बिना सोचे समझे यूएपीए लगाने के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट
१५ जून २०२१नताशा नारवाल, देवांगना कलिता और आसिफ इकबाल तन्हा तीनों छात्र एक्टिविस्ट हैं और अलग अलग मंचों के माध्यम से नागरिकता कानून के खिलाफ देश में चल रहे आंदोलन से जुड़े थे. दिल्ली पुलिस ने फरवरी 2020 में दिल्ली में हुए दंगों में अपनी जांच के दौरान इन तीनों पर दंगों के पीछे की साजिश में शामिल होने का आरोप लगाया था और उन्हें गिरफ्तार कर लिया था. तीनों के खिलाफ कई एफआईआर दर्ज की गई थीं और आईपीसी की कई धाराओं के अलावा यूएपीए के तहत भी आरोप लगाए थे. यूएपीए का इस्तेमाल आतंकवादियों के खिलाफ किया जाता है.
तीनों की जमानत की अलग अलग अर्जियों को स्वीकार करते हुए जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल और अनूप जयराम भंभाणी की पीठ ने कहा कि तीनों के खिलाफ प्रथम दृष्टि में यूएपीए लगाने का कोई आधार नहीं बनता है. लेकिन पीठ ने सिर्फ इतना ही नहीं कहा, बल्कि पूरे मामले के आधार बना कर विरोध करने के अधिकार, असहमति जताने के अधिकार और लोकतंत्र में पुलिस और शासन की भूमिका से जुड़ी कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं. अदालत ने कहा कि "विरोध करने का अधिकार गैर कानूनी नहीं है और वो यूएपीए के तहत 'आतंकवादी गतिविधि' की परिभाषा के तहत नहीं आता".
अदालत ने कहा कि दिल्ली पुलिस द्वारा दायर की गई चार्जशीट में ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह साबित कर सके कि कोई 'आतंकवादी गतिविधि' हुई थी, या किसी आतंकवादी गतिविधि को अंजाम देने के लिए पैसे इकठ्ठा किए गए थे या किसी आतंकवादी गतिविधि की योजना बनाई गई थी. बल्कि अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष द्वारा लगाए गए आरोप तथ्यात्मक आरोप ना हो कर अभियोजन पक्ष द्वारा निकाले गए निष्कर्ष हैं. पीठ ने यह भी कहा कि आतंकवाद तो छोड़िए, चार्जशीट हिंसा के आरोप भी साबित नहीं कर पा रही है.
यूएपीए का इस्तेमाल
पीठ ने विशेष रूप से बिना सोचे समझे यूएपीए जैसे सख्त कानून के इस्तेमाल को लेकर प्रश्न चिन्ह लगाए हैं. फैसले में स्पष्ट कहा गया है कि 'आतंकवादी गतिविधि' जैसे शब्दों का इस्तेमाल 'लापरवाही' से नहीं किया जा सकता. अदालत का मानना है कि जब गतिविधियां आईपीसी की धाराओं के तहत आती हों तो ऐसे में यूएपीए लगाने से ऐसा लगता है कि सरकार की एक एजेंसी "भेड़िया आया" चिल्ला रही है. अदालत ने कहा कि यूएपीए जैसे गंभीर प्रावधानों का अगर ऐसी लापरवाही से इस्तेमाल होगा तो ये प्रावधान महत्वहीन हो जाएंगे.
आसिफ तन्हा के मामले में जब सरकारी वकील ने कहा कि अभी 740 गवाहों का निरीक्षण और सुनवाई का शुरू होना बाकी है, तो अदालत ने पूछा कि क्या सरकार यह चाहती है कि अदालत तब तक इन्तजार करे जब तक तेज सुनवाई के अधिकार का पूरी तरह से हनन ना हो जाए? पीठ ने कहा कि उसे इस बात का एहसास है कि महामारी की वजह से सुनवाई की कार्यवाही रुकी हुई है, इसलिए इस बिनाह पर जमानत की याचिका खारिज नहीं की जा सकती. तनहा लगभग साल भर से जेल में हैं और इस दौरान महामारी की दो घातक लहरें भी आईं लेकिन उन्हें जमानत नहीं मिली और ना ही उनके मामले पर सुनवाई शुरू हुई. यही हाल नताशा और देवांगना का भी है.
"आवाज दबाने की बेचैनी"
बल्कि नताशा के पिता और भाई को कोविड हो गया था. जब उनके पिता की हालत गंभीर हो गई तो उन्होंने उनसे मिलने के लिए जमानत की याचिका डाली लेकिन वो मंजूर नहीं हुई. बाद में उनके पिता के देहांत के बाद अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए उन्हें जमानत पर रिहा किया गया. वो कुछ ही दिनों पहले जेल में वापस लौट आई थीं.
विशेष रूप से उनकी जमानत की याचिका स्वीकार करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने सरकार को "असहमति की आवाजों को दबाने के लिए बेताब" बताया और कहा कि इस बेचैनी में "सरकार के जहन में विरोध के संवैधानिक अधिकार और आतंकवादी गतिविधि के बीच की रेखा धुंधली हो गई है." पीठ ने अंत में कहा कि अगर इस "मानसिकता को औरों ने भी अपना लिया तो वो लोकतंत्र के लिए एक दुखद दिन होगा."