जमीन के लिए लड़ रही हैं श्रीलंका की महिलाएं
५ मार्च २०२०श्रीलंका के गृह युद्ध के अंतिम दिनों में सेना ने उत्तरी श्रीलंका के एक गांव में स्कूल टीचर चंद्रलीला जसिंथन को पड़ोसियों के साथ अपना घर छोड़ कर जाने को मजबूर कर दिया था. एक दशक से भी ज्यादा बीत जाने के बाद, उनकी जमीन पर आज भी सेना का कब्जा है. केप्पापिलावू में जसिंथन और दर्जनों दूसरी औरतें पिछले तीन साल से विरोध प्रदर्शन कर रही हैं और धरने पर बैठी हैं. उनका दावा है कि वहां मौजूद सेना का कैंप उनके पूर्वजों की जमीन पर बना हुआ है.
43-वर्षीया जसिंथन कहती हैं, "मर्द कहते हैं कि उन्हें काम करना है, और उन्हें सेना से डर भी लगता है. पर हम महिलाओं के लिए, ये जमीन हमारी सुरक्षा है, हमारा अधिकार है. अगर हम इसके लिए नहीं लड़ेंगे, तो कौन लड़ेगा?" वे कहती हैं, "हमने युद्ध में सब कुछ दिया. हम क्यों अपनी वो जमीन भी गंवा दें जहां हम पीढ़ियों से रह रहे हैं. ये हमारे घर हैं, हमारी जीविका हैं."
लगभग 30 साल तक चला गृह युद्ध मई 2009 में खत्म हुआ था और इसमें हजारों लोग मारे गए थे. मानवाधिकार समूह कहते हैं कि उत्तर और पूर्व में जिसे भी मजबूरी में अपना घर छोड़ कर भागना पड़ा था उनमें से कइयों की संपत्ति जब्त कर ली गई थी. पूर्व राष्ट्रपति मैथ्रिपाला सिरिसेना ने वादा किया था कि उत्तरी और पूर्वी प्रांतों में जितनी भी निजी संपत्ति है उसे 31 दिसंबर, 2018 तक वापस कर दिया जाएगा. लेकिन भूमि अधिकार समूहों का कहना है कि उस समय सीमा का पालन नहीं हुआ. पीपल्स अलायन्स फॉर राइट टू लैंड के अनुसार केप्पापिलावू में लगभग 350 एकड़ जमीन अभी भी वापस नहीं दी गई है.
सेना के एक प्रवक्ता चंदना विक्रमसिंघे ने बताया कि उत्तर और पूर्व में सेना द्वारा कब्जा किए गए निजी जमीन के टुकड़ों में से करीब 85 प्रतिशत उनके असल मालिकों को दिए जा चुके हैं. उन्होंने यह भी कहा कि बाकी बची जमीन का भी "सामरिक महत्व" है और ये राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बेहद जरूरी है. श्री लंका के युद्धग्रस्त उत्तर और पूर्व में, तमिलों को कई बार उनकी जड़ों से उखाड़ दिया गया, कभी सेना द्वारा तो कभी अलगाववादी एलटीटीई के द्वारा. कब्जा की हुई जमीन पर सेना ने कैंप और उच्च सुरक्षा जोन बना लिए और जो भाग गए थे उनका वापस आना असंभव कर दिया.
ह्यूमन राइट्स वाच ने 2018 में अपनी एक रिपोर्ट में कहा कि जहां जमीन वापस भी दी गई, वहां जमीन की सफाई और आजीविका के लिए मदद पर्याप्त नहीं थी. संस्था ने यह भी कहा कि जमीन के कुछ हिस्सों का इस्तेमाल व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए भी किया जा रहा है, जिनमें कृषि और पर्यटन शामिल हैं. विक्रमसिंघे ने बताया कि सेना के पास जो भी जमीन है उसका इस्तेमाल "पूरी तरह से कल्याणकारी और स्वास्थ्यलाभ के उद्देश्यों" के लिए किया जा रहा है.
87-वर्षीय चेल्लम्मा सिंघरत्नम को अपना घर वापस पाने के लिए भूख हड़ताल करनी पड़ी थी. वे जाफना से 100 किलोमीटर दूर दक्षिणपूर्व में पुतुक्कुदियीरुप्पु में रहती थीं, पर मई 2009 में अपना घर छोड़ कर चली गई थीं. जब तीन साल बाद वो और उनका परिवार विस्थापितों के लिए बने एक कैंप में वापस आए तो उन्हें पता चला कि सेना ने उनके और उनकी बेटी के घर पर कब्जा ले लिया है. कई याचिकाओं के बाद, सिंघरत्नम जिला सचिवालय दफ्तर के बाहर ही भूख हड़ताल पर बैठ गईं. और महिलाएं भी उनके साथ आ गईं और हड़ताल एक महीना चली. अंत में सेना ने उनकी बात मान ली और उनके घर वापस दे दिए, हालांकि वो पूरी तरह से नष्ट हो चुके थे.
युद्ध के दौरान, श्रीलंका के हजारों तमिलों ने पड़ोसी देश भारत में शरण ली. उन्होंने विशेष रूप से दक्षिणी राज्य तमिलनाडु में शरण ली. संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी संस्था (यूएनएचसीआर) 2011 से उनकी वापसी में मदद कर रही है. श्रीलंका में संस्था की प्रतिनिधि मेनिक अमरसिंघे ने बताया कि अभी तक 8,529 शरणार्थियों की लौटने में मदद की गई है. इसके अलावा हजारों शरणार्थी अपने आप भी वापस आ चुके हैं. मानवाधिकार समूहों का कहना है कि वापस आने वाले शरणार्थियों में दो-तिहाई से भी ज्यादा भूमिहीन हैं. करीब 30,000 लोगों को देश के अंदर ही विस्थापित माना जा रहा है और इनमें से कई लोगों ने अपनी जमीन और घर गंवा दिए हैं.
कोलंबो स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर पॉलिसी अल्टरनेटिव्स (सीपीए) का कहना है कि शांति स्थापना के लिए लोगों को जमीन का वापस मिलना बेहद जरूरी है. सीपीए में रिसर्च और एडवोकेसी के हेड भवानी फोंसेका का कहना है, "श्रीलंका के संदर्भ में, जमीन व्यक्ति की पहचान और जुड़ाव का एक अहम पहलू है." श्रीलंका के अधिकारियों ने लौटने वाले शरणार्थियों को जमीन का एक छोटा सा प्लाट देने के वादा किया है, लेकिन उसके लिए इंतजार लंबा हो सकता है.
सीके/एमजे (थॉमसन रायटर्स फाउंडेशन)
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