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कानून और न्याय

क्या आरक्षण के अंदर आरक्षण दिया जा सकता है?

३१ अगस्त २०२०

सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले की वजह से शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण के एक विशेष पहलू पर फिर से बहस शुरू हो गई है. अदालत ने अनुसूचित जातियों की कुछ उपश्रेणीयों के लिए कोटा के अंदर कोटा की अनुमति दे दी है.

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Indien Oberster Gerichtshof in Neu Dehli
तस्वीर: picture-alliance/NurPhoto/N. Kachroo

पांच जजों की पीठ ने कोटा के अंदर कोटा के सिद्धांत को मंजूरी तो दे दी, लेकिन मामले को सात जजों की एक पीठ को भी सौंप दिया.ऐसा इसलिए क्योंकि 2005 में पांच जजों की ही एक पीठ ने इसके खिलाफ फैसला दिया था और एक पीठ के फैसले को उलटने का अधिकार केवल उससे बड़ी पीठ को ही होता है. सात जजों की नई पीठ का गठन अभी नहीं हुआ है. जब भी बड़ी पीठ का गठन होता है, वो इन दोनों फैसलों पर फिर से विचार करेगी.

कई राज्यों का कहना है कि अनुसूचित जातियों में कुछ जातियां दूसरों के मुकाबले पर्याप्त प्रतिनिधित्व हासिल नहीं कर पाती हैं. कई राज्य इस विषय पर पहले ही कदम उठा चुके हैं. जैसे बिहार सरकार ने 2007 में महादलित आयोग बना कर अनुसूचित जातियों में भी 21 जातियों को सबसे पिछड़ा बताया और उनके लिए कई सरकारी योजनाएं शुरू कीं. तमिलनाडु में अनुसूचित जातियों के लिए कोटा के अंदर अरुंधतियार जाति के लिए तीन प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है.

इसी तरह आंध्र प्रदेश विधान सभा ने 2000 में एक कानून पारित कर 57 अनुसूचित जातियों को उपसमूहों में बांट दिया था और उनकी आबादी के अनुपात में अनुसूचित जातियों के लिए उपलब्ध 15 प्रतिशत कोटा को बांट दिया था. हालांकि इस कानून को सुप्रीम कोर्ट ने उसी 2005 के फैसले में गैरकानूनी ठहरा दिया था जिसमें उसने अनुसूचित जातियों और जनजातियों में उपश्रेणियों के लिए कोटा के अंदर कोटा के खिलाफ फैसला दिया था.

Indien Neu Delhi | Protest gegen Staatsbürgerschaftsgesetz | CAB, CAA
भारत के संविधान में लिखे हुए आरक्षण के प्रावधान अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को एक ही समूह के रूप में देखते हैं.तस्वीर: DW/A. Ansari

बहस के केंद्र में भारत के संविधान में लिखे हुए आरक्षण के प्रावधान हैं, जो अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को एक ही समूह के रूप में देखते हैं. पिछले कुछ दशकों में "क्रीमी लेयर" का एक सिद्धांत सामने आया है, जिसके तहत अलग अलग जातियों से जुड़े परिवारों की आय के आधार पर उन जातियों की कम वंचित या ज्यादा वंचित के रूप में पहचान की जाती है.

क्रीमी लेयर सिद्धांत सबसे पहले अन्य पिछड़ा वर्ग या ओबीसी में कम पिछड़े और ज्यादा पिछड़े वर्गों में अंतर करने के लिए इस्तेमाल किया गया था. हालांकि सितंबर 2018 में पदोन्नति में आरक्षण पर एक मामले पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों में भी इस सिद्धांत को मान्य ठहराया. केंद्र सरकार ने इसके खिलाफ पुनर्विचार याचिका भी दायर की थी, लेकिन उस पर अभी तक फैसला नहीं आया है.

इस विषय का केंद्र सरकार द्वारा स्थापित उषा महरा आयोग ने भी अध्ययन किया था और 2008 में दी गई अपनी रिपोर्ट में अनुसूचित जातियों में उपश्रेणियां बनाने के लिए संविधान संशोधन करने का प्रस्ताव दिया था. जब केंद्र ने इस प्रस्ताव पर सभी राज्यों से राय मांगी, तब सिर्फ सात राज्यों ने इस से सहमति जताई जबकि 14 राज्यों ने समर्थन नहीं किया.

पांच राज्यों और दो केंद्र-शासित प्रदेशों की राय का अभी भी इंतजार है, इसलिए केंद्र ने संविधान संशोधन की प्रक्रिया को आगे नहीं बढ़ाया है.अब मामला अदालत के हाथ में है. जब मुख्य न्यायाधीश सात सदस्यों की एक पीठ को यह मामला सौंपेंगे, तब देखना होगा कि बड़ी पीठ क्या निर्णय करती है.

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