दौलत-शोहरत के बीच बॉलीवुड में जड़ें जमाता डिप्रेशन
१७ जून २०२०युवा फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत अब इस दुनिया में नहीं रहे लेकिन उनकी आत्महत्या ने अपने पीछे कई सवाल छोड़ दिए हैं. फिल्म इंडस्ट्री के भीतर और बाहर भाई-भतीजावाद, गुटबाजी जैसे कई विषयों पर बहस छिड़ गई हैं. सोशल मीडिया पर कई तरह के मूवमेंट शुरू हो गए हैं. जिसको जैसे समझ आ रहा है वह वैसे अपनी राय बयां कर रहा है. लेकिन इन सबके बीच जो सबसे बड़ा मुद्दा सामने आया है वह है डिप्रेशन का. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक सुशांत डिप्रेशन का शिकार थे. अब सवाल है कि रुपहले पर्दे की चमकती-दमकती दुनिया में यह कैसा अवसाद है जो गहराई तक पैठ जमा चुका है और नाम, शोहरत, रुतबे की चकाचौंध में आसपास रहने वाले और करीबियों को भी नजर नहीं आता.
मुंबई के मशहूर मनोचिकित्सक डॉक्टर हरीश शेट्टी कहते हैं कि मानसिक बीमारियां अन्य बीमारियों की तरह ही होती हैं. कोई व्यक्ति बच जाता है और कोई नहीं बच पाता. हालांकि वे ये भी कहते हैं बॉलीवुड में कई सितारे मनोचिकित्सक की मदद लेते हैं और अधिकतर मामलों में वे अपनी अवसाद की मनोस्थिति से उबर जाते हैं. डॉक्टर शेट्टी के मुताबिक "वैश्वीकरण के दौर में हर एक बीमारी इंसान को कम उम्र में ही होने लगी है. यही हाल डिप्रेशन का भी है. आज हर सात में से एक व्यक्ति अवसाद से ग्रस्त है.”
फिल्मी दुनिया के कारण
जानकार मानते हैं कि मुंबई में फिल्म इंडस्ट्री बिल्कुल भी व्यवस्थित नहीं है. इसमें हर तरह के लोग काम करते हैं. किसी के लिए सफलता का संघर्ष बहुत ज्यादा है किसी के लिए कम. फिल्म डायरेक्टर अशोक यादव कहते हैं कि बॉलीवुड में एक समस्या टैंलेट मैंनेजमेंट को लेकर है. उन्होंने कहा, "बड़े प्रॉडक्शन हाउस की अपनी टैंलेंट कंपनियां है जो कई बार नए लोगों को मौके देती हैं. मौके देने के साथ-साथ कंपनियां मानने लगती हैं कि ये नए लोग उनका टैलेंट है और आगे भी उनके साथ ही काम करेंगे. धीरे-धीरे यह चीजें उस कलाकार को कंट्रोल करने लगती हैं. कलाकार की क्रिएटिव फ्रीडम खत्म हो जाती है और वे घुटन महसूस करने लगते हैं.”
कुछ इसी तरह की बात दबंग फेम डायरेक्टर अभिनव कश्यप ने कही हैं. अपने सोशल मीडिया पोस्ट पर अभिनव ने कास्टिंग एजेंसियों को डेथ ट्रेप करार दिया. अभिनव कहते हैं, "कास्टिंग एजेंसियों के चलते एक दशक तक व्यक्तिगत रूप से परेशान होने के बाद अब मैं यह कह सकता हूं कि ये एजेंसियां किसी का भी जीवन और कैरियर बर्बाद करने में सक्षम हैं.”
लाइफस्टाइल भी समस्या
बॉलीवुड की एक महिला निर्देशक ने नाम ना बताने की शर्त पर डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा कि इंडस्ट्री में एक समस्या लाइफस्टाइल है. हर व्यक्ति स्वयं को बेहद बड़ा दिखाने और बताने की कोशिश में लगा रहता है. चाहे आपका काम चले या ना चले बांद्रा जैसे पॉश इलाके में घर, बड़ी गाड़ी रखना अब जरूरी हो गया है और फिर जब आप बड़े खर्चे नहीं उठा पाते तो डिप्रेशन आपको घेरने लगता है. वहीं कुछ लोग लगातार काम करते हैं, परिवारों से दूर रहते हैं और अकेलेपन में घिर जाते हैं.
डायरेक्टर अशोक यादव भी इस बात पर सहमति जताते हुए कहते हैं, "अगर आप किसी एक्टर, डायरेक्टर, राइटर या किसी को भी फोन करेंगे तो सब पहले यही कहेंगे कि बाद में बात करते हैं. फिर चाहे वह व्यक्ति घर में हो. लेकिन हर कोई यहां खुद को व्यस्त बताना चाहता है ताकि कोई ये ना समझ ले कि वह फ्री बैठा हुआ है. ऐसे में हर दिन व्यक्ति अकेला होता जाता है.”
