इसलिए बीजेपी जीती यूपी का दंगल..
११ मार्च २०१७पहली, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अब भी लोगों की पहली पसंद बने हुए हैं. दूसरी, मुसलमानों के बिना भी प्रदेश में सरकार बनायी जा सकती है, और तीसरी जाति और धर्म अभी भी प्रभावी हैं. भाजपा की जीत में हमेशा की तरह मुसलमान वोट का बंटना भी सहायक रहा.
परिणाम अप्रत्याशित नहीं कहे जा सकते बल्कि एसपी और बीएसपी ने दीवार पर लिखी इबारत नहीं पढ़ी. पिछली बार 2012 में भाजपा 47 सीट जीती थी और उसका 15 प्रतिशत वोट शेयर था. इस बार उसका वोट शेयर 40 प्रतिशत के पार जा रहा है. एसपी ने 2012 में 224 सीट जीती थी और उसका वोट शेयर 29.13 प्रतिशत था जो अब घट कर 22 प्रतिशत रहने की उम्मीद हैं.
बीएसपी ने पिछली बार 80 सीटें जीती थीं और उसका वोट शेयर 25.91 प्रतिशत था जो अब गिर कर 21.90 प्रतिशत हो रहा है. कांग्रेस ने 2012 में 28 सीटें जीती थी और उसे 11.65 प्रतिशत वोट मिले थे जो इस बार लगभग आधे रहने की उम्मीद है. भाजपा ने 2014 के आम चुनाव में अपने शानदार प्रदर्शन को लगभग बरकरार रखा जब उसे 40 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले थे.
विभिन्न दलों के हार जीत के अलग कारण रहे. एक नजर विभिन्न पार्टियों के कारणों पर.
बीजेपी
इस चुनाव में ध्रुवीकरण तीन तरह से दिखा: सांप्रदायिक, जातिगत और आर्थिक. अपने सबसे बड़े चेहरे नरेंद्र मोदी के साथ बीजेपी चुनाव में उतरी. एक बात विपक्षी भी मानते हैं कि मोदी जैसा वक्ता इस समय कोई नहीं है.
कैराना पलायन, बूचड़खाने, रमजान-दिवाली में बिजली का आना, कब्रिस्तान और श्मशान जैसे मुद्दे सामने लाये गये. उसके बाद अमित शाह का कसाब वाला बयान भी आ गया. इस सबसे ज्यादा फर्क इस वजह से नहीं पड़ने वाला था क्योंकि मुसलमान यूं भी बीजेपी को वोट नहीं देता लेकिन इसने ध्रुवीकरण को जिंदा रखा.
सबसे बड़ी बात जो बीजेपी की जीत में सहायक हुई वो है जातिगत गोलबंदी. उत्तर प्रदेश में जाति का हमेशा से बोलबाला रहा है. बीजेपी ने इत्मीनान से गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलित को निशाने पर लिया. इसके लिए अगर उसे दल बदलुओं को टिकट देना पड़ा तो भी परहेज नहीं किया.
प्रदेश में पार्टी की कमान केशव मौर्या को दी गयी जो खुद पिछड़े समुदाय से हैं. इसके अलावा 70 से अधिक जातियों वाले एक अलग अति पिछड़े समुदाय को अपने पाले में किया गया. बीजेपी के गठबंधन भी इसी ओर रहे. राजभर समुदाय की पार्टी भारतीय समाज पार्टी और कुर्मियों के समर्थन वाले अपना दल (सोनेलाल) के लिए सीटें छोड़ी गयीं.
नोटबंदी को विपक्ष चाह कर भी मुद्दा नहीं बना पाया. बल्कि इससे लोग बीजेपी के करीब आ गए क्योंकि ये राष्ट्रहित में उठाया गया कदम माना गया. आम लोगों ने भी अपनी परेशानी को चुनाव में नहीं जाहिर होने दिया.
इस सबके अलावा मोदी का कौशल सब पर भारी रहा. अपने ऊपर हुए हमलों को उन्होंने ढाल बना लिया. लाख आक्रमण के बावजूद वो बनारस में डटे रहे. चुनाव को उन्होंने अपने ऊपर केंद्रित कर लिया और जाहिर हैं उनके सामने टिकने की अभी किसी की हैसियत नहीं थी.
समाजवादी पार्टी
भले सब कहें कि समाजवादी पार्टी में हुई उठापटक ने अखिलेश यादव को कमजोर कर दिया लेकिन हुआ है इसका ठीक उल्टा. एसपी की लड़ाई में अखिलेश मजबूत और दमदार हो गए, पार्टी उनके हाथ में आ गयी. वह साढ़े चार साल कमजोर मुख्यमंत्री की छवि से बाहर निकल आये. न ही उनका यादव वोट बैंक फिसला. बल्कि मुलायम को अब उनका वोटर सुनने को तैयार नहीं रहा, शायद इसी कारण किसी उम्मीदवार ने उनकी एक भी मीटिंग नहीं मांगी. लेकिन अखिलेश चुनाव में सफल नहीं हुए जिसके अलग कारण रहे.
