कौन बनाता है रैलियों वाली टीशर्ट और टोपियां?
५ अप्रैल २०१९भारत में जब चुनाव होते हैं तो मेले जैसा माहौल होता है. ढोल नगाड़ों का शोर भी होता है और रैलियों में पार्टी के झंडे, टोपियां, टीशर्ट और आज कल तो मास्क का भी चलन शुरू हो गया है. पार्टियों के इस मर्चनडाइज को जोर शोर से इस्तेमाल तो किया जाता है लेकिन इन्हें बनाने वालों पर शायद ही किसी का ध्यान जाता हो.
नागराज नटराज तमिलनाडु के रहने वाले हैं. बीवी और बेटी के साथ मिल कर दिन भर अपनी सिलाई मशीन पर झंडे बनाते हैं. सुबह छह बजे उठ कर सीधे मशीन चलना शुरू कर देते हैं. दिन के 24 में से 14 घंटे यूं ही गुजरते हैं. झंडे के आकार के हिसाब से उन्हें हर पीस के लिए एक से दस रुपये के बीच में मिलते हैं. अपने काम के बारे में नागराज बताते हैं, "ये ऑर्डर बड़ी फैक्ट्रियों में नहीं जाते क्योंकि फिर दाम बढ़ जाएगा. वो हमें ये काम दे देते हैं और मजदूरी भी कम देते हैं. हमारे पास और कोई चारा नहीं है, इसलिए हम भी मान जाते हैं."
चुनावों में इस्तेमाल होने वाला इस तरह का अधिकतर सामान महिलाएं बनाती हैं. ये फैक्ट्रियों में नहीं, घरों में रह कर काम करती हैं और सप्लाई चेन में ये कहीं पंजीकृत नहीं होती. दिलचस्प बात ये है कि कांग्रेस और बीजेपी, दोनों ही बेरोजगारी और न्यूनतम वेतन को चुनावी मुद्दा तो बना रही हैं लेकिन अपनी नाक के नीचे हो रहे इस शोषण को नजरअंदाज कर रही हैं.
कपड़ा मजदूरों के हकों के लिए काम करने वाले संघ गारमेंट एन्ड एलाइड वर्कर्स यूनियन के अमरनाथ शर्मा का इस बारे में कहना है, "आज बेरोजगारी एक बेहद बड़ा चुनावी मुद्दा है लेकिन कोई भी इन मजदूरों के बारे में बात नहीं कर रहा है. इनको मिलने वाला वेतन अपने आप में ही एक चुनावी मुद्दा होना चाहिए लेकिन उसके उलट चुनाव के लिए बनाए जाने वाले सामान को लेकर ही इनका शोषण हो रहा है."
थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन ने इस बारे में राजनीतिक पार्टियों से भी बात करने की कोशिश. कांग्रेस की शहनाज राफिक का इस बारे में कहना था, "सप्लाई चेन बहुत ही जटिल है, खास कर जब इसमें घर से काम करने वाले मजदूर जुड़ जाते हैं. और आउटसोर्सिंग के मामले में हमें ये पता है कि कई बार न्यूनतम भत्ते का ध्यान नहीं रखा जा रहा है. हम इसकी गहराई में जाएंगे." जहां कांग्रेस ने कम से कम चूक को माना, वहीं बीजेपी इस पूरे शोषण से ही अनजान दिखी.
बेजीपी यूथ विंग के रोहित चहल ने कहा, "मैं नहीं जानता कि टीशर्ट कहां से आ रही हैं. मुझे ये पता है कि इन्हें कौन खरीद और पहन रहा है. आउटसोर्सिंग हमारी समस्या नहीं है. हमारा मकसद है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भारी बहुमत से सत्ता में फिर से लाना और इसके लिए हर जगह दिखना जरूरी है."
"नमो मर्चनडाइज" को लोग बीजेपी की वेबसाइट से भी खरीद सकते हैं और नमो ऐप से भी. यहां तक कि रैलियों के दौरान इसके लिए वेंडिंग मशीन तक लगाई जाती हैं. एक टीशर्ट की कीमत करीब 120 रुपये. हालांकि इसे बनाने वाले को इसका दसवां हिस्सा भी नहीं मिलता.
दिल्ली स्थित एक निर्माता विमल शर्मा ने बताया कि वे मोदी के चेहरे वाली एक लाख से भी ज्यादा टीशर्ट बना चुके हैं और अब भी लगातार ऑर्डर मिल रहे हैं. इसी तरह गुजरात स्थित एक निर्माता इमरान खान का कहना था कि वे जिन महिलाओं से झंडे बनवाते हैं उन्हें एक हजार झंडों के बदले 120 रुपये देते हैं, "अगर वो हजारों झंडे सी दें तो अच्छा खासा पैसा कमा सकती हैं. और कोई नौकरियां भी नहीं हैं, तो ये कुछ ना करने से तो बेहतर ही है."
आंकड़ों के अनुसार भारत में 1.2 करोड़ मजदूर कपड़ा मिलों में काम करते हैं. हालांकि इसमें घर से काम करने वाले लोगों की संख्या शामिल नहीं है. ट्रेड यूनियन के विमल शर्मा का कहना है कि वोट मांग रही किसी भी पार्टी या नेता को मजदूरों के हालात से कोई फर्क नहीं पड़ता, "एक अच्छे भविष्य के लिए बस वायदे ही होते हैं लेकिन वेतन कैसे बढ़ाए जाएंगे, काम करने की स्थिति कैसे बेहतर होगी, इस पर कोई तफसील नहीं देता. ये मजदूर तो किसी को दिखते ही नहीं."
आईबी/एके (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)
सबसे ज्यादा न्यूनतम मजदूरी