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जानवरों के बसेरों पर विकास का ‘झपट्टा’

शिवप्रसाद जोशी
५ फ़रवरी २०१९

भारत में मनुष्य-पशु संघर्ष के मामलों में चिंताजनक बढ़ोत्तरी देखी गई है. रिहाइशों इलाकों में जानवरों का प्रवेश हो या उनके वास-स्थलों पर इंसानी कब्जा, भारत में मनुष्य-पशु संघर्ष का नया अभूतपूर्व दौर चल रहा है.

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Bildergalerie Asien Überschwemungen
तस्वीर: Reuters/A. Hazarika

भारत अपनी वन्यजीव आबादी में बढ़ोत्तरी के लिहाज से दुनिया में अग्रणी है. बाघ और एशियाई हाथी का तो भारत सबसे बड़ा ठिकाना माना ही जाता है. लेकिन उसी देश में  मनुष्य-पशु संघर्ष वन्यजीव संरक्षण की राह में सबसे बड़ी चुनौती बन गया है.

प्राकृतिक संसाधनों पर इंसानी अतिक्रमण से हाथियों के स्वाभाविक कॉरीडोर छिन गए हैं, बाघों और तेंदुओं की बढ़ती आबादी के लिए रहने की जगह और भोजन की किल्लत हो रही है. यही हाल उन छोटे जानवरों का भी है जो यूं तो अनुसूची एक में दर्ज नहीं हैं लेकिन संघर्ष का एक अलग कोण बनाते हैं. जैसे किसानों की फसल को बरबाद करते जंगली सूअर और नीलगाय और गांव खलिहानों से लेकर शहरों के आवासीय इलाकों में उत्पात मचाते बंदर. 

पिछले कुछ महीनों में महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तराखंड, ओडीशा, कर्नाटक, पंजाब और केरल जैसे कई राज्यों में बाघ और तेंदुओं के हमलों और उन्हें पीट पीट कर मार देने की घटनाएं प्रकाश में आई हैं. जानवरों के हमले भी बढ़े हैं.

राजस्थान स्थित रणथंभौर राष्ट्रीय पार्क में पिछले दिनों बाघ ने दो लोगों को मार डाला. केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय के एक आंकड़े के मुताबिक 2013 से 2017 के बीच मानव-पशु संघर्ष में 1,608 लोगों की जानें गई हैं.

ये आंकड़ा उन 23 राज्यों से मिला है जहां वन्यजीव और मनुष्य संघर्ष का डाटा दर्ज किया गया है. इन आंकड़ों के समांतर ऐसा डाटा नहीं मिला जिसमें जानवरों की मौत का भी उल्लेख हो. दरअसल ये डाटा प्रभावित व्यक्तियों के मुआवजा क्लेम के आधार पर तैयार किया गया.

2014 से 2018 तक लगातार चार साल, देश में बाघ के हमलों में सबसे ज्यादा (45 प्रतिशत) मौतें महाराष्ट्र में दर्ज की गईं. सरकार ने राज्य में मनुष्य पशु संघर्ष पर काबू पाने के लिए देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान के साथ मिलकर 19 करोड़ रुपए की एक योजना को मंजूरी दी है. एक चिंताजनक तस्वीर कर्नाटक से भी है, जहां पिछले पांच साल में राज्य में 220 मौतें हुईं जिनमें सबसे अधिक जंगली हाथियों से हुई हैं. जानकारों का मानना है कि पश्चिमी घाट का वनक्षेत्र, परियोजना आधारित सघन गतिविधियों से छिन्न-भिन्न हुआ है.

वन विशेषज्ञों के मुताबिक हाथी 600 से 700 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र कवर करते हैं, खास मौकों पर 2,800 वर्ग किलोमीटर तक भी सफर कर लेते हैं. लेकिन भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का पांच फीसदी हिस्सा ही संरक्षित वन क्षेत्र है, तो ऐसे में बड़े जानवरों के लिए विचरण के लायक जगह ही नहीं बचती है.

Neandertaler Jagt auf Höhlenbär
तस्वीर: imago/StockTrek Images/J. Faro

भारत में 30 हजार हाथी और 2,200 से ज्यादा बाघ हैं. नई गणना में ये संख्या बहुत अधिक बढ़ने की बात की जा रही है. पूरी दुनिया में बाघों की रेंज वाले 13 देश हैं. इनमें भारत अव्वल है. उसके पास सबसे अधिक संख्या में बाघ हैं - वैश्विक बाघ आबादी का करीब 70 प्रतिशत. लेकिन भारत के पास जंगल क्षेत्र बहुत कम यानी प्रति व्यक्ति वन 0.06 हेक्टेयर है.

