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कश्मीर 2010: पत्थर, हिंसा और मायूसी

३० दिसम्बर २०१०

हिंसा में 100 से ज्यादा लोगों की मौतें, जम कर हुई पत्थरबाजी, बार बार की फर्जी मुठभेड़ और सड़कों पर भारत विरोधी नारों के बीच कश्मीर ने बुरा साल बिताया. आए दिन की हड़ताल ने बच्चों को पढ़ाई, दोस्तों और स्कूलों से दूर रखा.

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बेबस हो कर रह गई जिंदगीतस्वीर: UNI

साल भर तक विरोध प्रदर्शन, नारों, हंगामे और 100 लोगों की मौत के बाद कश्मीर समस्या के लिए तीन वार्ताकारों को नियुक्त किया गया. कभी धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला कश्मीर भले ही नर्क न बना हो लेकिन स्वर्ग जैसी कोई बात भी नहीं रही. बहुत से सैलानी कश्मीर आया करते थे, इस साल नजर नहीं आए.

नजर आए प्रदर्शनकारी. बंद दुकानों, जलती टायरों और वर्दीधारी सैनिक अर्धसैनिक फौजों के सामने नकाब पहने और फिरन से निकले हाथ भांजते लोग. गुस्सा जब हद से बढ़ जाता तो एक पत्थर चल जाता. फिर दोनों तरफ गुस्सा भड़क उठता. पत्थर का जवाब गोलियों तक से दिया गया. सेबों और अखरोटों की घाटी ने इस गर्मी में सिर्फ मौत का कारोबार देखा. पुलिसिया फायरिंग में 100 से ज्यादा लोगों की जान गई.

राज्य के सबसे युवा मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह कभी मान मनुहार से, तो कभी बयान से और कभी सख्ती से स्थिति काबू में करने की कोशिश करते रहे. लेकिन जब जान की बात आती है, तो हालात बेकाबू हो जाते हैं. सालों बाद घाटी में कुछ दिनों के लिए सेना के अधिकार कई गुना कर दिए गए. इस बीच छटपटाहट में दिया गया मुख्यमंत्री अब्दुल्लाह का बयान विवाद की वजह बन गया. मुख्यमंत्री ने कहा कि कश्मीर का भारत में विलय नहीं हुआ है, बल्कि वह उसमें शामिल हुआ है. इसके बाद बीजेपी के तेवर गर्म हो गए. उधर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी कह दिया कि राज्य को स्वायत्तता देने पर विचार किया जा सकता है और फिर इस पर हंगामा अलग हुआ.

Indien Kaschmir Demonstranten in Srinagar Flash-Galerie
तस्वीर: AP

बयानों से दूर घाटी की आम जनता दफ्तर दुकानों से दूर घरों में बंद रहने को मजबूर रही. एक तरफ से पत्थर चलते रहे और दूसरी तरफ से गोलियां. जनवरी में ही मुठभेड़ के दौरान पुलिस की गोली से एक किशोर की जान चली गई और इसके बाद हंगामा भड़क उठा. कश्मीर चार दिनों तक बंद रहा. जब खुला तो दो दिन बाद दूसरी घटना में फिर एक किशोर बीएसएफ की गोलियों का शिकार हो गया. घाटी फिर बंद और प्रदर्शन शुरू. बाद में बीएसएफ के खिलाफ जांच हुई और शुरुआती जांच में पता चला कि इसके लिए बीएसएफ जिम्मेदार थी. बीएसएफ के कमांडेंट आरके बिरधी को गिरफ्तार किया गया.

अभी यह शोला ठंडा भी नहीं पड़ा कि कश्मीर में तैनात सुरक्षा बलों पर एक बार फिर से निर्दोषों को निशाना बनाने के आरोप लगे. मछील कांड की फांस सुरक्षा बलों के गले में फंस गई, जिसमें आरोप लगा कि सेना के नौ जवानों ने तीन असैनिकों के साथ मिल कर तीन आम लोगों की फर्जी मुठभेड़ में हत्या कर दी और उन्हें घुसपैठिया करार दे दिया. मामले की खूब आलोचना हुई.

