क्रांति के लिए तैयार 3डी प्रिंटर
२६ अप्रैल २०१३1986 में अमेरिकी रिसर्चर चक हल ने स्टीरियोलिथोग्राफी तकनीक खोजी. तकनीक से पिघले प्लास्टिक को पराबैंगनी प्रकाश के जरिए खास जगहों पर बारीकी से सुखाया जाता. धीरे धीरे सूखा प्लास्टिक ऊपर आने लगता और अंत में सूखे प्लास्टिक से हूबहू मूर्ति बनानी संभव हुई. कंपनी ने तकनीक को पेंटेट करा लिया.
इसी दौरान एस स्कॉट क्रुम्प ने एक अलग तकनीक खोजी. 1988 में उन्होंने लेजर के जरिए प्लास्टिक की अत्यंत छोटी बूंदों को सही बिंदुओं पर सटीक ढंग से छोड़ने में सफलता पाई. परत दर परत पड़ती इन बूंदों से अंत में एक हूबहू ढांचा तैयार हुआ. कई विशेषज्ञ मानते हैं कि पहली 3डी प्रिंटिंग मशीन यही थी. क्रुम्प की कंपनी ने भी तकनीक को पेटेंट करा लिया. इस वजह से प्रिंटर बनाने का अधिकार इन्हीं दोनों कंपनियों तक सीमित रह गया. इनके प्रिंटर बहुत कम लेकिन काफी महंगे बिके.
दो दो पेटेंट होने के बाद बाकी रिसर्चरों के लिए कोई उम्मीद नहीं बची थी कि वो 3डी प्रिंटर में हाथ आजमाए. ऐसा करने से पेटेंट कानून का उल्लघंन होता, भारी भरकम जुर्माने के साथ कानून अड़चनें भी खड़ी हो जाती. लिहाजा कई रिसर्चर चुपचाप अपनी लैब में 3डी पर काम करते हुए पेटेंट की मियांद खत्म होने का इतंजार करते रहे.
खत्म हुए पेटेंट
25 साल बाद अब एक एक कर दोनों पेटेंट खत्म हो चुके हैं और युवा रिसर्चर सस्ते, ज्यादा सटीक और किफायती 3डी प्रिंटरों के साथ आ चुके हैं. दुनिया भर के कई शहरों में लगने वाले तकनीकी मेलों में युवा रिसर्चर अपने 3डी प्रिटरों के साथ पहुंच रहे हैं. दुनिया भर के सेल्स डीलर उन्हें ऑर्डर दे रहे हैं.
हॉलैंड के युवा रिसर्चर एरिक दे ब्रुइन भी इस कारोबार में हैं. अल्टीमेकिंग के सह संस्थापक ब्रुइन कहते हैं, "3डी प्रिंटिंग क्रांति लाएगी. अभी जिस तरह से हम चीजें बनाते हैं, दस साल बाद इससे पूरी तरह अलग ढंग से हम उन्हें बनाएंगे. फिलहाल हम बड़ी और बहुत महंगी मशीनों के जरिए खूब मात्रा में चीजें बनाते हैं और उनका स्टॉक बनाते हैं. 3डी प्रिंटर इसे बदल देगा."
3डी प्रिंटिंग के लिए तीन तरीकों का इस्तेमाल किया जा सकता है. पहला, सॉफ्टवेयर के जरिए आम लोग किसी भी चीज का तीन आयामों वाला ढांचा बना सकेंगे. कंप्यूटर की मदद से ढांचे को मनमर्जी का आकार देंगे. और फिर प्रिंट का बटन दबाते ही चीज तैयार. दूसरा तरीका है 3डी कैमरे से ली गई तस्वीर से सीधे प्रिंट लेना. तीसरा विकल्प है कि लोग किसी भी आकार को 3डी स्कैनर के जरिए स्कैन करें, उसकी 3डी फाइल बनाएं और उसे प्रिंट करें. इसके साथ ही प्रिंटर में एक और खूबसूरती है. ब्रुइन कहते हैं, "शेयर करना, ये इसकी और खूबसूरती है. अगर मैं कुछ डिजाइन करुं तो मैं उसे ऑनलाइन शेयर कर सकता हूं. ये विकीपीडिया पर आर्टिकल शेयर करने जैसा है. अगर मैं कुछ शेयर करुं तो पूरी दुनिया उसे इस्तेमाल कर सकती है. थ्रीडी प्रिटिंग भी ऐसी ही है, लेकिन यहां मैं इसमें एक चीज बनाने के लिए सुझाव शेयर कर रहा हूं. इसके बाद दुनिया भर में जो भी वो चीज बनाना चाहेगा बस एक बटन क्लिक करके बना लेगा."
प्रिंट के लिए इस्तेमाल होने वाला प्लास्टिक जैविक रूप से टूटने वाला भी है यानी के पर्यावरण के लिहाज से भी बेहतर है. कुछ कंपनियां तो प्लास्टिक के साथ लकड़ी के रेशे भी मिला रही हैं.
प्रिंटर का उपयोग
जर्मनी, अमेरिका, हॉलैंड, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया में कई रिसर्चर संस्थान पहले से 3डी प्रिंटरों का इस्तेमाल कर रहे हैं. जर्मनी में शोध में जुटी कई यूनिवर्सिटियों इन प्रिंटरों की मदद से नए नए मॉडल, पुर्ज और यहां तक कि इम्प्लांट के लिए हार्ट वॉल्व जैसी चीजें बनाती हैं. ऑटो उद्योग से जुड़ी बड़ी कंपनियां नई कारें बनाने से पहले 3डी प्रिंटर की मदद से देखती हैं कि गाड़ी दिखेगी कैसी. शहर का मास्टर प्लान भी पहले 3डी प्रिंटिंग में देखा जा सकता है.
भविष्य में लोग चाहें तो वे तस्वीरों की जगह घर पर प्रियजनों की मूर्तियां लगा सकेंगे. दुनिया भर के रिसर्चर अपने आविष्कारों को साझा कर सकेंगे. नट-बोल्ट, खिलौने, छोटे मोटे पाइप और विज्ञान के जटिल नमूने पांच से 45 मिनट के भीतर बनाए जा सकेंगे. फिलहाल फैक्ट्रियों में कई बार भारी भूलें भी होती हैं. औद्योगिक पैमाने पर लाखों गलत पुर्जे बनने से नुकसान होता है. 3डी प्रिंटर औद्योगिक उत्पादक की इस परंपरा को भी बदलेगा.
फिलहाल 3डी प्रिंटर की कीमत 70 हजार रुपये से सवा लाख रुपये की बीच है. लेकिन इससे जुड़े सपोर्ट सिस्टम में एक मुश्किल बनी हुई है. 3डी कैमरे और स्कैनर बहुत महंगे हैं. सॉफ्टवेयर इस्तेमाल करना हर किसी के बस की बात नहीं. ऐसे में सिर्फ प्रिंटर लेकर काफी कुछ नहीं किया जा सकता. हालांकि कंपनियों को उम्मीद है कि अगले दो-तीन साल में प्रिंटर से जुड़ने वाली बाकी मशीनें बेहतर भी हो जाएंगी और काफी सस्ती भी, इस तरह 3डी प्रिंटर का बाजार भी फैलेगा और आम लोगों के लिए सस्ते 3डी कैमरे भी बनने लगेंगे.
रिपोर्ट: ओंकार सिंह जनौटी
संपादन: आभा मोंढे