जंगली पशु जब अपने कुदरती कॉरीडोर से होकर गुजरते हैं, यानी खाने की तलाश में एक जंगल से दूसरे जंगल का रुख करते हैं तो उनके रास्ते में खेत भी पड़ते हैं, शाकाहारी पशुओं के लिए इससे बेहतर जगह हो नहीं सकती और उनके शिकार की टोह में निकले मांसाहारी पशु भी इसी तरह खेतों और रिहाइशी इलाकों का रुख करते हैं. इन्हीं हालात में वे कभी तस्करों का शिकार बनते हैं या ग्रामीणों के गुस्से का या सड़कों में वाहन के नीचे आकर कुचले जाते हैं.

इस तरह, एक समय जो समूचा जंगल क्षेत्र था और जो पशुओं के रास्ते थे - वे खेतों और रिहाइशों में, रेल पटरियों, सड़कों, पुलों, हाइवे, खदान के कॉरीडोरों, बिजली की लाइनों, जलबिजली और अन्य परियोजनाओं के नये ठिकानों में तब्दील हुए हैं. अभ्यारण्यों के आसपास होटलों, लॉज, रेस्तरां और अन्य एडवेंचर गतिविधियों ने भी प्रदूषण और गतिरोध उत्पन्न किए हैं. 

जानवरों को कब मिलेगा इंसान के प्रयोगों से छुटकारा

जंगल का न सिर्फ इलाका घुट रहा है बल्कि उसकी जैव विविधता, पर्यावरण और पारिस्थितिकी पर भी बुरा असर पड़ रहा है. कुदरती जल स्रोत सूख रहे हैं, आग लगने की घटनाएं बढ़ी हैं, नदियों का जलस्तर घटा है, बरसाती नदी नाले अवैध खनन और अन्य वजहों से गायब हुए हैं और तस्करों का अदृश्य नेटवर्क जानवरों और जंगल पर निर्भर समुदायों के पीछे लगा है.

प्रभावित लोगों के साथ समन्वय की कमी और उनकी अनदेखी से भी मामला गंभीर बना हुआ है. प्रतिक्रियात्मक उपाय तो हैं लेकिन प्रोएक्टिव उपायों की कमी है. अगर सामुदायिक पारस्पारिकता बढ़ाई जाए, उन्हें कार्ययोजना में भागीदार बनाया जाए और उनसे संवाद बनाए रखा जाए तो हो सकता है पशुओं के साथ टकराव के मामलों में कमी आए और लोगों में पशुओं का खौफ कम हो पाए. वे सहजीवन की जरूरतों और शर्तों को ठीक उसी तरह समझें जैसा कि उनके पूर्वज करते आए थे.

स्थानीय लोगों को मुनाफाखोरों, भूमि दलालों, ठेकेदारों, राजनीतिक लोलुपता के दुष्चक्र से भी निकलने की जरूरत है. जनजागरूकता में ये बात निहित है कि वे अपने भीतर आत्मविश्वास और साहस रखें कि कोई उन्हें डरा-धमका या बरगला न सके. आबादी का सक्रिय प्रबंधन, फसल सुरक्षा की आधुनिक और नवोन्मेषी तकनीकें, खेती के पैटर्न में सुधार, समय पर मुआवजा, फसल या जीवन के नुकसान का समुचित बीमा- ये भी कार्ययोजनाओं का हिस्सा हैं.

बंदरों, सुअरों और नील गाय की आबादी पर अंकुश लगाने के उपायों पर भी जोर दिया जाना चाहिए और नये रिजर्व क्षेत्र चिंहित करने चाहिए. लेकिन सबसे जरूरी ये है कि परियोजनाओं की अत्यधिकता पर भी अंकुश लगाया जाए. ये तो हर हाल में सुनिश्चित करना ही होगा कि संरक्षित क्षेत्र के इर्दगिर्द या उसके भीतर मनुष्य गतिविधि न्यूनतम हो.

केंद्र, राज्य और सिविल सोसायटी के बीच समन्वय और सामूहिक जिम्मेदारी की जरूरत है. संवेदनशील इलाकों के चिन्हीकरण के साथ निगरानी का सिस्टम मुस्तैद बनाने के अलावा वन गार्डो के वेतन और रहनसहन की स्थितियों में सुधार की जरूरत है. स्थानीय आबादी को वन-मित्र बनाने की कोशिशें होनी चाहिए न कि उन्हें जंगल के उपभोक्ता बनाकर छोड़ दिया जाए और फिर वे नादानी या असावधानी या विवशता में किसी कथित कानून की अनदेखी कर बैठें तो उन्हें दंडित कर दिया जाए. कौशल विकास की दिशा में जंगल क्षेत्र की निगरानी का दायित्व उन्हें सौंपा जा सकता है. हालांकि ये काम ऐसे हैं जो अभी तक हो जाने चाहिए थे. सच्चाई ये है कि इन कार्यों पर कभी निष्ठा और पारदर्शिता से अमल ही नहीं किया गया. वरना वन-मित्र की अवधारणा इस देश के लिए नई नहीं है.

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