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टीबी की चपेट में आता यूरोप

२ नवम्बर २०१२

टीबी या क्षय रोग लगातार पूर्वी यूरोप में फैल रहा है. अब तक इस बीमारी से लड़ने की सभी तरकीबें नाकामयाब ही साबित हुई हैं. समस्या केवल सेहत की ही नहीं, बल्कि गरीबी और नशे की दुनिया से भी जुडी है.

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तस्वीर: picture-alliance

दो साल पहले तक पूर्वी यूरोप में अधिकतर मौतों का कारण नशे की ओवरडोज या फिर खुदकुशी हुआ करती थी. पर अब अधिकतर लोग टीबी के हाथों अपनी जान गंवा रहे हैं. लिथुआनिया में पिछले दस साल से नशेड़ियों के लिए काम कर रही दरिया ओशेरेट का कहना है, "हम जिन लोगों का उपचार कर रहे हैं, उनमें से अधिकतर की मौत का कारण टीबी होता है और ज्यादातर मामलों में हमने पाया है कि यह मल्टी रेसिस्टेंट टीबी होता है."

घातक रूप में लौटा टीबी

हालांकि टीबी भारत में भी एक बड़ी समस्या है, लेकिन दुनिया के कई देशों के लिए टीबी एक ऐसा रोग है जो पिछली सदी में ही खत्म हो गया था. बुरी खबर यह है कि भले ही कई जगहों से इसका सफाया कर दिया गया था, लेकिन अब यह बीमारी एक फिर लौट आई है और इस बार यह जिस रूप में फैल रही है वह पहले से भी ज्यादा घातक है. मल्टी रेसिस्टेंट टीबी यानी ऐसा तपेदिक जिसके आगे कई तरह की दवाएं नाकाम हैं.

Robert Koch-Institut Petrischale Labor Bakterien
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पिछले कुछ सालों में देखा गया है कि टीबी की इस तरह की नस्ल पैदा हो गयी है जिस पर सिर्फ एंटीबायोटिक का ही नहीं, बल्कि किसी भी तरह की दवा का कोई असर नहीं होता. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया भर में कम से कम चार लाख लोग अलग अलग तरह के टीबी के शिकार हैं.

यूरोप में पूर्व सोवियत संघ पर इसका खतरा सबसे ज्यादा है. अकेले यहीं अस्सी हजार लोगों को मल्टी रेसिस्टेंट टीबी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 15 देशों को बड़े खतरे वाले देशों की सूची में रखा है. इसमें रूस, यूक्रेन, बेलारूस, बुल्गेरिया और मोल्दाविया जैसे देश शामिल हैं.

जर्मनी के रॉबर्ट कॉख इंस्टीट्यूट में काम करने वाली बारबरा हाउअर का कहना है कि जर्मनी इन देशों पर नजर रखे हुए है, "हमें देखना होगा की आने वाले समय में इन देशों का जर्मनी पर क्या असर पड़ता है. अभी संख्या कम है, लेकिन हमें मामलों पर नजर रखनी होगी." हाउअर का कहना है कि जर्मनी में औसतन हर साल टीबी के पचास मामले सामने आते हैं.

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लापरवाही के कारण

आम तौर पर टीबी के मरीजों को एंटीबायोटिक दी जातीं हैं. छह महीने तक हर रोज चार से पांच गोलियां लेनी होती हैं. लेकिन कई बार ऐसा होता है कि लोग जब देखते हैं कि उनकी तबियत सुधरने लगी है तो वे दवा लेना बंद कर देते हैं या फिर उसमें ढील बरतने लगते हैं. ऐसा कर के वे बैक्टीरिया की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ा देते हैं और तब यह मल्टी रेसिस्टेंट टीबी की शक्ल ले लेता है.

ऐसे में प्रतिदिन 17 गोलियां तक लेनी पड़ सकती हैं. इस से इंसान बहरा भी हो सकता है. इतना ही नहीं, इलाज का खर्च सौ फीसदी तक बढ़ सकता है. अगर इसका इलाज ठीक से ना हो तो बैक्टीरिया और भी घातक रूप ले लेता है, जिसका कोई इलाज नहीं है.

Infografik Tuberkulose-Fälle in der Welt 2010 Englisch

विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंद्रे दादू का कहना है कि यह जरूरी है कि टीबी के मरीजों पर पूरी नजर रखी जाए, उन पर भी जिनका इलाज हो चुका है. दादू का मानना है कि इलाज के तरीके ढूंढने के लिए और निवेश की जरूरत है. पिछले साल ही संगठन ने यूरूप में टीबी से लड़ने के लिए 40 करोड़ डॉलर आवंटित किए. 2015 तक इस राशि के दो अरब तक पहुंच जाने की उम्मीद है.

नशे का जाल

पूर्वी यूरोप में फैला नशे का व्यापार भी बीमारी के लिए जिम्मेदार है. दरिया ओशेरेट बताती हैं, "रूस में पिछले दस साल में टीबी से मरने वाला हर व्यक्ति एचआईवी संक्रमित था और उसे नशे की लत थी." वह कहती हैं कि ऐसे लोग अपना इलाज करने के लिए अस्पताल जाते ही नहीं हैं, क्योंकि उन्हें यह डर होता है कि ड्रग्स के बारे में पता चला तो उन्हें हिरासत में लिया जा सकता है और अगर अस्पताल में उन्हें भर्ती कर लिया गया तो वे नशा नहीं कर पाएंगे.

उनके अनुसार इन लोगों की तरफ समाज का नजरिया बदलने की भी जरूरत है, "बहुत से लोग बीच में ही इलाज छोड़ कर चले जाते हैं. या कई बार जब वे नशा करते हुए पकड़े जाते हैं तो उन्हें बाहर निकाल दिया जाता है. इस तरह से उनका इलाज रुक जाता है और मल्टी रेसिस्टेंट टीबी के फैलने की संभावनाएं और बढ़ जाती हैं."

ओशेरेट का कहना है कि इस समस्या से तभी निपटा जा सकता है जब नशे की लत छुड़ाना और टीबी का इलाज एक साथ किया जाए. लेकिन इस तरह के प्रयास इन देशों में पहले भी छोटे स्तर पर हो चुके हैं और अब तक नाकामयाब रहे हैं.

रिपोर्टः लीडिया हेलेर/ईशा भाटिया

संपादनः एन रंजन

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