पुलिस हिरासत में सैकड़ों की मौत
१९ दिसम्बर २०१६मानवाधिकार संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच की 114 पन्नों की रिपोर्ट में भारतीय पुलिस के काम करने के तरीके पर तीखे सवाल उठाए गए हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि पुलिस आए दिन गिरफ्तारी की कानूनी प्रक्रिया का उल्लंघन करती है. हिरासत में वह संदिग्धों को मरने तक प्रताड़ित करती है. जब इन मौतों के बारे में पुलिस से सवाल किए जाते हैं तो वह भागने की कोशिश, आत्महत्या, बीमारी या फिर हादसों को जिम्मेदार ठहराती है.
कई अन्य देशों की तरह भारत में पुलिस हिरासत में मारपीट करना या अन्य तरीकों से प्रताड़ित करना गैरकानूनी है. लेकिन पुलिस थानों के लॉक अप में या जेलों में आए दिन संदिग्धों की पिटाई होती रहती है. दबी जुबान में पुलिस का कहना है कि सही जानकारी निकलवाने के लिए ऐसा करना पड़ता है.
2009 से 2015 के बीच हुई 17 मौतों की सघन जांच का जिक्र रिपोर्ट में किया गया है. रिपोर्ट तैयार करने के लिए 70 लोगों का इंरटव्यू भी किया गया, जिनमें पीड़ितों के परिजन, चश्मदीद, न्यायिक विशेषज्ञ और पुलिस अधिकारी शामिल हैं. मौत के इन 17 मामलों में पुलिस ने एक बार भी कानूनी तरीके से गिरफ्तारी नहीं की.
मसलन, 2012 में उत्तर प्रदेश पुलिस ने रामू और श्यामू सिंह नाम के दो भाइयों को हिरासत में लिया. चोरी के केस की जांच कर रही पुलिस को रामू पर शक था. रामू के मुताबिक, हिरासत में "चार लोगों ने मुझे जमीन पर लिटाकर दबा दिया और एक मेरी नाक पर लगातार पानी डालता रहा. मैं सांस नहीं ले पा रहा था. मेरे साथ ये करने के बाद उन्होंने श्यामू के साथ ऐसा किया."
इस दौरान 37 साल का श्यामू बेहोश हो गया. रामू का कहना है, "तब उन्हें चिंता होने लगी, वे आपस में बात करने लगे कि यह तो मर जाएगा. उनमें से एक आदमी एक छोटा सा पैकेट लेकर आया और उसके अंदर की चीज उसने श्यामू के मुंह में डाल दी." बाद में पास के अस्पताल में श्यामू की मौत हो गई. पुलिस ने दावा किया कि श्यामू ने जहर खाकर जान दी. 2014 में शुरुआती विभागीय जांच में सात पुलिसकर्मियों को टॉर्चर और श्यामू की हत्या का आरोपी माना गया. लेकिन फाइनल रिपोर्ट में सभी आरोपियों को क्लीन चिट दे दी गई.
भारत में कानूनन हिरासत में लिए गए किसी भी व्यक्ति की मेडिकल जांच कराने के बाद उसे 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाना चाहिए. ह्यूमन राइट्स वॉच के मुताबिक खुद सरकारी आंकड़ें बताते हैं कि 2015 में 67 से 97 मामले ऐसे थे, जब हिरासत में लिए जाने के 24 घंटे के भीतर संदिग्ध की या तो मौत हो गई या फिर उसे मजिस्ट्रेट के सामने पेश नहीं किया गया.
ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया की डायरेक्टर मीनाक्षी गांगुली कहती हैं, "प्रताड़ना के लिए अधिकारियों को सजा देने के बाद ही भारत में पुलिस सीखेगी कि संदिग्ध को पीटकर कबूल करवाना अस्वीकार्य है."
रिपोर्ट का हवाला देते हुए गांगुली ने कहा, "हमारी रिसर्च दिखती है कि आए दिन, हिरासत में हुई मौत की जांच करने वाले पुलिस अधिकारी, जिम्मेदार लोगों को न्याय के सामने लाने के बजाए अपने साथियों को बचाने की चिंता में डूबे रहते हैं." हिरासत में हुई मौत की जांच करने वाले अधिकारी शायद ही कभी दोषी को सामने ला पाते हैं.
ओएसजे/एके (एपी)