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कानून और न्याय

अदालतों में देवी-देवताओं की चिंता

२६ फ़रवरी २०२१

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अग्रिम जमानत की एक अर्जी पर हिंदू देवी-देवताओं के मजाक का विरोध करते हुए एक लंबी टिप्पणी की है. अदालत ने कहा है कि पश्चिम के फिल्मकार तो ईशु मसीह और पैगंबर मोहम्मद का मजाक नहीं उड़ाते हैं.

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तस्वीर: IANS/Amazon

मामला अमेजॉन प्राइम पर दिखाई जाने वाली वेब-सीरीज 'तांडव' से जुड़ा हुआ है. इस सीरीज के जरिए धार्मिक भावनाओं को आहत करने के आरोप में अमेजॉन प्राइम के कार्यक्रमों की भारत में प्रमुख अपर्णा पुरोहित के खिलाफ देश में 10 अलग अलग जगहों पर एफआईआर दर्ज है. ऐसा एक मामला अपर्णा और छह और लोगों के खिलाफ ग्रेटर नॉएडा में भी दर्ज है, जिसके सिलसिले में उन्होंने इलाहाबाद हाई कोर्ट में अग्रिम जमानत की अर्जी दी थी.

अदालत ने यह कहते हुए उनकी अर्जी को ठुकरा दिया कि इस देश के बहुसंख्यक नागरिकों के मौलिक अधिकारों के खिलाफ एक फिल्म को स्ट्रीम करने की अनुमति देने में उन्होंने सतर्कता नहीं बरती और गैर जिम्मेदाराना व्यवहार का परिचय दिया. लेकिन टिप्पणी यहीं तक सीमित नहीं रही. जज ने फिल्मों में हिंदू देवी-देवताओं का मजाक उड़ाए जाने का कड़ा विरोध भी किया.

अग्रिम जमानत पर अदालतों के आदेश लंबे नहीं होते हैं, क्योंकि बहस मूल मामले पर नहीं होती है बल्कि सिर्फ अग्रिम जमानत मिलनी चाहिए या नहीं इतने से सीमित सवाल पर होती है. लेकिन यह आदेश 20 पन्नों में है और इसमें 'तांडव' ही नहीं बल्कि "सत्यम शिवम् सुंदरम" और "राम तेरी गंगा मैली" जैसी पुरानी हिंदी फिल्मों को भी एक तरह से कटघरे में खड़ा कर दिया गया है.

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भारत में अब ओटीटी कंपनियों के लिए कड़े नियम लाए गए हैं.तस्वीर: picture-alliance/NurPhoto/J. Porzycki

हिंदी फिल्म उद्योग पर लंबी टिप्पणी

आदेश में जज ने कहा है कि पश्चिमी देशों में फिल्में बनाने वाले तो ईशु मसीह और पैगंबर मोहम्मद का मजाक नहीं उड़ाते, लेकिन हिंदी फिल्मकार धड़ल्ले से बार बार हिंदू देवी-देवताओं का मजाक उड़ाते हैं. जज आगे कहते हैं कि ऐसा दशकों से होता चला आ रहा है और "सत्यम शिवम् सुंदरम", "राम तेरी गंगा मैली" जैसी फिल्मों में भी हिंदू देवी-देवताओं को अपमानजनक रूप में दिखाया गया है. जज का कहना है कि यह हिंदी फिल्म उद्योग की एक आदत बन चुकी है और इसे समय रहते रोकना होगा.

कानून के कई जानकार इस फैसले की आलोचना कर रहे हैं. दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस आर एस सोढ़ी ने इस फैसले को समाज को पीछे की ओर ले जाने वाला बताया है. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "इस तरह की टिप्पणी करके क्या जज याचिकाकर्ता को पहले से ही दोषी ठहरा रहे हैं? अग्रिम जमानत के मामलों में मूल मामले के पहलुओं पर कोई भी टिप्पणी नहीं होनी चाहिए और ऐसी टिप्पणियां करने से न्यायिक व्यवस्था प्रदूषित हो जाती है."

 जस्टिस सोढ़ी ने यह भी कहा कि एक जज को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उसका निजी एजेंडा उसके फैसलों में ना आए. उन्होंने कहा, "मैं एक सिख हूं लेकिन सिर्फ अपनी जाती जिंदगी में. अपने घर के बाहर मैं इस देश का एक नागरिक हूं और मेरा काम है इस देश के कानून और संविधान का पालन करना. उसी तरह अगर आप एक अच्छे हिंदू हैं तो उसका मतलब यह नहीं है कि आप अपनी आस्था को किसी दूसरे के अधिकारों का उल्लंघन करने की अनुमति दे देंगे."

मूल मामले पर टिप्पणी गलत

अग्रिम जमानत की जगह मूल मामले के पहलुओं पर टिप्पणी करने को गलत बताते हुए नालसार विश्वविद्यालय के उप-कुलपति फैजान मुस्तफा ने इस ओर ध्यान दिलाया कि इस मामले में अपर्णा को पहले से हिरासत से अंतरिम सुरक्षा मिली हुई है. लेकिन जज ने कहा है कि अपर्णा जांच एजेंसी के साथ सहयोग नहीं कर रही हैं और वो एक तय तारीख को एजेंसी के सामने पेश नहीं हुईं.

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अग्रिम जमानत पर सुनवाई में मूल मुद्दे पर टिप्पणी करना कहां तक सही है?तस्वीर: Fotolia/apops

फैजान ने डीडब्ल्यू को बताया कि इस तरह के अग्रिम जमानत के मामलों में अदालतें अक्सर एहतियात बरतती हैं. हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि आदेश बहुत लंबा है और इसमें कई टिप्पणियां अनावश्यक हैं. उन्होंने बताया कि मिसाल के तौर पर मुनव्वर फारुकी को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलने के बाद एक हाई कोर्ट का उस मामले पर टिप्पणी करना न्यायिक अनुशासन का उल्लंघन है.

उन्होंने यह भी कहा कि जज का यह कहना कि पश्चिमी फिल्मों में ईशु मसीह पर टिपण्णी नहीं होती, यह तो तथ्यात्मक रूप से ही गलत है. इस फैसले की वजह से जजों का चयन करने वाली कॉलेजियम प्रणाली की भी आलोचना हो रही है. जस्टिस सोढ़ी ने भी इसे कॉलेजियम प्रणाली की असफलता बताया और कहा कि उसी असफलता की वजह से ऐसे जज नियुक्त हो जाते हैं जो ठीक से न्यायिक फैसले नहीं ले सकते.

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