इन सबके बीच श्रीनगर में एक बार फिर पुलिस की गोली से आम शहरी की मौत हो गई और जून में घाटी धधक उठी. जबरदस्त हिंसक प्रदर्शनों के बीच कर्फ्यू लगा दिया गया और सेना के अधिकार बढ़ा दिए गए. पांच महीने तक लगभग ऐसी ही स्थिति बनी रही और इस दौरान सौ से ज्यादा लोगों को जान गंवानी पड़ी. लोगों का गुस्सा कभी सुरक्षा बलों की पलटनों, कभी उनके कैंपों तो कभी बसों और सरकारी दफ्तरों पर फूटता रहा. पत्थर चलते रहे. गोलियां चलती रहीं. कश्मीर स्याह पड़ता रहा.

Kaschmir Kashmir Indien Polizei Protest Demonstration Muslime Steine Flash-Galerie
तस्वीर: AP

उधर, अलगाववादियों की राजनीति भी जारी रही. कश्मीर को आजाद कराने और भारत सरकार के खिलाफ प्रोपेगंडा बढ़ गया. प्रदर्शन की तारीखों को अंकित करता अलगाववादियों का कैलेंडर निकल आया. और एक मौका ऐसा भी आया, जब टैप किए गए टेलीफोन के बल पर भारत सरकार ने दावा किया कि अलगाववादी नेता प्रदर्शन के दौरान अपने ही लोगों की हत्या की साजिश कर रहे हैं. कश्मीर में लागू विशेष सशस्त्र सेना कानून को हटाने की मांग जोर पकड़ने लगी और राजनीतिक पार्टियों से लेकर अलगाववादियों ने इसकी मांग बढ़ा दी.

कर्फ्यू की मार बच्चों पर जो पड़ी, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है. स्कूल बंद रहे. पढ़ाई रुकी रही. न क्लासरूम, न रोज मिलने वाले साथी. मां बाप बच्चों को समझा नहीं पाते कि वे स्कूल क्यों नहीं जा रहे हैं. कर्फ्यू क्या चीज होती है.

कर्फ्यू ने आम खाते पीते लोगों को भी बांध कर रख दिया. घर में बंद लोगों की जेब में पैसा तो होता लेकिन बाहर जाने की इजाजत नहीं कि दूध और अंडे खरीद पाएं. कई शाम सूखी ब्रेड पर बितानी पड़ी. कोई बीमार पड़ जाए, तो उसे अस्पताल तक पहुंचाना जी का जंजाल बन गया. धरती के स्वर्ग में रहने कितने ही लोगों ने इस "स्वर्ग" को अलविदा कह दिया.

कश्मीर में पांच महीने के हालात ने एक लाख लोगों की नौकरी ले ली और सरकार तथा बिजनेस कम्युनिटी को कम से कम 30,000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ. सैलानियों की संख्या में इतनी कमी आई कि जिक्र करना भी बेकार है.

अंतरराष्ट्रीय आलोचना के बीच भारत सरकार ने कश्मीर मसले के लिए तीन वार्ताकार नियुक्त किए, जिनमें वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर, शिक्षाविद राधा कुमार और सूचना कमिश्नर एमएम अंसारी शामिल हुए. लेकिन कुछ राजनीतिक पार्टियों और अलगाववादी नेताओं ने उनसे किनारा कर लिया. इसके बाद उनकी कामयाबी के रास्ते भी धूमिल पड़ने लगे.

चिनार के सुनहरे पत्ते पूरे साल खून के सुर्ख रंग से दिखे. बेचैन कश्मीर बार बार सदा देता रहा कि कोई उसके सुनहरे दिन लौटा दे. 2010 में तो उसे यह मिला नहीं. लेकिन उम्मीद छूटी नहीं है.

रिपोर्टः पीटीआई/ए जमाल

संपादनः महेश झा

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