दोबारा चुनाव की ओर दिल्ली
९ दिसम्बर २०१३भले ही अरविंद केजरीवाल को दिल्ली की सत्ता न मिली हो लेकिन शायद यह उनकी आम आदमी पार्टी के लिए अच्छा ही हो. उन्हें संघर्ष जारी रखना होगा, जो सरकार में होते मुश्किल था. निश्चित तौर पर 40 फीसदी सीटों के साथ उनकी बात ज्यादा सुनी जाएगी और अब लोगों को पता लग सकेगा कि क्या केजरीवाल वह सब कर पाएंगे, जिसका उन्होंने वादा किया है.
दिल्ली की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी के ऊपर न सिर्फ मनोवैज्ञानिक बल्कि संख्या बल का भी दबाव होगा. वैसे अभी यह साफ नहीं है कि क्या दिल्ली में बीजेपी सरकार बनाने भी वाली है या नहीं. अब तक देखा जाता रहा था कि बहुमत से मीलों दूर रहने के बावजूद सबसे बड़ी पार्टी सरकार बनाने के लिए तिकड़म करने लगती थी. लेकिन शायद यह केजरीवाल का करिश्मा है कि इस बार सिर्फ चार सीट कम होने के बाद भी बीजेपी सरकार के लिए नहीं बढ़ रही है. केजरीवाल पहले ही विपक्ष में बैठने की बात कह चुके हैं. भारतीय लोकतंत्र के लिए ये कैसा सुखद दिन है कि दो सबसे बड़ी पार्टियां सरकार बनाने से भाग रही हैं. शायद यह पहला मौका होगा, जब कोई पार्टी कहे कि मैं सरकार नहीं बनाऊंगी.
वैसे इसके पीछे के समीकरण समझना आसान है. विधानसभा चुनावों में जनता ने पारदर्शी और ईमानदार समझी जाने वाली आम आदमी पार्टी का साथ दिया, अब सभी पार्टियों को लोकसभा चुनाव में भिड़ना है. इस नाजुक मोड़ पर कोई भी जोड़ तोड़ की राजनीति करने की गलती नहीं करेगा. मान लीजिए, बीजेपी ने सरकार बनाने का दावा किया और बहुमत हासिल करते वक्त कांग्रेस सदन से बाहर चली गई. ऐसी स्थिति में अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी का वह दावा साबित हो जाएगा, जिसमें वे कांग्रेस और बीजेपी को एक ही थैले के चट्टे बट्टे कहते हैं. केजरीवाल बार बार कहते आए हैं कि अंदर से बीजेपी और कांग्रेस की मिलीभगत है. लोकसभा चुनाव के ठीक पहले वह इसे खूब बढ़ा चढ़ा कर पेश कर सकते हैं, जिसका खामियाजा दोनों बड़ी पार्टियों को भुगतना होगा.
वैसे जनता का सबक बहुत सख्त होता है और पार्टियां उसे भी समझ रही होंगी. चुनाव के ठीक बाद वे ऐसी गलती नहीं करना चाहेंगी और तीसरा विकल्प यानी कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की सरकार बनने का तो फिलहाल सवाल ही पैदा नहीं होता. तो क्या दिल्ली दूसरे चुनाव की तरफ बढ़ रही है. आप पार्टी इससे इनकार नहीं करती. मनीष सिसोदिया से जब पूछा गया, तो उनका जवाब था, “इस बात का आकलन करना होगा कि दूसरे चुनाव में कितना खर्च होगा और एक असंतुलित सरकार के पांच साल सत्ता में रहने में कितना मितव्यय होगा.” यानी अगर ज्यादा फर्क न हुआ, तो जनता से दोबारा पूछा जाएगा. अगर ऐसा हुआ, तो...
ब्लॉगः अनवर जे अशरफ
संपादनः ओंकार सिंह जनौटी