कंपनियों का फायदा और किसानों को नुकसान होता रहेगा
६ अक्टूबर २०१८देश का किसान मर रहा है. आत्महत्या के लिए मजबूर हो रहा है, क्योंकि उसके पास घर चलाने और खाने के पैसे नहीं है. वहीं किसानों को खेती करने के लिए माल बेचने वाली कंपनियां हर साल मुनाफा कूट रही है. न तो किसी कंपनी को नुकसान होता है, और न ही किसी की बिक्री घटती है.
बीते साल भारत की ट्रैक्टर कंपनियों ने सात लाख से ज्यादा ट्रैक्टर बेचे. इससे एक साल पहले की तुलना में यह संख्या 22 फीसदी अधिक है. देश की सबसे बड़ी ट्रैक्टर निर्माता कंपनी महिंद्रा एंड महिंद्रा ने अपनी घरेलू बिक्री में 22 फीसदी की तेजी का दावा किया. देश की दूसरी सबसे बड़ी ट्रैक्टर बनाने वाली कंपनी टैफे ने भी बिक्री में 16 फीसदी का इजाफा दिखाने वाले आंकड़े पेश किए.
इसी तरह भारत सरकार के उर्वरक विभाग (डिपार्टमेंट ऑफ फर्टिलाइजर्स) की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2016-17 के मुकाबले 2017-18 में देश में डीएपी और दूसरे उर्वरकों का उत्पादन तकरीबन 14 फीसदी बढ़ा. क्रेडिट रेटिंग एजेंसी इकरा (आईसीआरए) के मुताबिक देश में उर्वरकों की बिक्री में साल 2017-18 में करीब 2 फीसदी की वृद्धि दिखी. देश की बीज इंडस्ट्री को लेकर भी इकरा ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि देश का घरेलू बीज उद्योग अगले पांच साल में दोगुना हो जाएगा. एजेंसी के मुताबिक देश में सब्जी उत्पादन की मांग भी बढ़ी ऐसे में हाइब्रिड बीज का बाजार भी बढ़ेगा.
ये सारे आंकड़ें बताते हैं कि कृषि पर निर्भर रहने वाले इन सारे उद्योगों को पिछले सालों में मुनाफा ही हुआ है. सवाल ये है कि जब सारी कंपनियां लाभ कमा रही हैं तो देश के किसान को क्यों नुकसान हो रहा है? क्यों कर्ज में डूब कर भारतीय किसान आत्महत्या को मजबूर हो रहे हैं?
उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के किसान प्रेम सिंह कहते हैं, "आज तक देश में कोई भी बीज कंपनी, ट्रैक्टर कंपनी, खाद बनाने वाली कंपनी घाटे में नहीं गई लेकिन उसे खरीदने वाला किसान हमेशा घाटे में रहता है. दूध, चावल, चना, गेहूं उगाने वाला परेशान है. लेकिन दूध से पनीर बनाने वाला, चने से दाल बनाने वाले को फायदा ही होगा. बात यही है कि किसान की न तो इटपुट पर कोई आत्मनिर्भरता है और न ही आउटपुट पर."
मैनेजमेंट का सिंद्धात
कंपनियों के मुनाफे से जुड़े से इस पूरे खेल को मैनेजमेंट के मशहूर सिंद्धात पोर्टर्स फाइव फोर्सेस से भी समझा जा सकता है. ये सिद्धांत कहता है कि किसी उद्योग का मुनाफा मुख्य रूप से पांच कारणों पर निर्भर करता है. पहला कारण है होता है सप्लायर (आपूर्तिकर्ता) के मुकाबले ग्राहक की मोलभाव करने की क्षमता, वितरकों के मुकाबले कस्टमर की मोलभाव करने की क्षमता, उद्योग के अंदर प्रतिस्पर्धा, नए प्रतिस्पर्धियों के लिए जगह और किसी अन्य प्रोडक्ट का बाजार में आना. किसान की स्थिति इसमें सबसे खराब है. कृषि के लिए अतिआवश्यक खाद और मशीनरी के दाम कम कराना उसके बस के बाहर है. लेकिन प्रतिस्पर्धा कड़ी बनी हुई है.
