देश में रेंगता नवफासीवाद
२५ नवम्बर २०१३आजाद भारत के इतिहास में इतनी आवाजें और शोर इतने बड़े पैमाने पर पहले कभी नहीं रहा. इतनी चीखें, हुंकार, नफरत और इतनी हिंसा- लगता है इतिहास का चक्का जोर से पीछे घूमकर हमें यूरोप के उस दौर में पटक गया है जब हिटलर और मुसोलिनी जैसी ताकतों का बोलबाला था. क्या हम अतिशयताओं के समय में रह रहे है या ये कहना अतिरंजना है. 2014 का आम चुनाव इतने तीखे ध्रुवीकरण, गड्डमड्ड मुद्दों, आपाधापी और इतने सारे कोलाहल के साथ हो रहा है कि लगता है कि हम किसी विशाल सर्रियलिस्टिक पेंटिंग को देख रहे हैं. ये अतियथार्थवाद इतना व्यापक और विलक्षण है कि समाज राजनीति और संस्कृति सब मानो इसकी चपेट में है.
और इसी अजूबेपन में रेंगता हुआ आ गया है नवफासीवाद. जैसे जर्मनी और इटली में नाजीवाद और फासीवाद की विषबेल पनपी थी और हर खासोआम पर उनका असर पड़ गया था वैसा ही कुछ अब नए हालात में हम एशिया की एक बड़ी ताकत और दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में देख रहे हैं. अपने मास मीडिया में जो मुद्दे चल रहे हैं और जो बहसें दिखायी जा रही हैं उन्हें देखकर आप सहसा ही डर जाते हैं. साम्प्रदायिक राजनीति के नए नए प्रयोग हो रहे हैं, जो लोग दंगों में आरोपी हैं वे सम्मानित किए जा रहे हैं, अभिजात कॉरपोरेट मीडिया गैरजैनुइन मसलों पर या तो आरती उतारने तक झुका हुआ है या आग उगलता हुआ दिखता है.
थोड़ा “बेफिक्र निगाह” से या “क्या फर्क पड़ता है” के अंदाज में देखिए तो लगता है कहां कोई गड़बड़ है, सब कुछ तो ठीक है, बिजली पानी ठीक है, सड़क पर गाड़ियां दौड़ रही हैं, जिंदगी अपनी चमक में जारी है, फिल्में आ रही हैं जा रही हैं और तो और अभी अभी रिकॉर्ड टूटे हैं. एक ही साल में दो फिल्में करीब ढाई सौ करोड़ रुपए का कारोबार कर चुकी हैं. कृष अपनी तीसरी पारी में चेन्नई एक्सप्रेस के ऊपर उड़ता चला गया है. एक महान क्रिकेटर की भीषण भावुक और टीआरपी और रत्नों से पटी विदाई हो चुकी है. भारत रत्न दिया जा चुका है. बाग में जो फूल सर्दियों में खिलने थे वे आ ही गए हैं. चारों तरफ तरक्की के नजारे हैं, बेतहाशा निर्माण जारी है और निवेश हो ही रहा है.
लेकिन इस रौनक के आसपास खुराफातें, भीषणताएं, बेचैनियां, उदासियां और यातनाएं भी चक्कर काट रही हैं. अन्याय और दमन गरज गरज कर आते हैं. देखते ही देखते हजारों लोग बेघर बना दिए जाते हैं, देखते ही देखते वे दुश्मन करार दे दिए जाते हैं, देखते ही देखते खेत और किसान गायब हो जाते हैं, देखते ही देखते उन्माद स्वाभाविकता का चोला पहनकर हमारी जिंदगियों पर फैल जाता है. ये उन्माद दबे कुचलों को, वंचितों को, स्त्रियों को और घेरने का है. इस घेरे को तोड़ने की जुर्रत नहीं कोई कर पाता. जो करता है हो सकता है मारा जाए. एक ही तरह की आवाजें हैं. उन आवाजों में आपकी आवाज को जबरन खींचकर मिला दिया जाता है. या तो सब यशगान करेंगे, या एक साथ भर्त्सना. महिमाएं इतनी कभी नहीं गाई गईं. सत्ता और वर्चस्व की लड़ाइयां मांग करती हैं कि सब उनके सुर में सुर मिलाएं. जेनुइन लड़ाइयां मिटाई जा रही हैं. अगर मैं सत्ता राजनीति और ताकत के विमर्श से पैदा हां के विरोध में हूं तो मैं नहीं हूं. मेरा होना संदेहास्पद बनाया जा सकता है. गरज ये कि आप वैसा ही बोलिए वैसे ही सिर हिलाइए जैसा कि कहा गया है जैसा कि तय किया गया है.
लोग सड़कों पर भयानक चीखपुकार और धक्कामुक्की के साथ निकलते हैं. हर आदमी दूसरे को कुचलकर आगे जाना चाहता है. बेशुमार कारें हैं और वे सड़कों पर लगातार हॉर्न बजाती हुई निकलती हैं. जैसे सब एक दूसरे को प्रतीकात्मक तौर पर धमका रहे हैं, इतना खामाखाह का क्रोध समाज में आ रहा है. एक ओर विध्वंस के सौदागर हैं तो दूसरी ओर प्रतिरोध नहीं, संशय और क्षोभ रह गया है. इनसे निकलने का रास्ता नहीं सूझता. सामूहिकता में रहना डराता है, इतना निजीकरण हमारी जिंदगियों का इस दौर ने कर दिया है.
शांति, करुणा, धैर्य और प्रेम जैसी भावनाएं शहर हो या देहात धूल और धुएं में गुम हो गई हैं. अधीरता और हिंसा इस युग के लक्षण बन गए हैं. अजीब किस्म की झपटमारी है. समाज की बेहतरी के लिए जो उपकरण और मशीनरी चाहिए थी उनमें मानो जंक लग गया है. संभावनाओं और उम्मीदों का एनजीओकरण हो रहा है. आंसू कारोबार हैं और उल्लास षडयंत्र. किसी को बुरा बनते हुए या बुरा करते हुए देखकर लगता है कि क्या हमारी ही किसी गलती की वजह से ऐसा हुआ है. क्या हम ही ज़िम्मेदार हैं.
ये बातें निराशाजनक लग सकती हैं, कहा जा सकता है कि तस्वीर का यही रुख क्यों देखें और ये तस्वीर है ही कहां, इतना भी तो कुछ बुरा नहीं हुआ. मंगलयान जा चुका है, विक्रमादित्य शामिल होने आ रहा है, क्रिकेट की धूम है, कई सितारे हैं, इतना सारा मनोरंजन इतना सारा सामान इतनी सारी दुकानें इतनी सारी विलासिता. हां ठीक है. लेकिन दिल पर हाथ रखकर कहिए क्या आप कोई खटका महसूस नहीं करते रह रह कर कोई बात जो फांस बनकर अटक जाती है और आपको पता नही चलता कि ये आखिर क्या गड़बड़ है.
बस यही है फासीवाद का नया रूप. अपने संताप की वजहों की तलाश आपको करने नहीं देता. धीरे धीरे सारे सवाल मिट जाते हैं. रह जाती हैं बस आशंका, युद्ध, हिंसा और मृत्यु की छायाएं. वे मनुष्यों पर मंडराती रहती हैं.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी
संपादनः एन रंजन