दिवाली के प्रकाश में
२ नवम्बर २०१३ये महज संयोग तो नहीं कि पूरे साल कुछ हाहाकार कुछ त्राहि में कट रहा बाजार अचानक दिवाली आते आते नई स्फूर्ति और ताजगी से भर जाता है. उसमें ऐसी दमक आ जाती है मानो उसे कोई शिकायत कभी रही ही न हो. दिवाली असल में अब त्योहार से आगे एक उपभोक्तावादी संस्कृति के मुजाहिरे का प्रतीक भी बन गई है. यहां प्रदर्शन तो है ही उपभोग भी बड़े पैमाने पर है. इस लिहाज से दिवाली बाजार के लिए सबसे अनुकूल और सबसे प्रासंगिक ‘इवेंट' बन जाता है. मुनाफे की अपार संभावना का सालाना प्रोजेक्ट. ऐसी उमंगें और कहां.
आज आप बाजार और शहरी समाज की धूम देखें और उस मध्यवर्ग को देखें जिससे एक व्यापक कन्ज्यूमर वर्ग इस देश में बनता है, इन सबने दिवाली को जो स्वरूप दे दिया है वो विशुद्ध रूप से त्योहार और उत्सव का तो नहीं रहा है. प्रदर्शनप्रियता भी इसमें आ गई है. दिवाली रसूख का प्रतीक बन गई है. जिसमें ज्यादा खर्च करने की सामर्थ्य है वो उतना ज्यादा प्रदर्शन करेगा. नाना किस्म की रोशनियां करेगा, पूरे घर मकान और इर्दगिर्द को महंगी रोशनियों से नहा देगा, खूब पटाखे फोड़ेगा, खूब सोना खरीदेगा, खूब कपड़े और खूब मेवे. इस तरह दिवाली से मध्यवर्गीय पिपासा फैलती जाती है. जो नहीं कर पाते वे क्षुब्ध होते हैं कुंठित होते हैं खीझते हैं और मनमसोसकर रह जाते हैं, अगले साल अपनी परफॉर्मेंस को बेहतर करने की मन ही मन शपथ खाते. बाजार ऐसा बना देता है. वो आपको सक्रिय खरीदार फुर्तीला उपभोक्ता बनाता है. आप ऐसे नहीं है तो आपको इस दिशा में प्रयत्न के लिए उकसाता है. वो आपके भीतर आकांक्षा और लालसा का एक ऐसा बीज गिराएगा जो सही वक्त आने पर फूटेगा. फिर गिरेगा फिर फूटेगा.
दिवाली में बाजार की यही रणनीति होती है. बाजार की भाषा में दिवाली त्योहार नहीं एक ‘सीजन' है. इस सीजन में सोने से लेकर कपड़ा, पटाखा तक सब कुछ है. आकर्षक डिस्काउंट और अदृश्य चोटें हैं. मध्यवर्ग इन्हें कभी उपकार तो कभी उपहार मानता है. दिवाली जैसे गिफ्टपैक में रैप कर दी गई हो. कहां गया हमारा त्योहार जिसमें मिट्टी के दियों और मोमबत्तियों का कांपता सिहरता उजाला था, जिसे हम दोनों हाथों से तेज़ झोंको से बचाने की कोशिश करते थे. कहां हैं वे फूल की मालाएं, वे घरो की देहरियों पर सजने वाली ऐंपण, वे अल्पनाएं, रंगोली और वे कोहबर.. वे मासूमियतें, परंपराएं और घर की कलात्मकताएं. आखिर बाजार ने क्या इनको हड़प लिया. या हमें ही फुर्सत नहीं रही, दिवाली में उन रंगों और रोशनियों को निभाने की जो हमारे घर देहात पुरखों पूर्वजों की रिवायत थी, जिसमें शांति और उल्लास और सादगी थी और दूर तक फैला हुआ उत्सव था. हृदय के सुदूर कोनों को एक अवर्णनीय मिठास और आह्लाद से भरता हुआ. वो त्योहार कहां है.
क्या हम ऐसी दिवाली मनाने की अपेक्षा रखते हैं. दिवाली में पटाखों का शोर, खरीदारी की होड़ और खर्च की इच्छा से इतर त्योहार की भावना कहती है कि आप जितना जरूरत है उतना खरीदें, खर्च करें, उपयोग करें, बेशक करें लेकिन यहां तो जैसे रेस लगी है. मध्यवर्ग अपने आकार में ही नहीं अपनी मांग और लालसा में भी विकराल बनता जा रहा है.
इस साल देश की सबसे बड़ी प्राकृतिक त्रासदी का निशाना बना उत्तराखंड. हजारों मारे गए, लाखों बेघर हुए बर्बाद हुए. यहां देखता हूं कि सौ किलोमीटर के फासले पर राजधानी देहरादून में जैसे उस त्रासदी के कोई निशान ही नहीं नजर आते हों. क्या इतना अलगथलग और इतना आइसोलेटड है हमारा समाज. हम ये नहीं कहते कि दुख और संवेदना का अर्थ ये है कि बाजार सूने रह जाएं, लोग उल्लास करना भूल जाएं, घर अंधेरे में डूब जाएं, नहीं. ऐसा कौन चाहेगा...हम तो बस इस ओर इशारा कर रहे है कि वो कौन सा वक्त होता है जब किसी और का दुख हमारा दुख होता है. हमारे दोस्त हमारे परिचित हमारे संबंधी से बाहर वे रिश्ते कौन से होते हैं जिनकी तकलीफें हमें अपनी जान पड़ती हैं और जब ऐसा होता है तो हम उस भावना से कैसे ‘डील' करते हैं. कैसे निपटते हैं उस भावुकता से. क्या वो व्यर्थ चली जाती है या हमें “इमोशनली इंटेलीजेंट” बनाती है. मध्यवर्गीय आलस्य और ‘क्या फर्क पड़ता है' की निश्चिंतता ने लोगों को दया और सहानुभूति की भावना से दूर ही किया है. वो एक कदम ठिठककर आगे बढ़ जाने वाली निश्चिंतता है.
हम कुछ देर ठहर जाएं कि इससे पहले बाजार का एक धक्का आ जाता है. दिवाली आ जाती है. बुद्ध का कहा हुआ शायद इन्हीं मुश्किल वक्तों के लिए होगा कि अपने दीप आप बनो. ‘अप्प दीपो भव.' हम अपने लिए और सबके लिए, आत्मा को प्रकाशित करने वाली ऐसी ही दिवाली की कामना करेंगे.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी, देहरादून
संपादनः एन रंजन