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पड़ोसियों से भारत के रिश्तों पर चीन का साया

राहुल मिश्र
२० अक्टूबर २०२०

भारत के थलसेना प्रमुख मनोज मुकुंद नरवणे नेपाल की यात्रा पर जाने वाले हैं. भारत नेपाल सीमा विवाद के समय अपने बयान से बहस को हवा देने वाले नरवणे की यात्राएं पड़ोसियों के साथ भारत के संबंधों पर निगाह डालने का मौका है.

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Nepal SAARC Gipfel in Kathmandu 2014
फाइल फोटोतस्वीर: Getty Images/N. Shrestha

जनरल नरवणे की नेपाल यात्रा का जिक्र इसलिये प्रासंगिक है क्योंकि मई में जब भारत और नेपाल के बीच अचानक सीमा विवाद शुरू हुआ तो यह नरवने ही थे जिन्होंने बेबाकी से कह दिया था कि नेपाल का दोनों देशों की सीमा को लेकर विवाद किसी तीसरे देश का भड़काया हुआ है. साफ है उनका इशारा चीन की ओर था. इस बयान की नेपाल में काफी आलोचना भी हुई. नरवणे की इस बेबाक बयानी ने यह तो स्पष्ट कर ही कर दिया कि भारत की राय में चीन भारत के पड़ोसी देशों को भड़काने की कोशिश में लगातार जुटा हुआ है और यह उसके लिये बड़ी चिंता का विषय है. नरवणे की नवंबर में होने वाली यात्रा के दौरान उन्हें नेपाली सेना के मानद जनरल की उपाधि दी जायेगी. दोनों देशों की सेनाओं के बीच यह रस्म दशकों से चली आ रही है जिसकी बड़ी वजहें लगभग 30 हजार गोरखाओं का भारतीय सेना में कार्यरत होना और दोनों देशों के बीच भरोसेमंद साझेदारी हैं.

बात नेपाल तक ही सीमित नहीं है. हर पड़ोसी देश के साथ भारत के रिश्तों पर चीन का साया रहता है. कुछ दिन पहले ही नरवणे विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला के साथ म्यांमार के दौरे पर भी गए थे. नरवणे और श्रृंगला की म्यांमार यात्रा में भी चीन का साया मंडराता रहा. हाल ही में भारत ने म्यांमार को अपनी एक किलो-क्लास सैन्य पनडुब्बी आइएनएस सिंधुवीर दे रहा है. स्पष्ट है कि म्यांमार के साथ सैन्य सहयोग पर खासा ध्यान दिया जा रहा है.

Nepal Kathmandu Flaggen
नेपाल चीन के बढ़ते संबंधतस्वीर: picture-alliance/AP Photo/N. Shrestha

पड़ोसियों के साथ रिश्तों के केंद्र में चीन

पिछले कुछ हफ्तों में भारत ने अपने पड़ोसी देशों से नजदीकियां बढ़ाने पर जोर दिया है. चाहे सितम्बर में हुई भारत-श्रीलंका वर्चुअल बैठक हो या मालदीव को 25 करोड़ अमेरिकी डॉलर की सहायता, भारत की कोशिशें जारी हैं. अक्तूबर 19 से 21 तक चलने वाला भारत-श्रीलंका संयुक्त सैन्य अभ्यास भी इसी का प्रमाण है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि कठिनाइयों और उतार चढ़ाव के बावजूद पिछले कुछ सालों में पाकिस्तान को छोड़ कर दक्षिण एशिया के हर देश से भारत के संबंध बढ़े हैं, खास तौर पर पूर्वी और दक्षिणी जल-थल सीमाओं से जुड़े पड़ोसियों के साथ. हालांकि श्रीलंका से एक समय पर मतभेद व्यापक पैमाने पर हो गए थे लेकिन अब  वह अतीत का हिस्सा बन चुके हैं. बांग्लादेश के साथ भी ऐसे छोटे-मोटे विवाद हुए हैं लेकिन मोटे तौर पर भारत का पड़ोसी देशों से रिश्ता समय समय पर होने वाले मतभेदों के बावजूद सुदृढ़ और मधुर ही रहा है.

इस सब के बावजूद हाल के सालों में पड़ोसियों को लेकर भारत में कहीं न कहीं एक संशय की स्थिति भी उभरी है. इसकी सबसे बड़ी वजह है दक्षिण एशिया में चीन का बढ़ता दबदबा. वैसे तो चीन पिछले सत्तर से अधिक वर्षों से दक्षिण एशिया में अपनी पैठ बनाने की कोशिश कर रहा है लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उसकी दक्षिण एशिया के देशों के बीच पकड़ मजबूत हुई है. और ये भी सही है कि पिछले एक दशक में भारत के पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते उतने नहीं बढ़े हैं जितनी उम्मीद की जा रही थी. नेपाल हो या श्री लंका या फिर बांग्लादेश, भीतरखाने कहीं ना कहीं चीन एक कारण रहा है.

Nepal SAARC Gipfel in Kathmandu 2014
दोस्ती जो रंग न ला सकीतस्वीर: Getty Images/AFP/N. Shrestha

मोदी सरकार की शुरुआती कोशिश

नरेंद्र मोदी सरकार ने 2014 में सत्ता में आते ही नेबरहुड फर्स्ट जैसी महत्वाकांक्षी नीति की शुरुआत की. तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ समेत दक्षेस के सभी सदस्य देशों के शीर्ष नेताओं को मोदी के शपथ ग्रहण में न्योता दिया गया. लेकिन मोदी की शरीफ से दोस्ती रंग न ला सकी और उसका हाल भी वाजपेयी की लाहौर बस यात्रा और मनमोहन सिंह के तमाम प्रयासों जैसा ही हुआ. पिछले चार-पांच सालों में पाकिस्तान के साथ दुश्मनी का माहौल बना है. जम्मू कश्मीर में धारा 370 हटने के बाद से पाकिस्तान में बौखलाहट है और लगता नहीं कि संबंध आने वाले कुछ वर्षों में सुधरने वाले हैं. भारत-पाकिस्तान के द्विपक्षीय सम्बन्धों की कड़वाहट का असर भारत के दूसरे देशों के साथ रिश्तों पर भी पड़ा है. लेकिन भारत-पाकिस्तान के संबंधों में भी चीन की भूमिका ने इसे और पेंचीदा बना दिया है.

