दिल्ली पर उमड़ती बंगाल की ‘ममता’
३ अप्रैल २०१९ममता बनर्जी अगर राजनीति में न होतीं तो उनका जीवनवृत्त देखकर अंदाजा लगाना कठिन नहीं कि वो शायद चित्रकार और कवि होतीं. राजनीति से इतर उनके यही दो लगाव ऐसे हैं जिन्हें वो आज भी राजनीति की भीषण सरगर्मी में भी पूरा करते हुए यदाकदा दिख जाती हैं. क्रिकेट में उनकी दिलचस्पी तो जगजाहिर है.
महज दो दशक पुरानी पार्टी की संस्थापक और प्रमुख रहते हुए, भारत की समकालीन राजनीति के चुनिंदा कद्दावर नेताओं में अपनी जगह बना लेने वाली ममता बनर्जी ने कड़ी मशक्कत की है. महिला राजनीतिज्ञ के रूप में तो इस समय वो न सिर्फ सबसे आगे बल्कि सबसे अलग भी नजर आ रही हैं. सिर्फ इसलिए नहीं कि बहुत तेजतर्रार और बेलौस हैं या सिर्फ इसलिए भी नहीं कि केंद्र में अलग अलग पदों पर मंत्री के रूप में कार्य का अनुभव रखती हैं बल्कि इसलिए भी कि मोदी सरकार को विभिन्न मुद्दों पर हेडऑन ललकारने में उन्होंने कोई कमी नहीं रख छोड़ी है.
उनका सादा रहनसहन भी ध्यान खींचता है जिसमें उनका मुकाबला गिनती के ही नेतागण कर पाएंगें. ऐसा नहीं है कि ममता बनर्जी सत्ता के आकर्षण से अछूती रही हैं या उन्हें सत्ता में बने रहने का मोह नहीं है. लेकिन जो चीज उन्हें खास बनाती है वो ये है कि उन्होंने वामपंथियों से अपनी लंबी और हिंसक लड़ाई के बीच वाम तेवर और वाम विचारधारा को ही अपनी क्षेत्रीय पार्टी की केंद्रीय विषयवस्तु बना दिया. इस लिहाज से ये उनकी कामयाबी है और पश्चिम बंगाल में वाम दलों के लिए कुछ चुनौती कुछ सबक. लेकिन ममता बनर्जी ने जो अपनी सार्वजनिक छवि बनाई है और जिसे वो सख्ती से बनाए रखने के लिए जतन भी करती रहती हैं, वैसा वो अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस में नहीं उतार पाई, न पार्टी के नेताओं में न अधिकांश कार्यकर्ताओं में. कार्यकर्ताओं की कथित अनुशासनहीनता, हिंसा और पार्टी नेताओं पर आर्थिक घोटालों के आरोप ममता बनर्जी के लिए सरदर्द का सबब रहे हैं. खुद ममता पर मौकपरस्ती, तुनकमिजाजी, अधीरता, आलोचना न बर्दाश्त करने और तानाशाह रवैये के आरोप लगते रहे हैं.
"मां माटी मानुष” उनका नारा था जब 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने पश्चिम बंगाल में वाम दुर्ग पर पहली कामयाब सेंध लगाई थी. 2011 के विधानसभा चुनाव में तो उन्होंने वाम दुर्ग ही ढहा दिया. वाम राजनीति की ये न सिर्फ पहली बड़ी हार थी, ये उसके जनाधार के खिसकने की शुरुआत भी थी. क्या ममता बनर्जी अपनी प्रतिगामी और प्रतिक्रियावादी राजनीति की बदौलत सत्ता हासिल करने में सफल हो पाईं? ऐसे सवाल अक्सर उठते रहे हैं, इसका कोई सीधा जवाब भले न मिला हो लेकिन ये मानने में हिचक नहीं होनी चाहिए कि जिन मूल्यों और जिन जनतांत्रिक अधिकारों और आदिवासियों की बेहतरी की लड़ाई वाम राजनीति करती आई थी, और बंगाल की सत्ता में रहते हुए जिस वाम ने अपने 34-35 साल के शासन के दरम्यान कथित रूप से उत्तरोतर अपने वोटबैंक को भुलाने और मूलअधिकारों के संघर्षों की अनदेखी की थी, इसका सीधा लाभ ममता बनर्जी ने अपनी राजनीतिक चतुराई और दूरदर्शिता से उठाया. अपार संगठन और संसाधन शक्ति वाली बीजेपी भी ये नहीं कर पाई. महाश्वेता देवी जैसी दिग्गज लेखिका भी ममता बनर्जी से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाईं थीं.
