सोशल मीडिया की अफवाहों से अखबारों पर संकट
२६ मार्च २०२०केंद्र सरकार और विश्व स्वास्थ्य संगठनों के अलावा तमाम डाक्टरों ने भी कहा है कि इससे ऐसा कोई खतरा नहीं है. इन अफवाहों की काट के लिए कई अखबारों ने अखबारों की छपाई के दौरान उन पर सैनिटाइजर छिड़कने का दावा किया और इसके वीडियोज भी सोशल मीडिया पर पोस्ट किए थे. लेकिन बावजूद इसके अखबार कोरोना वायरस की चपेट में आते नजर आ रहे हैं. हालत यह है कि ज्यादातर शहरों में अखबारों का वितरण बंद है. मुंबई और कोलकाता में तो कई अखबारों ने प्रकाशन तक बंद कर दिया है. उन सबने पाठकों से हालात सामान्य नहीं होने तक डिजिटल एडिशन से काम चलाने का अनुरोध किया है.
अफवाहें
दरअसल, कोरोना संक्रमण पर अंकुश लगाने के लिए पहले जनता कर्फ्यू और उसके बाद लॉकडाउन के एलान के बीच सोशल मीडिया पर यह अफवाहें जोर पकड़ने लगीं कि अखबारों से भी यह वायरस फैल सकता है. इससे आम लोगों में अफरा-तफरी मच गई. देखते- ही देखते लोगों ने हॉकरों को अखबार देने से मना कर दिया. इससे अखबारों की बिक्री में 60 से 80 फीसदी तक गिरावट दर्ज की गई है. नतीजतन कई अखबारों ने अपने पन्नों की तादाद भी घटा दी है. स्वास्थ्य विशेषज्ञ बार-बार इन अफवाहों को निराधार बताते रहे हैं. वैज्ञानिक शोधों में बताया गया है कि अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन में इस्तेमाल होने वाला कागज कोरोना वायरस के खतरे से सुरक्षित है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी साफ कर दिया है कि अखबारों से संक्रमण का अंदेशा नहीं है. केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने अपने एक ट्वीट में कहा है, "अखबार पढ़ने से कोरोना नहीं फैलता. इसे पढ़ने के बाद हाथ धोना ही काफी है." बावजूद इसके लोगों के मन में समाया डर नहीं निकल रहा है. पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में एक अखबार वितरक अमित सिंह कहते हैं, "लोगों ने कोरोना के डर से अपने आवासीय परिसरों में हमारे घुसने पर पाबंदी लगा दी है. लोग बाजारों में भी अखबार नहीं खरीद रहे हैं. नतीजतन कई अखबारों ने छपाई रोक दी है."
कोलकाता में संक्रामक बीमारियों के विशेषज्ञ डाक्टर सुमित धर कहते हैं, "अखबारी कागज पर वायरस लंबे समय तक जीवित नहीं रहते हैं. अखबार से संक्रमण फैलने की आशंका नहीं के बराबर है. लोगों को अफवाहों पर यकीन नहीं करना चाहिए." संक्रामक बीमारियों पर महाराष्ट्र सरकार के तकनीकी सलाहकार डॉक्टर सुभाष सालुंके कहते हैं, "जो देश इस महामारी से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं, वहां भी अखबारों की छपाई औऱ वितरण बंद नहीं है. अखबार को छूना बिल्कुल सुरक्षित है. अखबारों की छपाई में आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है. इसके अलावा अखबारों ने सुरक्षा के कुछ और उपाय भी किए है."
अखबारों का वितरण बंद
वितरकों का कहना है कि ज्यादातर हाउसिंग सोसायटीज में लोगों ने हॉकरों के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी है. इसके अलावा हॉकरों ने भी इस खतरे की वजह से अखबार बांटना बंद कर दिया है. पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में तो बीते सोमवार को ही हॉकरों और न्यूजपेपर एजेंटों ने ग्राहकों को साफ कह दिया था कि कल से अखबार नहीं मिलेंगे. मुंबई में मिडे डे और टाइम्स आफ इंडिया जैसे कई अखबार नहीं छप रहे हैं. कोलकाता में कई बांग्ला अखबारों ने 26 मार्च से छपाई बंद करने का एलान किया है. इसके अलावा आउटलुक पत्रिका ने भी अपना प्रिंट एडिशन फिलहाल बंद कर दिया है. लोग अब डिजिटल एडिशन का सहारा ले रहे हैं. आउटलुक के प्रधान संपादक रूबेन बनर्जी ने आउटलुक वेबसाइट पर अपनी एक पोस्ट में लिखा है कि लॉकडाउन व कर्फ्यू की वजह से छपी हुई प्रतियों का वितरण संभव नहीं है. हालात सामान्य होने पर पत्रिका की छपाई दोबारा शुरू की जाएगी.
कोरोना को लेकर सोशल मीडिया पर फैलने वाली अफवाहों के बीच केंद्र सरकार ने इस सप्ताह कहा था कि अखबारों की छपाई और उनका वितरण बेहद जरूरी है ताकि लोगों को सही सूचनाएं मिल सकें. सूचना व प्रसारण मंत्रालय की ओर से तमाम राज्यों के मुख्य सचिवों को भेजे एक पत्र में कहा गया है कि लोगों में जागरुकता पैदा करने और उन तक सही सूचनाएं पहुंचाने के लिए प्रिंट और इलेक्ट्रानिक माध्यमों का सुचारू रूप से चलना बेहद जरूरी है. इससे फर्जी खबरों और अफवाहों पर अंकुश लगाया जा सकेगा.
राज्य सरकारों से इसमें सहायता की अपील की गई है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी मंगलवार को देश के चुनिंदा संपादकों व प्रकाशकों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिग के जरिए बातचीत के दौरा मीडिया की भूमिका की सराहना करते हुए कहा था कि कोरोना वायरस से बचाव और सुरक्षा उपायों के बारे में जागरुकता पैदा करने में इसकी भूमिका काफी अहम साबित हो सकती है. लेकिन इसके बावजूद अखबारों की बिक्री तेजी से गिर रही है.
ऐसे में सवाल उठने लगा है कि पहले से ही टीवी और डिजिटल की मार झेल रहे इस उद्योग की किस्मत में आखिर क्या लिखा है? वरिष्ठ पत्रकार तापस मुखर्जी कहते हैं, "मैंने चार दशक लंबे अपने करियर में पहले कभी ऐसी हालत नहीं देखी है. युद्ध, सांप्रदायिक दंगों और अकाल के दौरान भी कभी अखबारों का प्रकाशन नहीं रुका था. लेकिन अब कोरोना के प्रति लोगों में आतंक और अफरा-तफरी ने इन अखबारों को प्रकाशन रोकने पर मजबूर कर दिया है."
एक बांग्ला अखबार के पूर्व संपादक अनिमेष बनर्जी कहते हैं, "यह सामयिक दौर है. पूरे देश के सामने संकट है. ऐसे में अगर लोग आतंकित हैं और अखबार को छूना तक नहीं चाहते तो उनको छापने का क्या फायदा है?" पत्रकारों और संपादकों का कहना है कि सामयिक तौर पर छपाई रुकने से इन अखबारों के राजस्व पर भले थोड़ा-बहुत असर पड़े, प्रिंट मीडिया के भविष्य पर इसका कोई खास असर नहीं होगा.
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