पिछड़ेपन का धब्बा धोना चाहती है बिहार की जनता
२४ नवम्बर २०१०इस चुनाव में जहां कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी का करिश्मा बेअसर रहा, वहीं लालू की वापसी के दरवाजे बंद कर लोगों ने साफ कर दिया कि वे दागियों के हाथ में बिहार का भविष्य सौंपने को तैयार नहीं हैं. राज्य में कोई ढाई दशक बाद पहली बार यह चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा गया. चुनावी नतीजों ने यह भी साफ कर दिया है कि बिहार अब जात पात की राजनीति से ऊपर उठ रहा है. लंबे अरसे से यहां जातिगत आधार पर ही चुनाव लड़े जाते रहे हैं. चुनावी नतीजों ने यह मिथक तोड़ दिया है.
आखिर नीतीश सरकार की इस कामयाबी का राज क्या है ? इस सवाल के जवाब में पटना के आशियाना नगर में रहने वाले विवेक शुक्ल कहते हैं, "अब राज्य के लोगों में राजनीतिक जागरूकता बढ़ी है. लोग तमाम दलों और नेताओं की असलियत समझ चुके हैं. इसलिए जिसने विकास के कार्यों के जरिए उम्मीद की लौ जगाई थी, लोगों ने दोबारा उसे ही पहले के मुकाबले भारी बहुमत के साथ सत्ता सौंपी है."
मुजफ्परपुर के रहने वाले डा. रामनरेश पाठक कहते हैं कि लोग नेताओं के झूठे वादों से ऊब गए हैं. नीतीश सरकार के बीते पांच साल के काम काज को ध्यान में रखते हुए ही लोगों ने उसे सत्ता में बनाए रखा है. नीतीश की साफ सुथरी छवि भी उनके पक्ष में गई है.
लालू और रामविलास पासवान के बीच गठजोड़ और बिहार के विकास के लंबे चौड़े दावों और वादों के बावजूद उनके पिछले रिकार्ड को ध्यान में रखते हुए जनता ने उनको नकार दिया. सिवान के लल्लन यादव कहते हैं, "लोगों ने इस बार मौकापरस्त नेताओं को नकार दिया है. अब सबको समझ में आ गया है कि चुनाव के दौरान सतरंगी सपने दिखाने वाले नेता जीतने के बाद राज्य और लोगों के विकास की बजाय अपने विकास में लग जाते हैं. इसलिए अबकी जातीय समीकरण फेल हो गए और कामकाज के आधार पर ही वोट पड़े हैं."
लेकिन कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी और युवराज कहे जाने वाले महासचिव राहुल गांधी के तूफानी दौरों के बावजूद कांग्रेस को फायदे की बजाय नुकसान क्यों हुआ ? इस सवाल की अलग-अलग व्याख्या सुनने को मिल रही है. आम लोगों को कहना है कि कांग्रेस का पिछला रिकार्ड अच्छा नहीं रहा. पार्टी के नेता भी सत्ता में रहते अपना विकास करने में ही जुटे रहे.
पटना के मुन्ना मिश्र कहते हैं कि कांग्रेस का तो वर्षों से राज्य में कोई जनाधार ही नहीं बचा है. वह लालू की राजद के साथ मिल कर भी लड़ती तो नतीजा बेहतर नहीं होता. दूसरी ओर, कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि बिहार के वोटरों ने संकेत दे दिया है कि भविष्य उसी (कांग्रेस) का है. विपक्ष के बिखराव ने वोटरों के धुव्रीकरण में अहम भूमिका निभाई है.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि बरसों बाद बिहार में मुद्दों पर आधारित चुनाव हुए हैं. जातीय समीकरणों से उठ कर लोग विकास के पक्ष में लामबंद हुए हैं. यही नहीं, कुछ साल पहले तक लालू प्रसाद का वोट बैंक समझे जाने वाले अल्पसंख्यकों ने भी नीतीश सरकार का खुल कर समर्थन किया है. पर्यवेक्षकों के मुताबिक, यह नतीजे बिहार की राजनीति में एक नए अध्याय (नई सुबह) की शुरूआत का संकेत हैं.
रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता
संपादनः ए जमाल