इन पंक्तियों के लेखक के साथ डॉयचे वेले के लिए 2009 की एक बातचीत में महाश्वेता देवी ने ममता को समर्थन देने की वजहें गिनाते हुए कहा था कि एक साधारण सी धोती और चप्पल पहने एक महिला के कंधे पर कोई दुखियारा या दुखियारिन अपना सिर रख सकती है, ममता से उन्हें ढाढस मिलता है तो वे क्यों उसके पास न जाएं. वाम गलियारों से महाश्वेता देवी के बदले स्टैंड पर आलोचनाओं के खूब स्वर उठे लेकिन वो टस से मस नहीं हुईं. उन्होंने कह दिया कि ममता ही अब जीतेंगी. महाश्वेता देवी के निधन पर ममता बनर्जी का विकल हो जाना स्वाभाविक था. लेकिन ये भी एक सवाल है कि दस साल बाद अगर महाश्वेता आज जीवित होतीं तो वो ममता की शख्सियत को कैसे आंकतीं.
पांच जनवरी 1955 को कोलकाता में जन्मीं ममता बनर्जी का राजनीतिक सफर 1970 में कांग्रेस के साथ शुरू हुआ था. बंगाल में वह राज्य महिला कांग्रेस की महासचिव रहीं. 1984 में उन्होंने सीपीएम के वरिष्ठ नेता रहे सोमनाथ चटर्जी को जादवपुर लोकसभा सीट से हराकर तहलका मचा दिया था. तब वह देश की सबसे युवा सांसद बनीं. 1991 में नरसिम्हा राव सरकार में ममता को केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह मिली. उस सरकार में मानव संसाधन, युवा, महिला और बाल विकास, और खेल मंत्री बनीं. यहीं से उनकी तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहाराव और कांग्रेस से खटपट होने लगी. आगे चलकर उन्होंने आरोप लगाया कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस सीपीएम के हाथों की कठपुतली बन कर रह गई है. 1997 में वो कांग्रेस से अलग हो गई. अगले साल यानी 1998 की जनवरी में उन्होंने अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस के नाम से अपनी पार्टी बना दी. उसी साल हुए लोकसभा चुनाव में आठ सीटें हथिया लीं.
1999 में उनकी पार्टी बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार का हिस्सा बनी. उन्हें रेल मंत्री बनाया गया. इस पद पर आने वाली वो देश की पहली महिला मंत्री थीं. एनडीए के साथ भी ममता ज्यादा दिन नहीं टिक पाईं, 2001 के तहलका में रक्षा सौदे के खुलासे के बाद उन्होंने एनडीए से नाता तोड़ लिया लेकिन 2004 की शुरुआत में सरकार में फिर शामिल हो गईं. उसी साल मई में लोकसभा चुनाव हुए. पार्टी की भारी फजीहत हुई और सिर्फ ममता ही अपना खाता खोल पाई.
इस बीच पश्चिम बंगाल की राजनीति में उतार चढ़ाव के बीच ममता औद्योगिकीकरण और विशेष आर्थिक जोन के मुद्दों पर तत्कालीन राज्य सरकार पर हमलावर बनी रहीं. उन्होंने खुद को खांटी देसी नेता के तौर पर स्थापित किया और इसका फायदा उन्हें 2009 के लोकसभा चुनावों में हुआ जिसमें उनके पास 26 सीटें आ गईं और इस बार वो एक बार फिर कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए का हिस्सा बनीं. और एक बार फिर रेल मंत्री. ममता ने केंद्रीय मंत्री के रूप में अपनी उपस्थिति का लाभ उठाया और 2011 में पश्चिम बंगाल चुनाव में 294 में से 184 सीटें जीतकर वाम दलों का सूपड़ा साफ कर दिया. ममता यूपीए के साथ भी ज्यादा दिन नहीं रह पाईं. बंगाल की सत्ता हाथ में आते ही, 2012 में उन्होंने यूपीए से अपना समर्थन वापस ले लिया. पश्चिम बंगाल का नाम उनके ही कार्यकाल में बदला गया.
