नीति, रणनीति और दुर्नीति !
२ जनवरी २०१५योजना आयोग के पुनर्गठन और उसका नाम बदलकर नीति आयोग करने के फैसले का विपक्ष ने तीखा विरोध किया है. केंद्र सरकार के इस कदम को सतही और दिखावटी करार देते हुए विपक्ष ने राज्यों के साथ भेदभाव की आशंका जताई है. साथ ही इसे दुर्नीति व अनीति आयोग जैसे विश्लेषणों से नवाजते हुए आरोप लगाया है कि अब नीति बनाने में कारपोरेट घरानों की चलेगी.
नीति आयोग बनने से सबसे बड़ा बदलाव देश में योजनाओं के निर्माण और उनके क्रियान्वयन में होगा. योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए केंद्र राज्यों को धन देता था. राज्यों की सबसे बड़ी शिकायत यही थी कि उन्हें कई केंद्रीय योजनाओं को बेवजह ढोना पड़ता है. पिछले दिनों योजना आयोग में बदलाव के मसले पर मुख्यमंत्रियों की बैठक में भी अधिकतर ने यह मुद्दा उठाया था. नीति आयोग के जरिए सरकार ने राज्यों की इस मांग को काफी हद तक पूरा करने की कोशिश की है.
इस आयोग की खासियत यह है कि केंद्रीय योजनाओं की संख्या घटेगी और विकसित, विकासशील और पिछड़े राज्यों की योजनाएं अलग होंगी. प्रधानमंत्री ने कहा है कि अब देश के सभी राज्यों के लिए एक समान योजना नहीं बनेगी. किस राज्य की क्या जरूरत है, उसे देखते हुए योजना बनाई जाएगी. "मजबूत राज्यों से मजबूत राष्ट्र का निर्माण" के सिद्धांत पर गठित नीति आयोग के बारे में वित्त मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं कि यह सरकार के लिए एक थिंक टैंक का काम करेगा.
वैसे, पिछले कुछ दशकों से विवादास्पद रहे योजना आयोग की विदाई अप्रत्याशित नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले वर्ष स्वाधीनता दिवस के मौके पर लाल किले की प्राचीर से इसे भंग करने और इसकी जगह कहीं बेहतर व प्रासंगिक संस्था बनाने का एलान किया था. यह सच है कि मार्च, 1950 में गठित योजना आयोग ने शुरुआती दशकों में निश्चित तौर पर आधारभूत संरचना और आर्थिक विकास के लिहाज से बेहतर काम किया था, लेकिन बाद में वह धीरे-धीरे अपनी प्रासंगिकता खोने लगा था. खासतौर पर 1991 में नई आर्थिक नीतियों और उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू होने के बाद योजना आयोग पर सवालिया निशान लगने लगे थे. इसकी एक प्रमुख वजह यह भी रही कि योजना आयोग केंद्रीय सत्ता के एक समानांतर केंद्र की तरह राज्यों पर नियंत्रण कर रहा था और उनकी नीतियों और योजनाओं को प्रभावित कर रहा था. भारत के संघीय ढांचे में राज्यों की प्रमुख भूमिका होती है, लेकिन हालत यह थी कि मुख्यमंत्रियों तक को अपने राज्यों के हितों के लिए योजना आयोग के समक्ष दीन-हीन बन कर हाथ फैलाना पड़ता था. ऐसे मामले कम ही हैं जब आयोग ने किसी राज्य को उसके मुख्यमंत्री की ओर से मांगी रकम दी हो.
योजना आयोग ने 12 पंचवर्षीय योजनाएं जरूर दीं, लेकिन समय के साथ इसके तौर-तरीके में बदलाव नहीं किया गया. इस आयोग की जगह गठित होने वाले नीति आयोग आयोग का दायरा काफी व्यापक बनाया गया है और उसमें मुख्यमंत्रियों को भी शामिल किया जाएगा. आयोग केंद्र और राज्य सरकारों को रणनीतिक और तकनीकी सलाह देगा और नीति निर्धारण में सहायता करेगा. लेकिन यहां यह ध्यान रखना जरूरी है कि यह कवायद सिर्फ राजनीतिक विचारधाराओं के सांकेतिक संघर्ष में उलझकर न रह जाए. साथ ही यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह कवायद महज निवेशकों के हितों की पोषक बनकर भी न रह जाए, बल्कि सही अर्थों में बदलाव की वाहक बने.
सरकार का दावा है कि नीति आयोग अंतरमंत्रालय और केंद्र-राज्य सहयोग से नीतियों के धीमे क्रियान्वयन को खत्म करेगा. यह राष्ट्रीय विकास की प्राथमिकताओं की साझा सोच बनाएगा. आयोग का दर्शन यह है कि मजबूत राज्यों से ही एक मजबूत देश बनेगा. इसमें समाज के पिछड़े तबकों पर खासतौर से ध्यान देने का प्रावधान होगा.
विपक्ष की आपत्ति
वैसे, सीपीएम, कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस समेत ज्यादातर विपक्षी दलों ने सरकार के इस फैसले का विरोध किया है. सीपीएम नेता सीताराम येचुरी कहते हैं, "महज नाम बदलने से देश का हित नहीं सधेगा. इस बात का ध्यान रखना होगा कि यह नीति आयोग कहीं दुर्नीति यानी भ्राष्टाचार आयोग नहीं बन जाए." कांग्रेस के प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा है कि सत्ता में आने के बाद से ही मोदी सरकार विभिन्न केंद्रीय योजनाओं के नाम बदलने में जुटी है. अब उसने स्वायत्त संस्थाओं को भी निशाना बनाया है. वह कहते हैं, "योजना आयोग में रचनात्मक सुधार का स्वागत है लेकिन कांग्रेस और नेहरूवाद के खिलाफ इसके मूल ढांचे को बदला जा रहा है जो स्वीकार नहीं किया जा सकता." अपने एजेंडे के तहत पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी इसका विरोध किया है. विपक्ष की दलील है कि इस आयोग के जरिए तमाम फैसले कारपोरेट घराने करने लगेंगे. इससे राज्यों के साथ भेदभाव की आशंका बनी रहेगी.
अर्थशास्त्रियों की राय
लेकिन इस मुद्दे पर अर्थशास्त्रियों की राय मिली-जुली है. एक अर्थशास्त्री प्रोफेसर अशोक दासगुप्ता कहते हैं, "इससे राज्यों को भी अपने हितों का मुद्दा उठाने का अधिकार मिलेगा. उनको विभिन्न केंद्रीय योजनाओं का बोझ नहीं ढोना पड़ेगा. वह अपनी जरूरत के मुताबिक योजनाओं के बारे में सलाह दे सकते हैं." लेकिन एक अन्य अर्थशास्त्री शुभमय पाल कहते हैं, "नीति आयोग पर कोई टिप्पणी करने से पहले इसके कामकाज को देखना जरूरी है. इसके अलावा योजनाओं के निर्माण और नीतिगत फैसलों में पारदर्शिता का मुद्दा भी बेहद अहम है." उनका कहना है कि जिन सिद्धांतों के आधार पर इस आयोग के गठन का फैसला किया गया है वे आदर्श हैं. लेकिन यह बात ध्यान में रखनी होगी कि किसी राजनीतिक दल का निजी एजंडा राज्यों के हितों पर भारी नहीं पड़े.
ब्लॉग: प्रभाकर, कोलकाता