क्यों भारतीय छात्रों में बढ़ रही है आत्महत्या की घटनाएं
१३ जनवरी २०१८भारत में छात्रों की आत्महत्या की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं. केंद्रीय गृह मंत्रालय की एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि हर 55 मिनट में एक छात्र अपनी जान दे देता है. वर्ष 2014 से तीन साल में 26 हजार से ज्यादा छात्र अपनी जिंदगी खत्म कर चुके हैं. अकेले 2016 में लगभग साढ़े नौ हजार छात्रों ने आत्महत्या कर ली.
महाराष्ट्र पहले नंबर पर
छात्रों की आत्महत्या के मामले में देश के सबसे समृद्ध प्रातों में शामिल महाराष्ट्र पहले नंबर पर है. वर्ष 2016 के दौरान वहां 1350 छात्रों ने आत्महत्या कर ली. इसके बाद पश्चिम बंगाल (1147) और तमिलनाडु (981) का स्थान है. खासकर बंगाल में तो बीते एक साल के दौरान ऐसे मामले तेजी से बढ़कर दोगुने हो गए हैं. वर्ष 2015 में इस सूची में बंगाल चौथे स्थान पर था. तमिलनाडु, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ राज्यों में ऐसे मामले तेजी से बढ़े हैं. हाल में मुंबई समेत कई अन्य शहरों में छात्रों की ओर से सोशल नेटवर्किंग साइटों पर आत्महत्या के सजीव वीडियो के प्रसारण के भी कई मामले सामने आए थे. इन आंकड़ों से साफ है कि देश में यह समस्या धीरे-धीरे गंभीर होती जा रही है.
इससे पहले वर्ष 2016 में एक ऑनलाइन काउंसलिंग सेवा योर दोस्त ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि करियर की पसंद जबरन थोपने, फेल होने का डर और मानसिक अवसाद से जुड़ा सामाजिक कलंक अक्सर छात्रों को आत्मघाती बनने के लिए उकसाता है.
वजह
आखिर छात्रों की आत्महत्या के मामले तेजी से बढ़ने की वजह क्या है? विशेषज्ञों का कहना है कि पढ़ाई के लगातार बढ़ते दबाव और प्रतिद्वंद्विता की वजह से ज्यादातार छात्र मानसिक अवसाद से गुजरने लगते हैं. इनमें से कई छात्र आत्महत्या की आसान राह चुन लेते हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि एक चौथाई छात्रों के मामले में परीक्षा में नाकामी प्रमुख वजह थी. इसके अलावा प्रेम में नाकामी, उच्च-शिक्षा के मामले में आर्थिक समस्या, बेहतर रिजल्ट के बावजूद प्लेसमेंट नहीं मिलना और विभिन्न क्षेत्रों में लगातार घटती नौकरियां भी छात्रों की आत्महत्या की प्रमुख वजह के तौर पर सामने आई हैं. घरवालों का दबाव और उनकी उम्मीदों का बोझ भी छात्रों की परेशानी की वजह बन रहा है.
पश्चिम बंगाल के पूर्व शिक्षा मंत्री पार्थ दे कहते हैं, "कम उम्र की छात्र-छात्राओं पर तरह-तरह का दबाव है. करियर के चयन को लेकर उनके सामने कई बार भारी असमंजस पैदा हो जाता है. ऐसे मामले में सही सलाह या मार्गदर्शन नहीं मिलने की वजह से ज्यादातर छात्र मानसिक अवसाद का शिकार हो जाते हैं." वह कहते हैं कि घरवालों के दबाव में अपनी मर्जी का कोर्स नहीं चुन पाने वाले छात्रों के भी मानसिक अवसाद की चपेट में आकर आत्महत्या करने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है.
विशेषज्ञों में इस बात पर आम राय है कि उम्मीदों का भारी दबाव छात्रों के लिए एक गंभीर समस्या बन कर उभरा है. समाजशास्त्री प्रशांत राय कहते हैं, "आंकड़ों से यह साफ नहीं है कि किस स्तर के छात्र ज्यादा मानसिक अवसाद से गुजर रहे हैं. लेकिन जब उनको समझ में आता है कि एक न्यूनतम डिग्री नहीं होने पर वह जीवन में कुछ नहीं कर सकते, तब उन पर मानसिक दबाव बढ़ने लगता है. निजी महात्वाकांक्षा के अलावा छात्रों पर घरवालों का भी भारी दबाव रहता है."
कैसे लगे अंकुश
आखिर साल-दर-साल गहरी होती इस समस्या पर अंकुश कैसे लगाया जा सकता है? इस बात पर विशेषज्ञों में आम राय है. उनका कहना है कि इसके लिए घर से ही पहल करनी होगी. अभिभावकों को अपने बच्चों पर उम्मीदों का भारी बोझ लादने से बचना होगा. मशहूर मनोवैज्ञानिक डॉ. शैलेश मिश्र कहते हैं, "माता-पिता अपने जीवन में जो नहीं कर सके, उसे अपनी संतान के जरिए पूरा करने का सपना देखने लगते हैं. इससे बच्चों पर अनावश्यक दबाव बढ़ता है." विशेषज्ञों का कहना है कि स्कूलों और उच्च-शिक्षण संस्थानों में भी काउसेंलिंग की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए. इससे स्थिति गंभीर होने से पहले ही छात्रों को बचाया जा सकेगा.
डॉ. शैलेश मिश्र कहते हैं कि छात्रों को यह समझाना होगा कि एक नाकामी या सामयिक कामयाबी ही जीवन में सबकुछ नहीं है. इसमें सरकार की खास भूमिका नहीं है. इसके लिए संस्थानों को समाजशास्त्रियों और गैर-सरकारी संगठनों की सहायता लेकर छात्रों और अभिभावकों में जागरुकता पैदा करनी होगी. खड़गपुर स्थित भारतीय तकनीकी संस्थान में आत्महत्या के बढ़ते मामलों के बाद स्थापित काउंसलिंग केंद्र से बेहद सकारात्मक नतीजे सामने आए हैं. इस मॉडल को तमाम संस्थानों में लागू किया जा सकता है.
रिपोर्टः प्रभाकर