क्या भारत में लोकतंत्र पर सहमति खत्म होती जा रही है?
१२ जुलाई २०१९पिछले दिनों भारत की कुछ घटनाएं बाहर के लोगों को हैरान करने वाली हैं तो देश के अंदर के लोगों को परेशान करने वाली. कर्नाटक में सत्ताधारी पार्टियों में बगावत, मुंबई में अपनी पार्टी के विधायकों से मिलने गए कर्नाटक के मंत्री का हिरासत में लिया जाना, गोवा में विपक्षी कांग्रेस के दो तिहाई विधायकों का सत्ताधारी बीजेपी में शामिल होना, तेलगू देशम पार्टी के कई राज्य सभा सदस्यों को बीजेपी में लिया जाना या उससे पहले केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी के अध्यक्ष को बंगाल में सभा करने से रोकने की कोशिश, दूसरी पार्टियों के निर्वाचित प्रतिनिधियों को हड़पने के मामले में क्षेत्रीय पार्टियां भी पीछे नहीं हैं. पिछले दिनों तेलांगना में सत्ताधारी टीआरएस पार्टी ने भारी जीत के बावजूद विपक्षी कांग्रेस के 19 में से 12 विधायकों को मिला लिया था. ऐसा नहीं है कि इस समय विधायकों को गंवाने वाली कांग्रेस दूध की धुली हो. अतीत में वह भी इस तरह के प्रयास करती रही है.
कर्नाटक की घटना इस मायने में विशेष है कि वहां सरकार के गिरने का खतरा है. इस मामले को ऐसे या वैसे देखा जा सकता है. या तो सत्ताधारी विधायकों की बगावत या विपक्षी बीजेपी द्वारा उन्हें तोड़ने की कोशिश. गोवा का मामला तो एकदम साफ है. दोनों ही मामले लोकतंत्र के लिए अच्छे नहीं हैं. इन मामलों से तीन बातें उभर कर सामने आती हैं. एक, पार्टी सदस्यों की पार्टी के प्रति कोई निष्ठा नहीं रह गई है, राजनीतिक दल एक दूसरे को एक दूसरे का प्रतिद्वंद्वी नहीं एक दूसरे का दुश्मन समझने लगे हैं. पार्टियां एक दूसरे को खत्म कर आगे बढ़ना चाहती हैं तो पार्टियों के नेता अपने फायदे के लिए पार्टी को कुछ भी नुकसान पहुंचाने के लिए तैयार हैं. अटल बिहारी वाजपेयी के पांच साल के गठबंधन शासन के बाद लग रहा थी कि भारतीय लोकतंत्र परिपक्व हो चला है. राजनीतिक दल राष्ट्रीय हितों के लिए जिम्मेदारियां ले रहे हैं और एक दूसरे का सम्मान कर रहे हैं. आखिर वही तो जीतकर सरकार बनाते हैं और लोकतांत्रिक देश की बागडोर संभालते हैं.
लेकिन मनमोहन सिंह के दस साल के शासन ने कुछ ऐसा किया जिसने बीजेपी को आक्रामक, तामसिक और प्रतिशोधी बना दिया है. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी अश्वमेध यज्ञ पर निकली है, जिसके प्रताप तले कोई भी लोकतंत्र की मर्यादाओं का पालन करने की जरूरत नहीं समझ रहा है. जिस तरह से विरोधी समझे जाने वालों के खिलाफ पुलिस या दूसरी कार्रवाईयां हो रही हैं साफ झलक रहा है कि पार्टियों का एक दूसरे में न तो भरोसा रह गया है और न ही एक दूसरे के लिए कोई सम्मान है. लोकतंत्र का अर्थ लोगों का तंत्र है. शासन की ऐसी व्यवस्था जिसमें लोगों की भागीदारी हो. जनता अपने संप्रभुता के अधिकार का इस्तेमाल पांच वर्षों के लिए चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से करती है. इसीलिए नरेंद्र मोदी खुद को प्रधानमंत्री के बदले प्रधान सेवक कहते हैं, क्योंकि वे अपने को किसी राजा के प्रधानमंत्री नहीं बल्कि जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के बहुमत के नेता के रूप में प्रधान सेवक मानते हैं.
पार्टियां लोकतंत्र का सहारा हैं. वे अपने विचारों और गतिविधियों से लोगों को मुद्दों और विकल्पों से परिचित कराती हैं, उन्हें संगठित करती हैं. चुनाव में मतदाता उन्हीं के आधार पर फैसला लेता है और एक या दूसरी पार्टी को चुनता है. बहुमत में आने वाली पार्टी सरकार बनाती है. विपक्ष का काम उस पर नियंत्रण रखना होता है. विपक्ष के बिना लोकतंत्र संभव नहीं है. पार्टियों के बिना भी लोकतंत्र नहीं चल सकता. इसलिए उन्हें बचाना भी हर लोकतांत्रिक देश की जिम्मेदारी है. यह गारंटी करना सरकार का काम है कि दलगत संरचनाएं इतनी कमजोर न हो जाएं कि लोकतांत्रिक संरचनाएं चरमरा जाए. बीजेपी को समझना होगा कि उसके डर से या उससे फायदा लेने के लिए कहीं कोई लोकतंत्र की जड़ों को नष्ट न कर रहा हो. जड़ें जमीन के अंदर होती हैं, दिखती नहीं. उनके नष्ट होने का पता तभी चलता है जब बहुत देर हो चुकी होती है और पेड़ सूखने लगता है.
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