धार्मिक असहिष्णुता के दौर में मंटो
३ फ़रवरी २०१३मंटो को पढ़कर इस बात का अहसास होता है कि हमारा समाज अभी कहां पहुंचा है. कोलकाता पुस्तक मेले के दौरान आयोजित कोलकाता साहित्य सम्मेलन में 'सदाबहार मंटो' शीर्षक एक विमर्श में शिरकत करने वाले वक्ताओं ने यह बात कही. इस पांच दिवसीय सम्मेलन के दूसरे दिन मंटो और उनकी रचनाओं पर आयोजित एक सार्थक विमर्श में जाने-माने गीतकार जावेद अख्तर के अलावा पाकिस्तानी उपन्यासकार मुशरर्फ अली फारूकी और पत्रकार अली सेठी ने मंटो के व्यक्तित्व और रचना संसार के विभन्न पहलुओं को उजागर किया. इस विमर्श का संचालन किया पृथा केजरीवाल ने.
मशहूर शायर व गीतकार जावेद अख्तर ने कहा, "मंटो एक प्रगतिशील रचनाकार थे. उनके इस दुनिया के जाने की आधी सदी के बावजूद अगर हम यहां उनकी चर्चा कर रहे हैं तो साफ है कि मौजूदा दौर में भी वह प्रासंगिक हैं." उनका कहना था कि मंटो को हमेशा एक तुच्छ लेखक समझा गया. लेकिन हकीकत यह है कि वह अपने समकालीन लेखकों के लिए एक चुनौती बन गए थे. मंटो ने अपनी लेखनी के जरिए समाज के आम लोगों का दुख-दर्द बयान किया था.
तो मंटो का क्या होता
जावेद ने कहा, "मैं इस बात की कल्पना नहीं कर सकता कि मंटो ने अगर अपनी साहसिक रचनाएं मौजूदा दौर में लिखी होंती तो क्या होता." उन्होंने कहा कि उस दौर में मौजूदा दौर के मुकाबले लिखना या अपनी कलात्मकता को बेहतर तरीके से अभिव्यक्त करना कहीं ज्यादा आसान था.
उपन्यासकार फारूखी भी इस बात पर सहमत दिखे कि इतने अरसे बाद भी अगर मंटो को याद किया जा रहा है तो इसकी वजह उनकी रचनाशीलता की ताकत है. मंटो की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि उनकी कहानियों के पात्र झूठ बोलने के अलावा बेईमानी भी करते हैं. इसके बावजूद वह समाज के बिंब के तौर पर उभरते हैं. अली सेठी ने कहा, "मंटो की कहानियां पचास साल पहले जितनी प्रासंगिक थी, मोजूदा दौर में उससे कहीं ज्यादा प्रासंगिक हैं. उन्होंने अपनी कहानियों में समाज की जिन विसंगितयों का चित्रण किया था वह अब भी जस की तस हैं."
उन्होंने कहा कि अमूमन मंटो की कहानियों की तो बहुत चर्चा होती है, लेकिन शिल्प पर खास चर्चा नहीं होती, "उनकी रचनाओं का शिल्प गौण हो जाता है जबकि यह बहुत सहज और जीवन के करीब था."
'टोबा टेक सिंह' और 'ठंडा गोश्त' जैसी कहानियां इंसान को समाज का आइना दिखा देती हैं. यह कहानियां कई सवाल उठाती हैं क्योंकि उन्होंने भोगे हुए यथार्थ को कागज पर उतारा है, कहीं और से पढ़कर या सुनकर नहीं, "टोबाटेक सिंह कहानी को मौजूदा संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए."
हासन और रुश्दी पर बहस
अख्तर ने कमल हासन की फिल्म विश्वरूपम के खिलाफ उठने वाली आवाजों के हवाले से समाज में बढ़ती धार्मिक असहिष्णुता का जिक्र करते हुए कहा कि देश में कट्टरवाद के इस दौर को पराजित करना जरूरी है. रुश्दी का नाम लिए बिना उनका कहना था कि वह (जावेद) अभिव्यक्ति की आजादी के समर्थक हैं. लेकिन कोई भी आजादी बिना शर्त नहीं होती. वह कहते हैं, "मैं अपने पड़ोसी के खिलाफ कुछ भी नहीं लिख सकता. हम एक से दूसरी जगह जाने के लिए आजाद हैं. लेकिन हमें यह तो पता होना ही चाहिए कि सड़क के किस ओर चलना है."
उनकी राय में इस समस्या के स्थायी समाधान के लिए दोनों पक्षों को आत्मावलोकन करना होगा. जावेद कहते हैं कि कट्टरपंथ के खिलाफ देश भर में उठने वाली आवाजें राहत देने वाली हैं, "ऐसी आवाजें ही कट्टरपंथ को पराजित कर सकती हैं."
इस विमर्श के आखिर में वक्ताओं ने श्रोताओं के सवालों के जवाब भी दिए. कुल मिला कर इस विमर्श ने श्रोताओं को मंटो के रचना संसार के कई अनछुए पहलुओं से तो अवगत कराया ही, यह भी बताया कि मंटो की प्रासंगिकता अब भी कम नहीं हुई है.
रिपोर्ट: प्रभाकर, कोलकाता
संपादन: ईशा भाटिया