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जींस को रंगने के लिए बैक्टीरिया देगा रंग

९ जनवरी २०१८

डेनिम और नीले रंग का रिश्ता कपड़ों की दुनिया का ऐसा पक्का रिश्ता है जो शेड तो बदलता है पर साथ नहीं. वैसे यह रंग प्रकृति के लिए नुकसानदेह भी है. अब वैज्ञानिकों ने एक बैक्टीरिया बनाया है जो धरती के लिए अच्छा हो सकता है.

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Symbolbild - Die Hochwasserhose
तस्वीर: Colourbox

जींस चाहे टाइट हो ढीली, घुटनों पर फटी हो या फेडेड, उनके स्टाइल और रंगों के साथ चाहे जितने प्रयोग कर लिए जाएं लेकिन नीले रंग के साथ उनका रिश्ता अटूट है. दुनिया भर में ब्लू डेनिम की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए हर साल 45000 टन से ज्यादा नील तैयार किया जाता है. पर्यावरण की चिंता करने वालों के मुताबिक नील से पैदा हुआ कचरा और गंदा पानी दुनिया भर की नदियों में जा कर मिलता है.

वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि वो प्रयोगशाला में ऐसे बैक्टीरिया बना सकते हैं जिनसे डेनिम को नीला रंग दिया जा सकता है. इनके इस्तेमाल का फायदा यह है कि पर्यावरण को नुकसान नहीं होगा. हालांकि कारोबारी लिहाज से इस बैक्टीरिया का इस्तेमाल कितना फायदेमंद है यह बताना अभी मुश्किल है.

USA  | New York Fashion week Spring 2017 Street Style Day 1
तस्वीर: picture-alliance/Runway Manhattan/Z. Chase

नेचर केमिकल बायोलॉजी जर्नल में रिसर्चरों ने लिखा है, "नील की दुनिया में यह एक ऐतिहासिक लम्हा है जिसकी बड़ी जरूरत थी क्योंकि नील से रंगाई की मौजूदा प्रक्रिया लंबे समय के लिए अच्छी नहीं है. रंगों की मांग पहले की तुलना में काफी बढ़ गई है, ऐसे में इसे पारिस्थितिक रूप से बनाए रखना संभव नहीं है."

पहले नील की खेती होती थी. कपड़े की रंगाई में नील का इस्तेमाल 6000 साल पहले से होने के प्रमाण मिलते हैं. चमकदार और पक्के रंग के कारण यह किसानों के लिए बड़े मुनाफे की नगदी फसल थी. 19वीं सदी में इंसान ने इसे सिंथेटिक तरीके से बनाना शुरू किया. उसके पहले तक तो खेतों में उगा नील ही इस्तेमाल होता था. नील के कण बड़ी आसानी से सूती कपड़ों पर चिपक जाते थे और आमतौर पर इस्तेमाल होने वाले डिटर्जेंट से नहीं धुलते थे. थोड़ा बहुत जो रंग जाता था वो डेनिम के लिए एक नया लुक देता था, जो एक तरह की स्टाइल बन गई.

हर साल दुनिया में करीब चार अरब डेनिम के कपड़े तैयार किए जाते हैं. इनमें से ज्यादातर का रंग नीला होता है. रिसर्चरों का दावा है कि लंबे समय से इसमें इस्तेमाल होने वाला नीला रंग आगे के लिेए एक बड़ी समस्या पैदा करेगा. नील को बनाने के लिए कई तरह के जहरीले रसायनों की जरूरत होती है जैसे कि फार्मल्डिहाइड और हाइड्रोजन साइनाइड. इसके साथ ही फैक्ट्रियों में बना नील पानी में नहीं घुलता है. ऐसे में डाई के लायक इसे बनाने के लिए कुछ और रसायनों की भी जरूरत होती है. इनमें से एक है सोडियम डिथियोनाइट जो सल्फेट और सल्फाइट को अपघटित करता है और यह डाई मिलों और गंदे पानी को साफ करने वाले संयंत्रों के उपकरणों और पाइपों में जंग लगाता है.

रिसर्च टीम का कहना है, "बहुत से डाई मिल गंदे पानी को साफ करने का खर्च बचाने के लिए उपयोग हो चुके नील को सीधे नदी के पानी में उड़ेल देते हैं, जिसका पारिस्थितिकी पर नुकसानदेह असर होता है."

नील बनाने का जो नया तरीका ढूंढा गया है वह वास्तव में जापानी पौधे पसिकारिया टिंक्टोरिया की नकल है. इस बार वैज्ञानिकों ने पौधे की जगह बैक्टीरिया बनाई है. रिसर्च में शामिल कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के बायो इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर जॉन डॉयबर का कहना है, "हमने एशेरिशिया कोलाइ तैयार किया है जो एक सामान्य बैक्टीरिया है जिससे रासायनिक फैक्टरी में नील तैयार किया जा सकता है."

Symbolbild Blue Jeans mit Nieten
तस्वीर: Fotolia/ Taigi

नील के पौधे की तरह ही बैक्टीरिया भी इंडोक्सिल नाम का एक यौगिक तैयार करता है जो अघुलनशील है और डाई के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. लेकिन इसमें चीनी के कण मिलाने के बाद यह इंडिकैन नाम के बैक्टीरिया में बदल जाता है. इंडिकैन को जमा कर रखा जा सकता है और इससे एक एंजाइम मिला कर सीधे नील के रूप में कपड़ों को रंगने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. वैज्ञानिक इसे कारोबारी रूप से फायदेमंद बनाने की कोशिश में जुटे हैं.

एक डेनिम की पैंट को रंगने के लिए पांच ग्राम नील की जरूरत होती है और इतना नील बनाने कि लिए कई लीटर बैक्टीरिया की जरूरत होगी जो इसे बेहद महंगा बना देगा.

एनआर/एमजे (एएफपी)