किस तरफ ले जाएगा ईरान को प्रतिबंधों का जाल
१० अगस्त २०१८अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप दुनिया के उन गिने चुने नेताओं में हैं जो अपनी तमाम बड़बोलियों के बावजूद चुनावी वादे निभाते हैं. ईरान से पश्चिमी देशों और अमेरिका के बीच हुए न्यूक्लियर डील से बाहर आने का वादा भी इनमें से एक था जिसे उन्होंने पूरा कर दिया. सवाल ये है कि अब क्या ईरान फिर वहीं पहुंच गया है जहां से निकलने के लिए उसने 2015 में कदम बढ़ाए थे.
न्यूक्लियर डील के बाद अमेरिका ने ईरान पर लगे प्रतिबंधों में ढील देनी शुरू की जिसका नतीजा यह हुआ कि ईरान के अरबों डॉलर जो जगह जगह फंसे थे वो उसे वापस मिलने लगे. तेल के निर्यात में तेजी आ गई और ईरान की अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था में शुमार हो गई. दुनिया भर की तमाम निजी कंपनियों ने ईरान में अपनी परियोजनाएं शुरू करने का एलान किया. लंदन के किंग्स कॉलेज में अंतरराष्ट्रीय राजनीति पढ़ाने वाले प्रोफेसर हर्ष पंत कहते हैं, "अगर आप नाम लें तो बोईंग जैसी कंपनियों ने भी ईरान में अपनी परियोजना शुरू करने में दिलचस्पी दिखाई."
हालांकि ईरान में जमीनी स्तर पर बदलाव करने में अभी वक्त लगना था, हां इतना जरूर था कि उसके लिए कोशिशें शुरू हो गई थीं. ये कोशिशें परवान चढ़तीं उससे पहले ही अमेरिका में बदलाव की हवा चलने लगी और ट्रंप के सत्ता में आते ही आशंकाएं उठने लगीं. जिन निजी कंपनियों ने ईरान में अपनी परियोजनाएं लगाने का एलान किया था उनकी चाल धीमी पड़ गई. हर्ष पंत बताते हैं, "जब अमेरिकी प्रशासन ने प्रतिबंधों की चर्चा शुरू की तो निजी कंपनियों को ईरान में फंसने का डर सताने लगा उन्होंने अपना निवेश रोक दिया जिसका नतीजा यह हुआ कि ईरानी मुद्रा कमजोर पड़ गई, चालू खाते का घाटा बढ़ गया और ईरान की अर्थव्यवस्था जिन बुनियादों पर टिकी थी वो कमजोर से और कमजोर होने लगी."
अमेरिका जब इस करार से बाहर हो रहा था तब पश्चिमी देशों ने इस पर बने रहने का फैसला किया. हालांकि अमेरिकी विरोध के बीच किसी भी देश के लिए ईरान से कारोबारी रिश्ता बना कर रखना आसान नहीं है. आखिरकार अंतरराष्ट्रीय कारोबार का तंत्र चलता है डॉलर से और अमेरिका ने ईरान से डॉलर की खरीद बिक्री पर पूरी तरह रोक लगा दी है. ना सिर्फ ईरान के साथ कारोबार करने वाली कंपनियों पर प्रतिबंध लगाने की धमकी दी गई है बल्कि उन कंपनियों पर भी जो ईरान के साथ कारोबार करने वाली कंपनियों से कारोबार करती हैं.
हर्ष पंत का कहना है, "पश्चिमी देश, चीन और भारत या दूसरे देश जो ईरान से कारोबार करना चाहते हैं उसका सबसे बड़ा जरिया तो निजी कंपनियां हैं. अब जब कंपनियां वहां नहीं जाएंगी या उनके जाने में बाधा होगी तो फिर कारोबार कैसे होगा." जर्मनी की मशहूर कंपनी डाइमलर ने ईरान में अपना प्लांट लगाने की तैयारी की थी लेकिन प्रतिबंधों की घोषणा के बाद इसे रोक दिया गया है. हर्ष पंत के मुताबिक, "यूरोपीय संघ या भारत के लिए खासतौर से इस स्थिति से जूझना ज्यादा मुश्किल है. यह देश आपस में मिल कर भी इस समस्या का कोई तुरत फुरत समाधान नहीं निकाल सकते."
ऐसे में ईरान की अर्थव्यवस्था की मुश्किलें बढ़ेंगी. ईरान का मध्यवर्ग पहले ही बेचैन है. देश में सत्ता परिवर्तन के बावजूद उसकी हसरतें पूरी नहीं हुई और जमीनी स्तर पर मुश्किलों का दौर अभी और बढ़ने की आशंका है. समस्या यह है कि अगर विरोध प्रदर्शनों का ज्वार बढ़ता है तो देश का कट्टरपंथी वर्ग और मजबूत होगा और हसन रोहानी जैसे नेताओं की परेशानी बढ़ेगी जो उदार माने जाते हैं. ईरान के लोगों के लिए तो यह एक मुश्किल घड़ी है लेकिन अमेरिका क्या प्रतिबंधों के जरिए लोगों को सत्ता परिवर्तन के लिए उकसा रहा है. हसन रोहानी तो कह भी चुके हैं कि अमेरिका ईरान की जनता को बांटने की कोशिश में है.
डॉनल्ड ट्रंप ने हाल ही में उत्तर कोरिया के नेता किम जोंग उन से मुलाकात की है और वो हसन रोहानी से भी मिलने की इच्छा जता चुके हैं. एक तरफ प्रतिबंधों का घेरा और दूसरी तरफ बातचीत की इच्छा. दोनों के बीच कोई सामंजस्य तो दिख नहीं रहा ऐसे में आगे क्या हो सकता है? मौजूदा हाल में ईरान का कोई धड़ा अमेरिका से बातचीत में बहुत दिलतचस्पी या भरोसा दिखाएगा इसकी उम्मीद भी कम ही है. इस्लामिक देश में सर्वोच्च नेता अयातोल्लाह खमेनेई का वरदहस्त ही सत्ता की सीढ़ी है. उदार नेता कमजोर पड़ेंगे तो फिर कट्टरपंथियों को बातचीत की टेबल पर कौन लाएगा?
बातचीत या मुलाकात कब होगी यह अभी तय नहीं है लेकिन प्रतिबंधों का दूसरा जत्था नवंबर में लागू होगा यह तय कर दिया गया है. हर्ष पंत कहते हैं, "तनाव बढ़ने के अलावा और कोई आसार फिलहाल तो नजर नहीं आ रहे."
निखिल रंजन