2012 में टाइम पत्रिका ने उन्हें दुनिया के 100 सबसे प्रभावशाली लोगों में चुना. पिछले साल "दीदीः द अनटोल्ड ममता बनर्जी” नाम से उनकी जीवनी प्रकाशित हुई है. बंगाल की राजनीति पर अपनी पकड़ को मजबूत बनाए रखने के लिए ममता की जिद और जुनून को इतने से ही समझा जा सकता है कि जब कोलकाता के पुलिस कमिश्नर के खिलाफ सीबीआई अधिकारी छापेमारी के लिए पहुंचे तो ममता ने आव देखा न ताव, कमिश्नर के आवास के बाहर ही धरने पर बैठ गईं और सरकार वहीं से चलाई. 2009 और 2011 की सफलता के बाद ममता ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. 2016 का विधानसभा चुनाव भी उनकी झोली में गया.
अब 2021 के विधानसभा चुनावों के लिए वो अपना किला मजबूत कर रही हैं और इसके लिए उनकी निगाहें 2019 के मई पर हैं. ये उनके राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा इम्तहान है. वे जानती हैं कि उनके बाद या उनके नीचे पार्टी में ऐसी कोई लीडरशिप नहीं जो बंगाल और केंद्र की राजनीति को प्रभावित करती रह सके. वामदलों और संघ-बीजेपी की कैडर बेस्ड पॉलिटिक्स के आगे ममता की सबसे बड़ी ताकत ही शायद उनकी सबसे बड़ी कमजोरी भी है. लोकसभा में जितनी ज्यादा सीटें जीत पाएंगी, उतना ही राष्ट्रीय राजनीति में उनकी कद्र बनी रहेगी और दबदबा भी- ममता ये बात जानती हैं, देश के अन्य क्षेत्रीय दलों के नेताओँ से उनकी अच्छी मित्रता है, दिल्ली के अरविंद केजरीवाल से लेकर तेलंगाना के टीआरएस या बिहार के तेजस्वी से लेकर यूपी के अखिलेश तक- दीदी के रूप में ममता लोकप्रिय हुई हैं. विपक्षी एकजुटता के लिए वो एक निर्णायक धुरी बनी हैं, इससे ज्यादा वो गठबंधन सरकार के संभावित निर्माण की प्रमुख सूत्र भी हैं. फिलहाल, ज्यादा से ज्यादा सीटों पर जीत और विपक्षी दलों में अपनी धाक की हिफाजत ही उनका सबसे बड़ा चैलेंज होगा.
ममता बनर्जी ने नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार को बहुत मौकों पर आड़े हाथों लिया, वे विपक्षी एकजुटता के तहत वाम दलों को छोड़ बाकी अन्य दलों के साथ नजर आईं. गोरक्षा के नाम पर अल्पसंख्यकों पर हमले, अभिव्यक्ति की आजादी और पुलवामा वारदात पर मोदी सरकार से सवाल पूछने का उन्होंने साहस किया, उन्होने प्रधानमंत्री मोदी पर सेना को राजनीति में घसीटने का आरोप लगाया. पाकिस्तानी इलाके पर वायुसेना की बमबारी में तबाही और मौतों के सबूत मांगने वालों में ममता भी आगे रहीं. उन्हें अंदाजा होगा कि सवाली और प्रतिरोधी तेवरों वाली उनकी मुखरता ही बीजेपी के लक्षित और आक्रामक प्रचार के मुकाबले टिक सकती है.
और एक खास बात और- जो काम बीएसपी की ‘बहनजी' या अपने समय में अन्नाद्रमुक की ‘अम्मा' या कांग्रेस की ‘मैडम' भी नहीं कर पाई वो बंगाल में ‘दीदी' ने कर दिखाया. लोकसभा चुनावों के लिए ममता ने मार्च के दूसरे सप्ताह में सभी 42 सीटों पर अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए. इनमें से 41 प्रतिशत सीटों पर महिलाएं चुनाव लड़ेंगी. हालांकि इनमें पूर्व अभिनेत्रियों की संख्या ज्यादा है लेकिन ममता ने एक जर्बदस्त दांव तो चल ही दिया है जिससे सभी दल बुरी तरह चौंके हैं. इस कदम ने ओडीशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को भी एक तरह से पीछे छोड़ दिया जिन्होंने अपनी पार्टी में 33 फीसदी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित करने की घोषणा मार्च के पहले हफ्ते में ही की थी.