ट्रंप: तबाही पर आमादा एक राष्ट्रपति
१५ मई २०१८क्या वजह हो सकती है कि डॉनल्ड ट्रंप ने येरुशलम में अमेरिकी दूतावास के उद्घाटन के लिए उस दिन को चुना जब 1948 में बने एक नए देश इस्राएल से फलस्तीनियों को निकाले जाने के 70 साल पूरे हो रहे हैं. अमेरिका का दूतावास परिसर पूर्वी येरुशलम में जाता है जिसपर फलस्तीनी लोग दो राष्ट्रों वाले समाधान की स्थिति में राजधानी बनाने के लिए दावा करेंगे. अमेरिका का कदम बहुत से फलस्तीनियों के मुंह पर एक कूटनीतिक तमाचा है. यह कदम किसी भी तरह हिंसा को जायज नहीं ठहराता, फिर भी अमेरिका का ये जाना बूझा उकसावा है. इसका मतलब है कि विरोध स्वरूप भड़की हिंसा में लोगों के मरने और घायल होने की जिम्मेदारी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की भी है.
ईरानी डील तबाह की
क्या वजह हो सकती है कि इस व्यक्ति ने सिर्फ एक दस्तख्त से मुश्किल से तय ईरान डील को तबाह कर दिया, अपने यूरोपीय साझीदारों से सलाह मशविरा किए बिना और आगे का रास्ता सोचे बिना? ऐसा करते हुए ट्रंप ने न सिर्फ मध्य पूर्व में तनाव भड़कने का जोखिम मोल लेने की तैयारी दिखाई, बल्कि यूरोप के साथ 70 साल के शांतिपूर्ण ट्रांस-अटलांटिक संबंधों की भी कोई परवाह नहीं की.
क्या वजह हो सकती है कि यह व्यक्ति अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपति की हर उपलब्धि को तार तार करने पर आमादा दिखता है और वह भी इस बर्बादी के बाद की योजना के बिना?
डॉनल्ड ट्रंप इससे पहले कभी एक निर्वाचित राजनेता नहीं रहे. इस पेशे से उनका कोई लेना देना नहीं था, जहां पर लेन-देन करने पड़ते हैं, समझौते भी करने पड़ते हैं और बड़ी सावधानी से नुकसानों के मुकाबले फायदों को तौलना पड़ता है. आदर्श स्थिति में, राजनेता सोचते हैं कि उनके कदमों के अभी और आगे चल कर क्या परिणाम हो सकते हैं.
आप जरा उनके प्रतीकों को देखिए जो उन्होंने अपनी ताकत दिखाने के लिए चुने हैं. उनके बनाए टावरों पर सुनहरे अक्षरों में उनका नाम लिखा है, जो कहता है: मुझे देखो, मैं सर्वोत्तम हूं और मैं जो चाहूं कर सकता हूं. भले ही वे "अमेरिका फर्स्ट" के नारे के साथ व्हाइट हाउस में आए हों, लेकिन असल में तो उनका संदेश "डॉनल्ड ट्रंप फर्स्ट" है.
कोई प्लान बी नहीं
ये असहास कोई नई बात नहीं है. लेकिन हाल की घटनाओं से फिर यह बात साफ हुई है कि इस व्यक्ति के पास कितनी विध्वंसक शक्ति है. ट्रंप के पास कोई प्लान बी नहीं है. जब भी वह कोई कदम उठाते हैं तो नतीजों के बारे में नहीं सोचते, जिनका असर अब से चार या आठ साल बाद महसूस होगा. उन्हें इस बात की जरा भी परवाह नहीं है कि उनके कदमों और जुबानी हमलों से अमेरिका के अलावा कोई अन्य देश भी प्रभावित होता है.
वह अपनी ताकत की अकड़ दिखा रहे हैं, क्योंकि वह ऐसा कर सकते हैं, हमेशा अपनी तरफ लोगों का ज्यादा से ज्यादा ध्यान खींचने के लिए. और तबाही के बीज बोकर ऐसा करना बहुत आसान भी है.
यही वजह है कि उन्होंने येरुशलम में अमेरिकी दूतावास के उद्घाटन के लिए ऐतिहासिक महत्व वाले दिन को चुना. और यही कारण है कि उन्होंने ईरानी डील पर चोट की, यह सोचे बिना कि इसके आगे क्या होगा.
जागो यूरोप
यूरोप और जर्मनी के लिए यह खतरे की घंटी है. दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने के कई दशक बाद अब यूरोप के लिए जिम्मेदारी संभालने का वक्त आ गया है. इसका मतलब है कि वह अपनी विदेशी नीति और सुरक्षा से जुड़े मुद्दों की जिम्मेदारी उठाए. जर्मनी को अंततः गंभीर होना पड़ेगा और फिर से अपनी सेना में निवेश शुरू करना होगा, भले अतीत में बहुत से जर्मन ऐसी सेना से संतुष्ट रहे हों, जो रक्षा के लिए पूरी तरह लैस नहीं थी.
ब्रेक्जिट से परे देखें, तो ब्रिटेन को स्पष्ट करना है कि वह सुरक्षा और रक्षा से जुड़े मुद्दों पर जर्मनी और फ्रांस के साथ कैसे सहयोग करेगा. और यूरोपीय संघ को अंदरूनी संकटों को रोकने का तरीका तलाशना होगा और एक मजबूत संगठन के तौर पर उभरना होगा, जिसके पास स्पष्ट परिभाषा हो कि वह अपने नागरिकों के लिए किस तरह का समाज बनाना चाहता है.
ये बड़ी चुनौतियां हैं, लेकिन एक बात साफ है: एक ऐसे देश पर निर्भर नहीं रहा जा सकता और न ही रहना चाहिए जिसे डॉनल्ड ट्रंप जैसा व्यक्ति चला रहा हो. अफसोस की बात है लेकिन गाजा पट्टी में सामने आ रहे हालात इसका प्रमाण हैं.