पाकिस्तान से विवादों के चलते और खासकर कश्मीर पर पाकिस्तान के दबाव के कारण भारत ने पिछले कुछ वर्षों से दक्षेस समूह की जगह बिम्स्टेक को वरीयता देना शुरू कर दिया है.  मोदी के सत्ता में आने के बाद लगा था कि शायद नेपाल और भारत के संबंधों में भी बेहतर दिन आएंगे. खुद मोदी ने नेपाल के साथ बेहतर रिश्तों की वकालत की थी. लेकिन बदलते घरेलू राजनीतिक समीकरणों के बीच भारत और नेपाल के संबंध कुछ इस तरह बद से बदतर होते चले गए कि एक समय भारत ने नेपाल की आर्थिक नाकेबंदी भी कर दी. हाल में उठे भारत - नेपाल सीमा विवाद ने परिस्थितियों को और बिगाड़ दिया है. चीन के साथ नेपाल के नेताओं की नजदीकियों ने तनावों को एक नया रंग दे दिया है और तमाम संकल्पों के बावजूद संबंधों में तनाव बना हुआ है. चीन से पार पाना फिलहाल कठिन दिख रहा है लेकिन यह भी साफ है कि चीन को लेकर परिवर्तन की पहली बयार काठमांडू से ही बहेगी.

Bhutan - Indiens Premierminister Narendra Modi zu Besuch
भूटान के राज और रानी के साथ मोदीतस्वीर: Getty Images

समान चिंताएं, एक जैसा रवैया

भूटान और अफगानिस्तान दोनों ही देशों के साथ भारत के संबंध पिछले दो दशकों में बहुत मजबूत हुए हैं और इसका श्रेय भारत के साथ-साथ इन दोनों देशों को भी जाता है. आज इन दोनों ही देशों में भारत न सिर्फ एक प्रमुख आर्थिक सहयोगी है बल्कि सामरिक स्तर पर भी भारत इनका भरोसेमंद सहयोगी है. दिलचस्प यह भी है कि दोनों देशों के नीति-निर्धारक भारत की ही तरह चीन को लेकर संशय में रहते हैं. खास तौर पर भूटान जिसके साथ चीन के सीमा विवाद के चलते भारत और चीन डोकलाम में युद्ध की स्थिति तक पहुंच गए थे.

जहां तक बांग्लादेश का सवाल है तो भारत की लगातार कोशिशों और शेख हसीना के भारत से अच्छे संबंधों बनाए रखने की प्रतिबद्धताओं ने रिश्तों में मधुरता को तो कम होने नहीं दिया है लेकिन तेजी से आर्थिक प्रगति कर रहे बांग्लादेश ने कम से कम आर्थिक मोर्चे पर तो चीन से नजदीकियां बढ़ाई ही हैं. चीन की बेल्ट एंड रोड परियोजना में भी बांग्लादेश की खासी दिलचस्पी है. चीन के मुकाबले अपनी सीमित आर्थिक शक्ति के चलते भारत बांग्लादेश के साथ परस्पर आर्थिक सहयोग और विकास में एक मात्र कारक नहीं बना रह सकता. तिस्ता पर बांग्लादेश और चीन के बीच हुए समझौते से साफ है कि अपनी जरूरतों के लिये बांग्लादेश भारत का मुंह नहीं ताकेगा और चीन का साथ लेने से भी गुरेज नहीं करेगा.

Sri Lanka Hambantota Hafen
हंबनटोटा में चीन की मुश्किल मददतस्वीर: Getty Images/AFP/I. S. Kodikara

रिश्तों में आर्थिक सहयोग जरूरी

श्री लंका के साथ भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति है और चीन के बेल्ट एंड रोड की तुलना में भारत के निवेश और आर्थिक सहयोग के अन्य प्रस्ताव कहीं न कहीं छोटे पड़ गए लगते हैं. दरअसल श्री लंका और बांग्लादेश ही नहीं म्यांमार और मालदीव में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति है और कूटनीतिक स्तर पर भारत के साथ होने के बावजूद यह देश चीन के साथ सहयोग को एक बड़े अवसर के रूप में आंकते हैं हालांकि बेल्ट एंड रोड परियोजना के कई मुद्दों पर इन तीनों ही देशों में चीन का विरोध भी हुआ है.

आर्थिक मोर्चे पर सफलता से उत्साहित चीन अब सामरिक स्तर पर भी इन देशों से संबंधों को बढ़ाने में लगा है. और यही चीन से सीमा विवाद और सामरिक तनाव में उलझे भारत के लिये चिंता का विषय है. फिलहाल भारत के लिए सामरिक और सैन्य सहयोग के स्तर पर दक्षिण एशिया में कोई खतरा तो  नहीं दिखता और भारत इसे बनाए रखने की पूरी कोशिश भी करता दिख रहा है, लेकिन, जब तक भारत तेज आर्थिक विकास नहीं करता है और इस मोर्चे पर दक्षिण एशिया में पारस्परिक सहयोग के नए और बड़े अवसर नहीं बना पाता, तब तक ये चिंतायें कमोबेश ऐसी ही बनी रहेंगी.

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)

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