मनोचिकित्सक इस तरह की सोच को अवसाद की तरफ जाने वाली एक मानसिक अवस्था मानते हैं. इंदौर के मनोचिकित्सक सलाहकार डॉ. विजय निरंजन बताते हैं, "मनोविज्ञान में कार्ल रोजर का एक सिद्धांत है जो एक्चुअल सेल्फ और आइडियल सेल्फ जैसी दो स्थितियों की बात करता है. एक्चुअल सेल्फ मतलब जो हम होते हैं और आइडियल सेल्फ मतलब जो हम होना चाहते हैं." डॉ. निरंजन कहते हैं कि जब कोई व्यक्ति छोटी जगह से बड़ी जगह जाता है तो आसपास की स्थिति से प्रभावित होते हुए उसमें यह अंतर समय के साथ बड़ा हो जाता है. कुछ ऐसा ही सेलिब्रिटीज के साथ होता है और उन पर प्रेशर बढ़ता जाता है. फिर एक वक्त ऐसा आता है कि दुनियावी चीजों में उसे कोई खुशी नहीं मिलती और व्यक्ति डिप्रेशन में चला जाता है.
अन्य कारण
कुछ लोग यह भी मानते हैं कि नेपोटिज्म, गुटबाजी हर एक प्रोफेशन में हैं और बॉलीवुड भी उससे अछूता नहीं है. फिल्म डौली की डोली फेम राइटर उमाशंकर सिंह कहते हैं कि यह एक स्टार ड्रिवन इंडस्ट्री हैं. जब तक कोई पैसा कमा के दे रहा है तब तक उसकी पूछ है. उन्होंने कहा, "फिल्मों में काम करने वाले सोचते हैं कि वो बहुत बड़ा काम कर रहे हैं. लेकिन इसकी एक सच्चाई यह भी है कि इंडस्ट्री संभावनाओं पर चलती हैं और आप उन संभावनाओं को सच मानते हैं जिसमें आपका काफी वक्त निकल जाता है. इस इंडस्ट्री में सफलता की दर बेहद कम है लेकिन हताशा उससे कहीं अधिक है."
बतौर स्टार स्थापित हो चुके आज के कलाकारों में नाकामयाबियों को सहने की क्षमता कम होती जा रही है. डिप्रेशन और आत्महत्या पर तकरीबन 750 से भी अधिक लेख लिख चुके लेखक दयाशंकर मिश्र कहते हैं, "पहले सबके लिए मैं, मेरा परिवार और मेरा काम आता था लेकिन अब सभी ने कामयाबी और काम को ही अंतिम सत्य मान लिया है.” इसके साथ ही प्रेम-सबंधों का बनना-बिगड़ना, सहनशीलता की कमी, नशे की लत और हमेशा खुश और अच्छा दिखने का दबाव भी अभिनेता और अभिनेत्रियों को परेशान करता रहता है.
क्या है समाधान
फिल्मी दुनिया में ही नहीं बल्कि भारतीय समाज में डिप्रेशन की समस्या जड़ें जमाती जा रही है. मनोचिकित्सक मानते हैं कि सबसे पहले उदासी और अवसाद में अंतर समझने की जरूरत हैं. डॉ. विजय निरंजन विश्व स्वास्थ्य संगठन की गाइडलाइंस की चर्चा करते हुए बताते हैं कि अगर उदासी के लक्षण दो हफ्ते से ज्यादा वक्त तक नजर आते हैं तो वो डिप्रेशन हो सकता है लेकिन इसके लिए जागरुकता फैलाने की सबसे अधिक जरूरत है. उन्होंने कहा लोग अवसाद से निजात पाने के लिए शराब, ड्रग्स जैसे कोपिंग मैकेनिज्म की तरफ जाते हैं जो स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहद घातक है.
डायरेक्टर अशोक यादव कहते हैं, "फिल्म जगत में लोगों तक पहुंचना और उनसे बात करना पहला कदम हो सकता है. इसके साथ ही बेहतर माहौल और लोगों का आज में जीना सीखना काफी हद तक उन्हें अवसाद से दूर रख सकता है.” दयाशंकर मिश्र कहते हैं कि फिल्मी सितारों के लिए भी जरूरी है कि अगर उनका एक रास्ता बंद हो जाए तो वो दूसरे की तरफ जाने में संकोच ना करें. हालांकि दयाशंकर मिश्र यह भी मानते हैं कि बॉलीवुड की खबरें न्यूज चैनलों के लिए टीआरपी बटोरने का आसान रास्ता है इसलिए उनकी चर्चा कुछ अधिक की जाती है.
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