1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

पश्चिम बंगाल में ममता फैक्टर

३० अप्रैल २००९

पश्चिम बंगाल में इस बार तीसरे मोर्चे के 'राजनैतिक अगुआ' वाम दलों की हालत नाज़ुक बताई जा रही है. तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बैनर्जी की लोकप्रियता बढ़ी है जिससे वाम दलों में बेचैनी है. कांग्रेस का हाथ ममता के साथ है.

https://p.dw.com/p/HfyQ
ममता की एक चुनावी रैलीतस्वीर: UNI

2009 का आम चुनाव आख़िर पश्चिम बंगाल जैसे राज्य में क्योंकर ख़ास है. और यहां दांव पर क्या लगा है. इसका सीधा सा जवाब आप किसी से भी पूछें तो जवाब मिलेगा पश्चिम बंगाल में दांव पर है वाम मोर्चे की साख. लेकिन इस चुनाव में वाम प्रतिष्ठा ही नहीं, तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बैनर्जी का राजनैतिक रूतबा भी दांव पर लगा है. कांग्रेस के लिए दांव पर लगी है एक संभावना, एक उम्मीद कि किसी तरह से राज्य में खोया जनाधार वापस आ सके.

राजनीति का निराला खेल देखिए कि तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बैनर्जी इन दिनों कांग्रेस के लिए वोट मांग रही हैं. कांग्रेस के साथ गठबंधन कर ममता इस बार राज्य की 42 लोकसभा सीटों के गणित में एक बड़े उलटफेर की तैयारी कर रही हैं और दबी ज़बान से ही सही वाम मोर्चे के कई नेता ममता की ताक़त में हुई बढ़ोतरी की बात मान रहे हैं. और सार्वजनिक रूप से ममता का नाम भले ही न लें लेकिन वाम दलों के बड़े नेता ये तो जान ही रहे हैं कि इस बार मुक़ाबला कड़ा है.

Wahlen Westbengalen Indien Kommunistische Partei Indiens Parteiführer Buddhadeb Bhattacharjee
मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्यतस्वीर: AP

पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य स्वीकार कर चुके हैं कि इस बार आम चुनाव में वाममोर्चा के लिए जीतना कठिन काम है. कांग्रेस और तृणमूल के गठबंधन को कोसते हुए उनका कहना है कि वाममोर्चा को इस बार चुनाव में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ेगा, चूंकि सभी अलगाववादी ताक़तें एकजुट हो गई हैं. कमोबेश यही बात सीपीएम महासचिव प्रकाश करात भी हाल के कोलकाता दौरे में बोल गए थे लेकिन उन्होंने ये भरोसा भी जताया था कि सभी मुश्किलों के बावजूद वाम मोर्चा जीतेगा.

1977 के लोकसभा चुनाव के बाद से पश्चिम बंगाल में अगर कभी भी किसी ग़ैर वाम मोर्चा पार्टी ने कोई गंभीर चुनौती दी तो वो था 1984 का चुनाव. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति लहर में कांग्रेस ने राज्य में 16 सीटें निकालीं थीं. उस समय तो सहानुभूति लहर थी लेकिन इस बार सरकार विरोधी लहर को कांग्रेस कितना भुना पाती है ये देखने लायक होगा. लहर तो है. इसी लहर को भांपकर ही कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी रैलियां करने आयीं और इसीलिए उन्होंने अपने बेटे और पार्टी महासचिव राहुल गांधी को भी रवाना कर दिया. राहुल का जोश देखिए कि कई दशकों से पश्चिम बंगाल की गद्दी पर क़ाबिज़ लेफ़्ट को उन्होंने ललकारने के अंदाज़ में पूछ डाला कि केंद्र के भेजे पैसे का क्या किया.

Produktion des Tata Nano Autos in Indien
टाटा के सिंगूर प्लांट का हुआ विरोध और बना ये मुद्दा. पूजा पांडालों से लेकर चुनावों तकतस्वीर: AP

वाम मोर्चे की हालत पतली क्यों है ये जानने से पहले आपको ये बता दें कि आख़िर इतने दशकों से लाल ब्रिगेड की सफलता का राज़ क्या है. तो बात सीधी सी है. राज्य में एक मुहिम चलायी गयी थी जिसके तहत लाखों बंटाईदारों को ज़मीन से बेदख़ल करने से रोकने और क़रीब क़रीब ज़मीन का मालिक बना देने की व्यवस्था की गयी थी. इस मुहिम से वाम मोर्चे ने भूमिहीनों, वंचितों, किसानों तथा मज़दूरों का दिल जीता और फिर वोट जीतते चले आए.

18.07.2006 projekt zukunft fragezeichen
यही है वह 'सवाल का निशान' जिसे आप तलाश रहे हैं. इसकी तारीख़ 30/04 और कोड 0854 हमें भेज दीजिए ईमेल के ज़रिए [email protected] पर या फिर एसएमएस करें 0091 9967354007 पर.तस्वीर: DW-TV

पश्चिम बंगाल में क़रीब 27 फ़ीसदी मुसलमान हैं और उनके वोट भी पारंपरिक और ज़रूरत के हिसाब से वाम मोर्चे को ही जाते रहे हैं. फिर वोटर जनता को चुनाव बूथों तक लाने का काम लाल ब्रिगेड की युवा शक्ति बख़ूबी करती आयी है. रही बात शहरी मध्यम वर्ग की तो पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने अपनी कट्टर कम्युनिस्ट वाली छवि के बीच से ही कुछ रास्ता इस वर्ग को संबोधित करने के लिए निकाला और उनके उत्तराधिकारी और मौजूदा मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टा्चार्य ने तो शहरी मध्यम वर्ग के बीच अपनी पैठ ही बना ली. कारोबारियों और बड़े पूंजीपतियों के बीच में तो वह लोकप्रिय हुए ही हैं.

बस सफलता और ऊंचाइयों की इन्हीं इतराहटों के बीच से वाम मोर्चे के किले में दरार की पहली रेखा दो साल पहले प्रकट होना शुरू हुई. नंदीग्राम और सिंगूर को भला कौन भुला सकता है. विशेष आर्थिक ज़ोन के नाम पर हुए भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ ज़बर्दस्त प्रतिरोध ने वाम मोर्चे की नींद ही उड़ा दी. सर्वहारा की राजनीति करने वालों को जनता ने ज़मीन झपटते देखा तो आंदोलन उठ खड़ा हुआ. इस आक्रोश को सही समय पर कैश किया तेज़ तर्रार ममता बैनर्जी ने. एक तरफ़ ये आंदोलन उठा तो ग्रामीण मतदाताओं के बीच वाम मोर्चा का जनाधार खिसकने लगा. पंचायत चुनाव इसके गवाह हैं.

2004 के लोकसभा चुनाव में वामपंथी दलों को 62 सीटें मिली थीं और इनमें से 35 सीटें अकेले पश्चिम बंगाल से थीं. लेकिन इस बार जानकारों की राय में लगता नहीं कि वाम मोर्चा ये आंकड़ा छू पाएगा. अगर ऐसा होता है तो तीसरे मोर्चे की परिकल्पना और उसके संचालन में बड़े भाई की भूमिका निभा रहे वामपंथी दलों की इस मोर्चे में ऐसी दबदबेदार उपस्थिति शायद ही बनी रह पाए. जानकारों की राय में तीसरे मोर्चे का राजनैतिक भविष्य भी बहुत कुछ वाम मोर्चे के प्रदर्शन पर टिका है.

-शिवप्रसाद जोशी