काबुल की भूलभुलैया में डाकिए
१८ जुलाई २०१३अफगानिस्तान की सड़कों पर मुहम्मद रहीम की साइकिल दौड़ रही है. दस साल से वह अपना काम कर रहे हैं और उनके दिमाग में अब इतने पते नोट हो चुके हैं, जो शायद गूगल मैप में भी न हों.
46 साल के रहीम का कहना है, "मेरे पास एक चिट्ठी है, जो उस शख्स के लिए है, जो डॉक्टर हशमत के घर के पास रहता है. मुझे पता नहीं मालूम लेकिन काम तो करना ही है."
उनके पास जो जानकारी है, उसके मुताबिक चिट्ठी मुहम्मद नईम के पास जानी है, जो डॉक्टर साहब के घर के पास रहते हैं और उनकी रिहाइश कृषि मंत्रालय के पीछे कर्ते सखी पहाड़ी पर है.
भले ही भारत में भी कई घरों के नंबर नहीं होते लेकिन गलियों के नाम होते हैं और फिर वहां हर मोड़ पर आत्मघाती हमलों का खतरा नहीं होता. काबुल में हालात बिलकुल अलग हैं.
रहीम ब्लू फर वाली टोपी पहनते हैं और आम तौर पर जीन्स और बैंगनी टीशर्ट उन्हें अलग पहचान दिलाती है. काम की शुरुआत कर दी गई है. करीबी डाकखाने से ही घर का पता लगाने की कोशिश की जा रही है. एक दुकानदार की तरफ चिल्लाकर रहीम ने पूछा, "भाईजान, ये डॉक्टर हशमत कहां रहते हैं." उतनी ही तेज आवाज में जवाब आई, "अरे भाई, पहाड़ी पर चढ़ो, फिर दाहिने मुड़ जाओ." आगे जाने पर कुछ और मदद हो गई, "दाहिने मुड़िए, तीसरा मकान है."
घुमावदार पहाड़ियों पर दम फुलाने वाली साइकिल सवारी के बाद आखिरकार एक दरवाजा खुलता है. 40 की दहाई की एक औरत बुर्के में निकलती है, अपनी तसदीक नईम की बीवी के तौर पर करती है. चिट्ठी उसे सौंप दी जाती है और रहीम माथे पर छलक आए पसीने को पोंछते हैं.
नईम की बीवी के लिए यह इतनी बड़ी बात नहीं, "हमें तो अमेरिका, कनाडा, जर्मनी और पाकिस्तान से खत आते रहते हैं. डाकिए तो हमेशा हम तक पहुंच जाते हैं."
रहीम की साइकिल आगे निकल जाती है. दिन भर में दर्जन भर खतों का बंटवारा हो जाता है. उनका इलाका पश्चिम और दक्षिण पश्चिम काबुल का है. अफगानिस्तान में 1990 के दशक के गृह युद्ध के बाद हालात बेहद खराब हो चुके हैं और पूरा शहर मलबे के ढेर जैसा लगता है.
इस बीच काबुल की आबादी बढ़ कर 50 लाख के आस पास पहुंच गई है क्योंकि छोटी जगहों पर लोगों के पास रोजगार नहीं और तालिबान का खतरा भी है. रोटी की तलाश में उन्हें राजधानी आना पड़ रहा है. काबुल के आसपास नई बस्तियां बना ली गई हैं. इनमें से ज्यादातर गैरकानूनी हैं, जो सरकारी जमीन पर खड़ी कर ली गई हैं. इनका नक्शा भी पास नहीं कराया गया है, तो भला डाक विभाग को इनके पते कैसे मालूम होंगे.
हालांकि पिछले महीने संचार मंत्री ने शहर के अधिकारियों के साथ मिल कर पते की नई व्यवस्था के समझौते पर दस्तखत किया है, जिसके बाद यह समस्या दूर हो सकती है. दो साल के प्रोजेक्ट में सभी गलियों के नाम रखे जाएंगे, घरों के नंबर होंगे और पोस्ट कोड भी तैयार किया जाएगा.
नए नक्शे को जीपीएस से भी जोड़ा जाएगा, जो शायद रहीम और उनके दोस्त खान आगा की बेहतर मदद कर सके. 42 साल के खान आगा पड़ोसी शहर शहरे नव में डाकिए का काम करते हैं. उन्हें बीसियों साल हो गए हैं लेकिन अभी भी यह काम "दुनिया का सबसे दुश्वार काम" लगता है, "हमें सर्दी गर्मी, ट्रैफिक या बरसात की फिक्र नहीं. लेकिन कुछ पते इतने अजीब तरह से लिखे होते हैं कि क्या कहें. कम से कम चिट्ठी के पीछे एक फोन नंबर ही लिख दीजिए. इससे मदद मिल जाएगी. अगर ऐसा होता है तो हम फोन कर लेते हैं, फिर वह बता देता है कि फलां शख्स किस जगह खड़ा है और हम वहां चिट्ठी पहुंचा देते हैं."
आगा खान के लिए उनका काम बेहद इज्जत का है क्योंकि उन्होंने टेलीविजन में देखा है कि "पश्चिमी देशों में डाकिए किस तरह दो लोगों को मिलाते हैं." आगा के लिए मुश्किल थोड़ी ज्यादा है क्योंकि 20 साल पहले जब वह एक सैनिक के तरह काम करते थे, तो एक हमले में उन्हें दाईं आंख गंवानी पड़ी, "मेरे सिर के पीछे गोली लगी और मेरी आंख के रास्ते बाहर आ गई."
वह मानते हैं कि इसका असर उनके काम पर पड़ा है. डाकघर के फर्श पर फैले चिट्ठियों के अंबार को वह सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं, "जर्मनी से एक खत मिसेज बारबरा के लिए आया है. वह शेरपुर में रहती हैं." दूसरे खतों की तरह इसमें भी सिर्फ जिले का नाम लिखा है, गली या घर का नंबर नहीं.
लगभग दो घंटे की तलाशी और दर्जन भर लोगों से पूछताछ के बाद पता लग गया कि एक हेल्थ केयर में मिसेज बारबरा काम कर रही हैं. जितनी खुशी बारबरा को चिट्ठी पाकर हुई, शायद उतनी ही आगा खान को भी हुई होगी.
लेकिन इस मेहनत की कीमत जरा कमजोर है. अफगानिस्तान में करीब 900 डाकिए हैं, जिनमें से 100 काबुल में हैं. उन्हें महीने के 5000 अफगानी मिलते हैं, 90 डॉलर से भी कम.
पर उन्हें इस बात की खुशी है कि आने वाले दिनों में उनकी मुश्किल हल हो सकती है, "जब प्रोजेक्ट पूरा हो जाएगा, तो हम अपना काम बेहतर ढंग से कर सकेंगे."
एजेए/एएएम (एएफपी)