कचरे के पहाड़ पर बैठा भारत
२२ नवम्बर २०१७कुछ महीने पहले दिल्ली में कचरे का पहाड़ ढहने से हुई मौतों के अलावा देश के दूसरे हिस्सों में भी इसी वजह से या कचरे में आग लगने से हादसे होते रहते हैं. कचरे को निपटाने के लिए अब तक कोई ठोस योजना नहीं बन सकी है. इसके लिए बने नियमों का भी सही तरीके से पालन नहीं किया जा रहा है. एक ताजा अध्ययन में कहा गया है कि वर्ष 2047 तक देश में कचरे का उत्पादन पांच गुना तक बढ़ जाएगा. यह देश दुनिया में कचरे का सबसे बड़ा उत्पादक बनने की राह पर तेजी से बढ़ रहा है. यह स्थिति केंद्र के स्वच्छ भारत अभियान को मुंह चिढ़ाती नजर आती है.
बढ़ता कचरा
नेचर पत्रिका ने अपने नवंबर, 2013 के अंक में कहा था कि भारत तेजी से दुनिया का सबसे बड़ा कचरा उत्पादक देश बनने की राह पर बढ़ रहा है. द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट का अनुमान है कि वर्ष 2047 तक भारतीय शहरों में कचरे का उत्पादन पांच गुना बढ़ जाएगा. गैर-सरकारी संगठन सेंटर फार साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की निदेशक सुनीता नारायण कहती हैं, "हम अपने ही मलमूत्र में डूबते जा रहे हैं. भारत तेजी से विश्व में कचरे के सबसे बड़े ढेर के रूप में तब्दील हो रहा है."
रोजना लगभग दो करोड़ यात्रियों को ढोने वाली भारतीय रेलों में साफ-सफाई का भारी अभाव है. ज्यादातर ट्रेनों में कचरे का डिब्बा नहीं होने की वजह से लोग इधर-उधर या खिड़कियों से बाहर कचरा फेंकते रहते हैं. ट्रेन के शौचालयों की गंदगी सीधे पटरियों पर गिरने की वजह से रेल पटरियों पर मोर्चा लगता रहता है. इससे रेलवे सुरक्षा भी खतरे में पड़ती है. एक मोटे अनुमान के मुताबिक रेलवे को इसके चलते सालाना 67 मिलियन अमेरिकी डॉलर की चपत लगती है. अब हरित शौचालयों की योजना बनाई जा रही है. लेकिन इसमें अभी काफी समय लगेगा.
इसी तरह सबसे पवित्र समझी जाने वाली गंगा नदीं भी कचरे और रसायनों की वजह से देश की सबसे प्रदूषित नदियों में से एक हो गई है. इंडियन काउंसिल आफ मेडिकल रिसर्च की पहल पर नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम की ओर से किए गए एक हालिया अध्ययन में कहा गया है कि गंगा के तटवर्ती इलाकों में रहने वाले लोगों में कैंसर की दर देश में सबसे ज्यादा है.
जगह की कमी से अक्सर कचरे के पहाड़ तय सीमा से ऊंचे हो जाते हैं. नतीजतन उन इलाकों में हादसों का अंदेशा बढ़ जाता है. दिल्ली और मुंबई समेत कई महानगरों में कचरे के पहाड़ ढहने या उनमें आग लगने की वजह से ऐसे हादसों की खबरें अक्सर सुर्खियां बनती रहती हैं. सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट ने बीते साल भारतीय शहरों में ठोस कचरा प्रबंधन अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि कुछ बड़े शहरों को छोड़ दें तो ज्यादातर शहरों में पैदा होने वाले कचरे में से औसतन 50 से 60 फीसदी का ही संग्रह संभव हो पाता है. उनमें से महज 10 फीसदी का ट्रीटमेंट किया जाता है. यानी बाकी कचरा या तो पर्यावरण प्रदूषण का खतरा बढ़ाता है या फिर भूमिगत जल को दूषित करता है. विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में कचरा संग्रह के बाद उसे जिन जगहों पर ठिकाने लगाया जाता है वह पहले से निचला इलाका होता है जिसे कचरे से भरा जाता है. वहां न तो कचरे के ट्रीटमेंट की कोई व्यवस्था होती है न ही वैज्ञानिक तरीके से कचरा प्रबंधन पर ध्यान दिया जाता है.
उपाय
विशेषज्ञों का कहना है कि देश में पैदा होने वाले कचरे में प्लास्टिक की थैलियों की तादाद सबसे ज्यादा होती है. लेकिन वर्ष 2011 में देश के कुछ शहरों में इन पर लगी पाबंदी पर अब भी कड़ाई से अमल नहीं हो सका है. मौजूदा कानून में पाबंदी वाले इलाकों में प्लास्टिक के थैलों के इस्तेमाल पर पांच साल तक की कैद या एक लाख रुपए जुर्माने तक का प्रावधान है. यह समस्या देशव्यापी हैं. इन पर अब तक पूरी तरह पाबंदी नहीं लगाई जा सकी है. विशेषज्ञों का कहना है कि देश में बनने वाले कचरे के पहाड़ का आर्थिक फायदा उठाया जा सकता है. लेकिन इसके लिए ठोस नीति और इच्छाशक्ति की जरूरत है. पर्यावरण विशेषज्ञ प्रोफेसर शुभ्रज्योति गांगुली कहते हैं, "इस कचरे से बिजली पैदा की जा सकती है. देश के कुछ शहरों में परीक्षण के तौर पर यह काम शुरू हुआ है. लेकिन इसे बड़े पैमाने पर करना जरूरी है. इससे कचरे के लगातार ऊंचे होते पहाड़ पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है." विशेषज्ञों का कहना है कि कचरे के इस्तेमाल से पैकेजिंग में इस्तेमाल होने वाली सामग्री बनाना भी संभव है. इसके लिए विदेशों से सही तकनीक का आयात जरूरी है.
सीएसई की प्रोग्राम आफिसर स्वाति सिंह सामब्याल कहती हैं, "हमें स्वीडन जैसे शून्य कचरे वाले देश से सीखना चाहिए. इसके अलावा श्रीलंका और भूटान में भी कचरे को उनकी प्रकृति के हिसाब से छांट कर अलग-अलग करने पर काम हो रहा है." विशेषज्ञों का कहना है कि केंद्र व राज्य सरकारों के साथ आम लोगों में भी जागरुकता पैदा करनी होगा ताकि लोग राह चलते कहीं भी कचरा नहीं फेंके. इस बारे में थाईलैंड व हांगकांग जैसे देशों से काफी कुछ सीखा जा सकता है.
रिपोर्टः प्रभाकर