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समाज

दोबारा नहीं लौटने की कसमें खा रहे हैं बंगाल के प्रवासी मजदूर

प्रभाकर मणि तिवारी
४ अप्रैल २०२०

कोरोना की वजह से जारी देशव्यापी लॉकडाउन होने के कारण जहां लाखों प्रवासी मजदूरों की रोजी-रोटी छिन गई है वहीं जान के भी लाले पड़ गए हैं. यही वजह है कि मार्च के दूसरे सप्ताह से ही इनकी घरवापसी का सिलसिला शुरू हो गया था.

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Indien Corona-Pandemie | Migrant Workers
तस्वीर: DW/P. Tewari

पश्चिम बंगाल के विभिन्न इलाकों से कमाने के लिए दूसरे राज्यों में गए हजारों मजदूर भी लौट आए हैं. लेकिन अब भी भारी तादाद में ऐसे लोग केरल समेत दूसरे राज्यों में फंसे हैं. इनमें से कुछ मजदूरों की घरवापसी की राह में पैदा मुसीबतों की दास्तान सुन कर रोंगटे खड़े हो सकते हैं. लेकिन जान हथेली पर लेकर भूख, थकान और जंगली जानवरों के खतरे से जूझते हुए बंगाल के विभिन्न शहरों में लौटने वाले ऐसे मजदूर अब दोबारा दूसरे राज्यों में नहीं लौटने की कसमें खा रहे हैं. उनका कहना है कि अपने घर में परिवार के बाकी लोगों के साथ भूखे रहना और मरना भी मंजूर है. लेकिन परदेस में मुसीबतें नहीं सहेंगे.

पश्चिम बंगाल के उत्तर 24-परगना जिले के रहने वाले समीरन गुछाइत रोजी-रोटी के लिए केरल के कोच्चि में राजमिस्त्री का काम करते थे. यहां अपने गांव में उनको जहां रोज तीन से चार सौ रुपए मिलते थे वहीं केरल में इससे दोगुनी रकम मिलती थी. यही वजह है कि तीन साल पहले गांव के कुछ युवकों के साथ वह भी केरल चले गए थे. लेकिन अबकी कोरोना के चलते मचे आतंक और वापसी की अफरा-तफरी में उन्होंने जो कुछ भोगा है उसका शब्दों में बयान करना मुश्किल है. समीरन बताते हैं, "मार्च के पहले सप्ताह तक सब कुछ ठीक था. लेकिन उसके बाद अचानक आतंक का माहौल बन गया.

लोगों को केरल की बाढ़ और दो साल पहले फैले नीपा वायरस की यादें ताजा हो गईं. इसके बाद रातोंरात भगदड़ मच गई." कुछ दिनों तक ऊहापोह में रहने के बाद उन्होंने भी दूसरे लोगों के साथ कोलकाता के लिए रवाना होने का फैसला किया. लेकिन खड़गपुर से पहले ही उनकी ट्रेन को रोक दिया गया और ऐलान कर दिया गया कि वह आगे नहीं जाएगी. समीरन के साथ उनके गांव के पांच और लोग थे. बसें भी बंद थीं. आखिर उन सबने खड़गपुर से अपने गांव तक की लगभग दो सौ किमी की दूरी पैदल ही तय करने का फैसला किया. समीरन का कहना है कि वह गांव में अपनी थोड़ी-बहुत खेती से ही गुजारा कर लेगा, लेकिन दोबारा परदेस नहीं जाएगा.

पश्चिम बंगाल सरकार ने विभिन्न इलाकों में ऐसे मजदूरों के रहने-खाने और स्वास्थ्य की जांच का इंतजाम किया है. हाल में अंतरराज्यीय सीमाएं सील हो जाने की वजह से सैकड़ों मजदूर रास्ते में ही फंस गए हैं. वहां राज्य सरकारें उनके खाने-पीने का इंतजाम कर रही हैं. कोलकाता समेत पूरे बंगाल से कमाने-खाने के लिए दूसरे राज्यों में जाने वाले मजदूरों की हालत एक जैसी है. हजारों लोग किसी तरह गिरते-पड़ते अपने घर लौट आए हैं. लेकिन हजारों ऐसे भी हैं जो दिल्ली से लेकर गुजरात तक फंसे हुए हैं. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बीते महीने के आखिर में देश के 18 राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र भेज कर उनके राज्यों में फंसे बंगाल के मजदूरों के रहने-खाने और जरूरी सहायता मुहैया कराने का अनुरोध किया था.

ममता बनर्जी ने अपने पत्र में लिखा था, "हमें जानकारी मिली है कि बंगाल के कई कामगार आपके राज्य में फंसे हैं. वह फोन पर हमसे सहायता की गुहार लगा रहे हैं. ऐसे लोग आमतौर पर 50-100 के समूह में होते हैं और स्थानीय प्रशासन आसानी से उनको पहचान सकता है. उनके लिए कोई मदद पहुंचाना हमारे लिए संभव नहीं है. इसलिए मैं आपसे अनुरोध करती हूं कि संकट की इस घड़ी में अपने प्रशासन से उन्हें बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने का अनुरोध करें.” ममता कहती हैं, "सरकार ऐसे तमाम लोगों की खबर ले रही है और जल्दी ही हालत सुधरते ही उनको वापस बुलाने का इंतजाम किया जाएगा. फिलहाल जो जहां है उसे वहीं रहना चाहिए.” 

पश्चिम बंगाल सरकार ने गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों को छह महीने तक सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए चावल व गेहूं मुफ्त देने का एलान किया है. उन्होंने ऐसे लोगों को आर्थिक सहायता देने का भी भरोसा दिया है. लेकिन बावजूद इसके दूसरे राज्यों से गिरते-पड़ते घर लौटने वाले मजदूरों को भविष्य की चिंता सताए जा रही है. पुणे से यहां लौटे सुंदरबन के सागर दास सवाल करते हैं, "कोरोना तो जैसे-तैसे बीत जाएगा. अगर हम इसमें बच गए तो खाएंगे क्या? घर में रखे थोड़े-बहुत पैसे तेजी से खत्म हो रहे हैं. हम कोरोना से तो भले बच जाएं, लेकिन भूख हमें मार डालेगी.” लेकिन उनके इस सवाल का फिलहाल दुनिया भर में किसी के पास शायद ही कोई जवाब है. कोरोना वायरस की वजह से होने वाली उथल-पुथल की वजह से लाखों लोगों और खासकर प्रवासी मजदूरों के सामने यही सवाल मुंह बाए खड़ा है.

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