उद्योग के साथ सरकार
प्रेम सिंह मानते हैं कि साल 1960 के बाद से खेती में सरकार का हस्तक्षेप बढ़ा है. उन्होंने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, "सरकार किसानों को लगातार यह कहती रही कि यूरिया डालो तो ये छूट मिलेगी, ट्रैक्टर खरीदो तो ये छूट मिलेगी, ये बीज लो, गायों का आर्टिफिशयल इंसेमिनेशन करा लो, ज्यादा उत्पादन होगा. सरकारें किसानों को प्रभावित करने के लिए लोभ देती रहीं और किसान भी करता रहा. अंत में उसका न तो बीज बचा, न खाद रही, न देसी नस्ल के जानवर रहे तो सरकार ने कह दिया कि किसान अपने कारणों से परेशान है." सिंह कहते हैं, "सरकार आज भी किसानों के साथ नहीं बल्कि उन उद्योगों के साथ खड़ी है जिनका ग्राहक किसान है. मसलन डीएपी-यूरिया कंपनियों को ले लीजिए, उन्हें किसानों के नाम पर छूट दी जा रही है, लेकिन सीधे-सीधे किसान को छूट नहीं मिलती. सरकार खड़ी इन उद्योगों के साथ है लेकिन नाम लेती है किसान का."
इकोनॉमिक मॉडल की खामी
कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा इसे देश के इकोनॉमिक मॉडल की खामी मानते हैं. शर्मा कहते हैं, "कंपनियों का ही फायदा है. क्योंकि पूरा इकोनॉमिक मॉडल ही ऐसा है, जिसमें नीचे से पैसा निकाल कर ऊपर के उद्योगों को फायदा पहुंचाना है. ऐसे में जब हम किसान से अधिक खाद, अधिक उर्वरक, ज्यादा से ज्यादा मशीन और बीज का प्रयोग करने के लिए कहते हैं तो इसका सीधा मतलब है कि हम नीचे से पैसा निकाल कर कंपनियों तक पहुंचा रहे हैं."
राजनीतिक दल स्वराज इंडिया के संस्थापक योगेंद्र यादव मानते हैं कि अब तक भारतीय कृषि की सफलता और विफलता को उत्पादन के संदर्भ में आंका गया है. डीडब्ल्यू से बातचीत में यादव ने कहा, "जब उत्पादन बढ़ जाता है तो मंत्री खुश होकर कहते हैं कि भारतीय कृषि बहुत अच्छी अवस्था में है. जबकि हकीकत ये है कि जब उत्पादन बढ़ जाता है तब उत्पादक की हालत खराब हो जाती है. उत्पादन बढ़ता है तो पूरा कॉरपोरेट सेक्टर फायदे में जाता है. फसलों के सही दाम नहीं मिलते तो जाहिर है कि किसान घाटा खाता है."
बंधक बनता किसान
योगेंद्र यादव इसके लिए तीन कारणों को जिम्मेदार मानते हैं. उन्होंने कहा, "भारत में जो खेत है उनका औसतन आकार बहुत छोटा है, अधिकतर छोटी जोत के खेत हैं. वहीं सरकारों की नीतियां ऐसी रही हैं जिसमें जोर इस बात पर है कि उपभोक्ता को सस्ता खाद्यान्न मिल जाए, फिर चाहे इसे पैदा करने वाले किसान बिक जाए. दरअसल सरकार ने जानबूझ कर इसके दाम दबा कर रखे हैं, और सारा बोझ किसान पर डाल दिया गया है. न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के मामले में सरकार ने हाल में घोषणा की है कि वह किसानों को उनकी फसल की लागत का कम से कम डेढ़ गुना मूल्य देगी, लेकिन यहां भी चालाकी दिखाते हुए लागत की परिभाषा ही बदल दी गई है. किसान संगठनों ने यह बात पकड़ ली है जो इन्हें अखर रही है. इंडस्ट्रीज को सरकार की सब्सिडी मिलती है, जो कृषि क्षेत्र पर निर्भर नहीं करती. सारी सब्सिडी सरकार के बजट से जाती है. आज किसान एक बंधक है, वह ऐसी खेती का आदी हो गया है जहां नुकसान से बचने के लिए उसे फर्टिलाइजर यूरिया डालना ही पड़ता है तो जाहिर है कि ये कंपनियां मुनाफे में रहेंगी."