कैसे छूटे कट्टरपंथी सोच
१३ दिसम्बर २०१२बांग्लादेश में पैदा हुए मुहम्मद मनवर ने ब्रिटेन में आईटी की पढ़ाई की और बाद में ब्रिटेन के इस्लामिक सोसाइटी का सदस्य बन गए. लेकिन इसके बाद उनका रास्ता बदल गया. वह अफगानिस्तान में ट्रेनिंग कैंप पहुंचे और जिहाद के नाम पर जंग में हिस्सा लेना शुरू कर दिया.
मनवर ने रास्ता फिर बदला है. अब वह मुसलमानों और दूसरे धर्मों के लोगों की समझ बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं. पुलिस और स्कूलों में वे सलाफी सोच के खतरों पर बात करते हैं. लेकिन जिहादी से एक सामान्य जीवन तक उनका सफर बहुत मुश्किल रहा, "धीरे धीरे हमें सब कुछ पता चल रहा है. जिहाद में भ्रष्टाचार और जिस तरह से हमें राजनीतिक मकसदों के लिए इस्तेमाल किया जाता है. मैं जान चुका हूं कि चीजों को पढ़ने के अलग तरीके होते हैं, जो संदर्भ पर निर्भर होता है."
पॉप जिहाद या युवा संस्कृति
इस्लाम में सलाफी विचारधारा को बहुत रूढ़ीवादी माना जाता है. समझा जाता है कि ये कुरान की बातों के हर शब्द को अमल में लाना चाहते हैं. ये मानते हैं कि वे अकेले "शाश्वत और सच्चे इस्लाम" का पालन करने वाले हैं, जैसा कि पैगंबर मुहम्मद के जमाने में होता था. लेकिन सलाफी आंदोलन बंटा हुआ भी है. एक वर्ग ऐसे सलाफियों का है, जो ज्यादातर निजी जीवन में अपने धर्म का पालन करते हैं लेकिन दूसरा वर्ग राजनीतिक सलाफियों का है, जो या तो हिंसा का समर्थन करते हैं या उसका विरोध करते हैं.
जर्मन में इस्लामी मामलों की विशेषज्ञ क्लाउडिया डांचके मानती हैं कि सलाफियों की तीसरी पीढ़ी बहुत ही सृजनात्मक है. इसमें रैप संगीतकार असादुल्लाह भी हैं जो अपनी कॉमिक सीरीज सुपरमुस्लिम के जरिए युवा वर्ग को आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं. इनकी एक वेबसाइट भी है जो सलाफी विचारधारा बताती है. इनमें प्रचार करने का तरीका युवाओं को लुभाता है.
कट्टर सोच से मुक्ति
युवा संस्कृति के तौर पर पॉप जिहाद अब मशहूर होने लगा है. प्रचार में इंटरनेट मददगार साबित हुआ है और पूरे जर्मनी में सम्मेलनों और भाषणों का भी आयोजन किया गया है. इस्लामी मामलों के विशेषज्ञ गोएस नॉर्डब्रुख कहते हैं, "तुर्क मूल के सलाफी जैसे कि मुहम्मद चिफ्तीची जब युवाओं को इस्लाम के बारे में समझाते हैं तो उनका एक तरह से वर्चस्व होता है." अगर युवा इस तरह के लोगों के बीच आते हैं तो मां बाप और शिक्षक, दोनों को काफी मुश्किल होती है. 2012 से सलाफी संगठनों से बाहर निकलने के लिए कार्यक्रम हैं लेकिन इनका ज्यादा फायदा नहीं दिख रहा.
हतीफ एक सरकारी कार्यक्रम है. यह एक हॉटलाइन है जहां युवा फोन कर सकते हैं. लेकिन डांचके कहती हैं कि यह संविधान सुरक्षा से जुड़ा है और कोई यहां फोन नहीं करता. जर्मनी के संविधान सुरक्षा दफ्तर के मुताबिक भी इस हॉटलाइन की सफलता न के बराबर है. लेकिन इसके अलावा भी बर्लिन में कुछ कार्यक्रम है. मनोवैज्ञानिक अहमद मंसूर सेंट्रुम डेमोक्राटिशे कुलटूअर संस्था के बारे में बताते हैं. लेकिन उनका कहना है कि कुछ ऐसी सोच की जरूरत है जो सुरक्षा प्रणाली के बाहर हो और जो समाज से संबंधित हों. मंसूर का कहना है कि स्कूलों और मस्जिदों में ही इन युवाओं से मिलना चाहिए और इनकी मदद की जानी चाहिए.
कैदियों से बर्ताव
परेशानी जेलों में भी है. छोटे प्रोजेक्ट से जिहादी कैदियों में हिंसा की भावना को कम करने की कोशिश की जाती है लेकिन डांचके कहती हैं कि उन्हें अब भी जेलों में इस बात की कमी नजर आती है कि इन प्रोजेक्ट को और अच्छे तरीके से लागू करना चाहिए, "जेल में कैदियों के वक्त का बेहतर इस्तेमाल होना चाहिए ताकि इन युवाओं की सोच बदली जा सके." यह जरूरी है ताकि वे कैदखाने से निकलने के बाद और कट्टर न बन जाएं.
मुहम्मद मनवर अली कहते हैं कि ब्रिटेन में जिहादियों की हिंसा को कम करने की कोशिश की गई और कैदियों से निजी बातचीत हुई. लेकिन यह कितना सफल हुआ, कहा नहीं जा सकता क्योंकि यह कैदियों की मर्जी पर निर्भर था और किसी भी वक्त बातचीत को रोका जा सकता था. वह कहते हैं कि समाज और सरकार दोनों को इस दिशा में और काम करना होगा.
रिपोर्ट: उलरीके हुमेल/एमजी
संपादन: ए जमाल