अखिलेश ने लाख कोशिश की कि चुनाव में ध्रुवीकरण न हो और चुनाव घसीट कर विकास के मुद्दे पर ले जाये, लेकिन इसमें सफल नहीं हुए. अब भी उत्तर प्रदेश के लोगों के डीएनए में जाति और धर्म हावी हैं. अपनी चुनावी रणनीति में अखिलेश ने अपने कोर वोटर मुस्लिम से दूरी रखी, कहीं पर मुसलमान शब्द का नाम नहीं लिया, इससे मुसलमान भी बहुत उत्सुक नहीं हुआ. मुज़फ्फरनगर दंगे का असर रहा और एक बड़ी तादाद में मुसलमान इस वजह से उनसे हटा.
अखिलेश के लिए सबसे कमजोर कड़ी खराब कानून व्यवस्था साबित हुई. डायल 100 तब शुरू हुई जब चुनाव चरम पर था. इससे ज्यादा कवरेज तो गायत्री प्रजापति को मिली कि वह पकड़े नहीं गए. मोदी के हमलों का उनके पास कोई जवाब नहीं रहा. कई बार प्रेस कांफ्रेंस की लेकिन हालात संभल नहीं पाए. अखिलेश के कांग्रेस से गठबंधन पर सवाल उठेंगे लेकिन उससे कोई खास नुकसान नहीं हुआ. ये बात पहले ही तय थी कि वह अपना कोर वोट यादव और मुसलमान कांग्रेस को नहीं ट्रांसफर करवा पाएंगे और वही हुआ.
गठबंधन करके उन्होंने मुसलमानों के बिखराव को रोकने की कोशिश की. इसके अलावा अखिलेश ने चुनाव मैनेजर प्रशांत किशोर पर हद से ज्यादा भरोसा कर लिया. प्रशांत किशोर कोई करिश्मा नहीं कर पाए. एक बात छोटी सी, लेकिन घाव गहरा कर गयी. अखिलेश और उनके परिवार की छवि ऐसी बन गयी कि वो नरेंद्र मोदी और भाजपा के प्रति नरमी रखते हैं. मोदी का सैफई में शादी में आना और रामगोपाल का भाजपा के नेताओं से मिलना, इन बातों ने गैर भाजपाई वोटर खासकर मुसलमानों में उनके भ्रम को तोड़ दिया.
अखिलेश ने अपने लगभग 175 पुराने विधायक और मंत्रियों को टिकट दे दिया और ज्यादातर हार गए, कोई बदलाव शायद पक्ष में जाता. अब आगे अखिलेश को पार्टी नहीं बल्कि अपनी कुर्सी बचानी होगी, सपा के परिवार कर झगड़ा फिर शुरू होने जा रहा है और अखिलेश को फिर एक बार सबसे निपटना होगा. ध्यान रहे इस बार वो सत्ता से बाहर हो कर सबसे लड़ेंगे.
बहुजन समाज पार्टी
एकला चलो की रणनीति पर काम करते हुए बीएसपी ने सभी 403 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ा. मायावती बदली नहीं, बल्कि बहुत बदलीं. पार्टी में सौम्य हो गयीं और खुल कर मुस्लिम कार्ड खेला. सबसे ज्यादा टिकट मुस्लिम को दिए, जातिगत समीकरण साधने की कोशिश की. सोशल मीडिया, इलेक्शन सांग, विजुअल्स, प्रोमो भी खूब चलाये. बहुत ज्यादा प्रेस कांफ्रेंस की, नरेंद्र मोदी पर सीधे सबसे अधिक हमलावर रहीं. लेकिन वो कई जगह फेल हो गयी.
दलितों में गैर जाटव विमुख रहा, ओबीसी उनकी तरफ आया नहीं. मौर्या, शाक्य और सैनी जैसी कई जातियां स्वामी प्रसाद मौर्या सरीखे नेताओं को पार्टी से बाहर करने से हट गयीं. सवर्ण खासकर ब्राह्मण इस बार करीब नहीं फटके. इसके अलावा मायावती के सबसे मजबूत पक्ष बेहतर कानून व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लग गया, जब मुख्तार अंसारी को शामिल कर किया.
अब मायावती के आगे बहुत बड़ी चुनौती है कि अपनी पार्टी की कम होती साख और लोकप्रियता को दोबारा वापस पायें. दलितों का भी रुझान अब उनसे विमुख हो रहा है ऐसे में अब नए सिरे से उन्हें कवायद करनी होगी.
कांग्रेस
इनके पास खोने के लिए कुछ नहीं था, न ही जमीन और न ही वोट. सीटें भले कम हो गयी लेकिन कांग्रेस दशकों बाद इस चुनाव में छाई रही. कारण रहा सपा से गठबंधन. लखनऊ में कहावत हैं कांग्रेस के पास प्रदेश में नेता ज्यादा और कार्यकर्ता कम हैं. गठबंधन भी इसी कारण रहा. हालत ये रही की 105 सीटों पर लड़ने लायक उम्मीदवार नहीं मिले और सपा से उधार लेने पड़े. जब कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं था तो हार का गम भी नहीं है.