चुनाव में मुंह ताकती आधी आबादी
१२ अप्रैल २०१४नरेंद्र मोदी के चुनाव क्षेत्र वाराणसी में सराय नाम के एक गांव की वीणा देवी कहती हैं, "हर बार वे आते हैं, वादा करते हैं कि सप्लाई का पानी लगा देंगे, शौचालय बना देंगे, फैक्ट्री में नौकरी दे दें. लेकिन जीतने के बाद सब नेता गायब हो जाते हैं."
भारत के 81 करोड़ मतदाताओं में से 49 फीसदी महिलाएं है, यानि लगभग 40 करोड़. पर उन्हें लगता है कि पार्टियां उनकी चिंताएं गंभीरता से नहीं लेती हैं. दूसरी तरफ आजादी के बाद के सात दशक में देखा जाए तो इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी के तौर पर भारत में दो बेहद कद्दावर नेता महिलाएं ही रही हैं.
भारत में महिला राष्ट्रपति और लोकसभा में महिला स्पीकर भी हो चुकी हैं. तीन बड़े राज्यों में महिला मुख्यमंत्री हैं. लेकिन आम औरतों को नहीं लगता कि इन नेताओं ने कभी उनके लिए कुछ काम किया होगा. महिला नेता आम तौर पर महिलाओं के मुद्दे को मुद्दा नहीं बनाती हैं. ममता बनर्जी ने तो पिछले साल यहां तक कहा था कि उनकी सरकार बलात्कार के मामलों को तेजी से निपटाने में सक्षम नहीं है.
बनारस में एक दुकान चलाने वाली सुनीति कुमारी कहती हैं, "ज्यादातर महिला नेता ध्यान रखती हैं कि उनकी पहचान महिला अधिकारों वाली नेता के तौर पर न हो. उन्हें डर लगता है कि ऐसा करने पर वह अपनी ही पार्टी में हाशिए पर धकेल दी जाएंगी." भारत के संसद में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण का बिल बरसों से लटका पड़ा है.
सराय गांव की 42 साल की वीणा देवी हर रोज पौ फटने से पहले उठ जाती हैं. काम पर जाने से पहले जमींदार के पास जाकर पीने का पानी भरना पड़ता है. अगर किसी दिन खेत में काम न मिला, तो पास के ईंट भट्टे में काम करना पड़ता है. उनकी किशोर बेटी को पढ़ाई छोड़ मां के काम में हाथ बंटाना पड़ता है. मां बेटी मिल कर जितना कमाती हैं, बस पेट ही भरा जा सकता है.
भारत में भले ही मध्य वर्ग तेजी से बढ़ा हो लेकिन अगर महिलाओं की स्थिति पर नजर डालें, तो कोई खास फर्क नहीं पड़ा है. निरक्षरता, गरीबी और कमतर सामाजिक स्तर उनके लिए आम बात है.
वाराणसी के ही एक गांव में छाया कुमारी रहती हैं. उनके पति किसी खास पार्टी के लिए वोट डालने का दबाव बना रहे हैं लेकिन छाया मन बना चुकी है कि वह वोट अपनी मर्जी से देगी, "मैंने उसे मना कर दिया है और वह इसमें कुछ नहीं कर सकता है." छाया का कहना है कि वह पति की मर्जी के खिलाफ जा सकती है क्योंकि उसके पास पक्की नौकरी है और वित्तीय आधार पर वह पति पर आश्रित नहीं है.
ज्यादातर भारतीय महिलाओं के लिए सुरक्षा ही सबसे बड़ी चिंता है. दिल्ली बलात्कार कांड के बाद यह बात बार बार उठी है और यहां तक कि भारत सरकार को भी महिला सुरक्षा को ध्यान में रख कर कानून में कुछ बदलाव करने पड़े हैं. राजनीतिक पार्टियां बार बार महिलाओं के सशक्तिकरण की बात करती हैं लेकिन इस दिशा में ज्यादा काम नहीं किया गया है.
पिछले लोकसभा चुनाव में 543 में से सिर्फ 59 महिला चुन कर आईं, यानि लगभग 10 फीसदी. सरकार में महिला प्रतनितिधित्व के लिहाज से भारत का विश्व में 99वां स्थान है. दिल्ली में राजनीतिक विश्लेषक शीबा फारूकी का कहना है, "राजनीति के अंदर महिलाओं को सबसे ज्यादा मुश्किल अपनी ही पार्टी से होती है." ज्यादातर पार्टियां सोच समझ कर किसी महिला को पार्टी में जगह देती हैं. कांग्रेस महिलाओं के लिए "बराबरी" का तो बीजेपी "ग्रामीण महिलाओं की दशा बदलने" का दावा करती हैं. लेकिन मुफ्त साड़ी और कुकर देने के अलावा जमीनी हकीकत कुछ नहीं है. वाराणसी की छाया कुमारी का कहना है, "महिलाएं चाहती हैं कि नेता उनके असली मुद्दों पर काम करें. उन्हें नौकरी चाहिए, अगर उन्हें न भी मिले, तो उनके बच्चों को मिले."
और पास के सराय गांव की वीणा देवी बताती हैं कि किस तरह बरसों ध्यान न देने की वजह से गरीबी पसरी है और उन्हें मेडिकल तक की सुविधा नहीं मिल पाती है. लकड़ियां जमा कर खाना पका रही वीणा देवी को नौ लोगों का पेट भरना है. गुस्से और निराशा के बीच आग में हवा फूंकते हुए वह कहती हैं, "नेता हमें कहते हैं कि बहन वोट दो तो हम तुम्हारी मदद करेंगे. चुनाव के बाद वो बहनों को भूल जाते हैं."
एजेए/एमजी (एपी)