नाज़ी यातना शिविर से मुक्ति की याद
२७ जनवरी २०१०हिटलर के शासन काल में जर्मनी के इस सबसे बड़े यातना शिविर में बंदियों को प्रताड़ना तो दी ही गई थी, 11 लाख लोगों को मौत के घाट उतारा गया. आउशवित्स का नाज़ी यंत्रणा शिविर यहूदियों को नष्ट करने की नाज़ियों की हत्यारी रणनीति का प्रतीक बन गया था और इसलिए द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनों के नाम पर की गई बर्बरता का स्मारक. सोवियत संघ की सेना द्वारा 27 जनवरी 1945 को उसे आज़ाद किए जाने तक वहां 11 लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिया.
नाज़ियों द्वारा अधिकृत पोलैंड की भूमि पर स्थित दोहरा यातना शिविर आउशवित्स बिरकेनाउ मौत की राह पर भेजे गए लाखों लोगों के लिए अंतिम स्टेशन था जिन्हें धर्म, नस्ल, विचारधारा या शारीरिक कमज़ोरी के कारण नाज़ियों के गैस चैंबर में भेज दिया जाता था. सालों तक यहां यहूदियों को, राजनीतिक विरोधियों को, बीमारों और समलैंगिकों से जबरन काम लिया जाता था. और यह सब काम आज़ाद करता है नारे के तहत जो यंत्रणा शिविर के गेट पर लिखा था.
यातना शिविर पश्चिमी पोलिश शहर क्राकाऊ से 60 किलोमीटर दूर दलदली इलाक़े में था, जहां से भागना कतई संभव नहीं था. कैंप के चारों ओर 40 वर्ग किलोमीटर का प्रतिबंधित क्षेत्र था जिसकी निगरानी हथियारबंद गार्ड और ख़तरनाक शेफ़र कुत्ते करते थे.
लोगों को ट्रेनों में भर कर कैंप में लाया जाता था. किसी को पता नहीं होता था कि उन्हें कहां ले जाया जा रहा है और वहां उनके साथ कैसा व्यवहार होगा. दूसरे नाज़ी यातना कैंपों के विपरीत आउशवित्स बिरकेनाऊ शुरू से ही बनाया गया था लोगों को मारने के लिए. नए आने वाले क़ैदियों को काम करने योग्य और काम करने के अयोग्य दलों में बांट दिया जाता था.
बूढ़े और बीमार लोगों की गैस चैंबर में मौत तय होती थी. कैंप में चार क्रिमेटोरियम थे जो हर दिन 4,700 लाशों को जला सकते थे. और जो गैस चैंबर से बच जाता था उसे काम करना पड़ता था, अक्सर पूरी तरह थक जाने तक. आउशवित्स के यंत्रणा शिविर के निकट इंडस्ट्रियल एरिया था जहां स्थित उद्यम नाज़ियों से बंदियों को उधार पर काम करवाने के लिए लेते थे. कुख्यात नाज़ी संगठन एसएस की अपनी कंपनियां भी थीं. 1943 में यंत्रणा शिविर में 1 लाख बंदी थे जिन्हें 200 बैरकों में बंद रखा जाता था.
1944 की सर्दियों में एसएस ने कैंप को खाली करना शुरू किया क्योंकि सोवियत सैनिक आगे बढ़ते जा रहे थे. पैदल चलने में सक्षम बंदियों को मौत की परेड पर दूसरे यातना शिविरों में भेज दिया गया. 27 जनवरी 1945 को लाल सेना ने आउशवित्स को आज़ाद किया और वहां बच गए लगभग 5 हज़ार बंदियों को रिहा कराया. 1947 में ही इस शिविर को पोलिश संसद ने एक कानून पास कर सरकारी म्यूज़ियम में बदल दिया.
रिपोर्ट: महेश झा
संपादन: एस गौड़