वारंटाइन टीम होती थी जिसे बजट के दिन सुबह सुबह बजट की प्रतियों, कुछ कोरे कागज, कलम और वीडियो एडिटिंग मशीनों के साथ एक बड़े कमरे में बंद कर दिया जाता था. टीम के सदस्यों के पास कुछ घंटों का समय होता था जिसमें उन्हें बजट की अलग अलग घोषणाओं को देखकर टीवी पैकेज बनाने पड़ते थे ताकि वित्त मंत्री के बजट भाषण के तुरंत बाद बजट की विस्तृत जानकारी सबसे पहले संसद का अपना टीवी चैनल लोगों को दे सके.
मैं उसी क्वारंटाइन टीम में हुआ करता था और सुबह सुबह बजट से वाकिफ हो जाने की वजह से बजट भाषण के तुरंत बाद विशेषज्ञों के साथ बजट पर चर्चा करता था. किस योजना के लिए कितनी राशि आवंटित हुई ये याद रखना मुश्किल था, तो वो सब विधिवत नोट करके रखता था. लेकिन प्रणब मुखर्जी उन्हीं जटिल आकड़ों को बजट भाषण के बाद मीडिया साक्षात्कारों में याद्दाश्त से दोहरा देते थे. और इनमें सिर्फ वही आंकड़े नहीं, जिस विषय पर प्रश्न पूछा जाता उससे संबंधित और भी आंकड़े और जानकारी ऐसे बता दिया करते थे जैसे उनके सामने कोई अदृश्य किताब खुली हो.
एक साथ चार-पांच किताबें पढ़ने वाले प्रणब मुखर्जी की याद्दाश्त और तजुर्बे का लोहा हर कोई मानता था. जो भूल जाता था उसके लिए तुरंत उदाहरण प्रस्तुत कर दिया जाता था. केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के लिए 15वीं लोक सभा में संसदीय कार्यप्रणाली एक नया तजुर्बा था. एक बार प्रश्न-काल में उन्होंने किसी सरकारी योजना के कार्यान्वयन में कमियां बताते हुए प्रणब मुखर्जी के मंत्रालय से संबंधित एक ऐसा सवाल पूछा जिसे विपक्ष के सांसदों ने अपनी मेजों पर हाथ मार मार कर सराहा. लेकिन जब मुखर्जी की बारी आई तब ठाकुर पानी पानी हो गए क्योंकि उन्होंने सवाल गलत तरीके से पूछा था और मुखर्जी ने जवाब देने से पहले उनसे कहा, "जवाब तो दूंगा ही, लेकिन उसके पहले आपको बता दूं कि सवाल पूछने का सही तरीका क्या है".
मैंने उन्हीं प्रणब मुखर्जी के सामने उनका साक्षात्कार ले रहे देश के एक सुप्रसिद्ध संपादक के पसीने छूटते हुए भी देखा. उनका व्यक्तित्व था ही ऐसा. ये विडंबना ही है कि इतने विशाल व्यक्तित्व के स्वामी होने के बावजूद वे अपनी पार्टी की नजरों में हमेशा नंबर दो ही रहे, कभी नंबर एक नहीं बन पाए. भारत में राष्ट्रपति कहने को हेड ऑफ स्टेट होता है, लेकिन असली राजनीतिक शक्ति प्रधानमंत्री या सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष या सत्तारूढ़ पार्टी को नियंत्रित करने वाले संगठन के पास होती है. मुखर्जी इनमें से कुछ नहीं बन पाए.
कहा जाता है कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके पुत्र राजीव गांधी की जगह खुद को इंदिरा का उत्तराधिकारी मान लेना उनके जीवन की सबसे बड़ी भूल थी, जिसके लिए गांधी परिवार ने उन्हें कभी माफ नहीं किया और कभी प्रधानमंत्री पद के लिए विश्वसनीय पात्र नहीं समझा. ये भी कहा जाता है कि राष्ट्रपति पद छोड़ने के बाद नागपुर स्थित आरएसएस के मुख्यालय में आयोजित एक समारोह का मुख्य अतिथि बनने का निमंत्रण उन्होंने सिर्फ कांग्रेस पार्टी और गांधी परिवार को अपने अंदाज में अपने साथ हुए अन्याय का जवाब देने के लिए स्वीकार किया था.
मुखर्जी राजनीति से कभी सेवानिवृत्त नहीं हुए, सिर्फ सक्रिय राजनीति से ओझल हो गए. दिल्ली में उनके आवास पर उनसे मशवरा लेने के लिए नेताओं का आना जाना हाल तक लगा रहता था. उनके जाने के बाद, भारत के राजनीतिक क्षितिज पर उनके जैसा मार्गदर्शक आज दूर दूर तक नजर नहीं आता. भारत के युवा नेताओं ने आज एक अद्वितीय प्रेरणा स्रोत और विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र ने अपनी राजनीति और संसदीय परंपरा का एक अनुपम संरक्षक खो दिया है.
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