तेंदूपत्ता तोड़ने से पहले होगा मजदूरों का कोरोना टेस्ट
२४ अप्रैल २०२०भारत में कोरोना वायरस के कारण लागू किए लॉकडाउन को एक महीना हो गया है. महामारी के दौर में लोगों के सामने अब रोजीरोटी का संकट गहराता जा रहा है. इस बीच प्रवासी मजदूरों और शहर में रह रही गरीब जनता की दिक्कतें तो जरूर सुर्खियों में रहीं लेकिन देश के सुदूर पिछड़े इलाकों में रहने वाले आदिवासी समुदाय की आवाज मीडिया में नहीं आ पाई है.
कहां बेचें अपनी उपज?
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में नकुलनार गांव की सरपंच रंजना कश्यप की फिक्र हर बीतते दिन के साथ बढ़ रही है. देश के इस सुदूर हिस्से में आदिवासियों के लिए यह समय वन उपज बटोरने का है लेकिन कोरोना संकट के कारण कारोबार ठप्प है. महुआ, तोरा, गोंद, लाख और इमली जैसी महत्वपूर्ण उपज को ग्रामीण बटोर तो रहे हैं लेकिन उसे बेचना मुश्किल हो गया है. इसकी वजह बाजारों का बंद होना है जहां ग्रामीण अपनी ये उपज बेचते हैं.
रंजना कश्यप ने डीडब्लू को बताया, "हम महुआ बटोरने का काम किसी तरह धीरे-धीरे कर रहे हैं. इसके लिए हम एक पेड़ पर सिर्फ एक ही व्यक्ति को चढ़ने की इजाजत दे रहे हैं ताकि आपस में दूरी बनी रहे और बीमारी न फैले. इस वजह से अभी यह काम काफी धीमी रफ्तार से हो रहा है लेकिन बड़ी समस्या इस उपज को बेचने की है.”
आदिवासी समुदाय भारत की कुल आबादी का करीब 10 प्रतिशत है यानी 12 करोड़ से अधिक. इस आबादी का एक बड़ा हिस्सा मध्य भारत के राज्यों छत्तीसगढ़, उड़ीसा, मध्यप्रदेश और झारखंड में है. नकुलनार की तरह ही देश के तमाम आदिवासी इलाकों में अभी आदिवासी परेशान हैं. रंजना मारिया आदिवासी हैं. वे बताती हैं, "लॉकडाउन से पहले जो थोड़ी बहुत उपज हम बटोर पाए थे, बाजार बंद होने के कारण उसे भी नहीं बेच पा रहे हैं. ग्रामीणों ने जो भी महुआ इकट्ठा किया उसे औने-पौने दामों में बेचना पड़ रहा है.”
छत्तीसगढ़ सरकार कहती है कि उसने इस बार महुआ की सरकारी खरीद 30 रुपये प्रति किलो में करने का फैसला किया है. रंजना के मुताबिक जिस महुआ के लिए प्रतिकिलो ग्रामीणों को 25 से 30 रुपये प्रति किलो तक मिल जाते थे, उसे ठेकेदारों और व्यापारियों को आधी कीमत पर बेच रहे हैं क्योंकि सरकारी खरीद हो ही नहीं पा रही. इसी तरह दंतेवाड़ा के समेली गांव के मासाराम कहते हैं कि इमली का काम भी ठंडा पड़ा है क्योंकि हर हफ्ते जगह-जगह लगने वाले हाट-बाजारों पर पाबंदी है और उसे कहां बेचा जाए यह समस्या खड़ी हो गई है. कोरोना संक्रमण से बचने के लिए गांवों की सरहदें भी सील कर दी गई हैं. किसी को भीतर नहीं घुसने दिया जा रहा है.
दंतेवाड़ा में रह रही सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी कहती हैं, "हर साल ग्रामीण इस वक्त बटोरी गई कुछ उपज अपने पास इस्तेमाल के लिए रख लेते थे और बाकी बाजार में बेच देते थे लेकिन अभी ये आदिवासी परेशान हो रहे हैं. इन्हें पानी और तूफान जैसी मौसमी मार का डर है और पैसों की जरूरत भी है क्योंकि इसी वक्त यह ग्रामीण इन उपजों को बेचकर पशु खरीदते हैं और खेती में खर्च करते हैं.”
उधर प्रशासन का दावा है कि कुछ आदिवासी गांवों में वन उपज खरीदने का काम शुरू कर दिया गया है, हालांकि अधिकारी मानते हैं कि इस साल सभी जगहों में अभी तक खरीद शुरू नहीं हो पाई है. दंतेवाड़ा के जिलाधिकारी टोपेश्वर वर्मा का कहना है, "अभी तक करीब 2 करोड़ रुपये की उपज खरीदी भी जा चुकी है. सरकार ने सभी वन उपजों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया है. हर साल अप्रैल के मध्य तक खरीद शुरू होती थी. इस साल खरीद में देरी हो रही है. अप्रैल के अंत तक हमारे जिले (दंतेवाड़ा) में और मई से बाकी सभी जिलों में खरीद शुरू हो जाएगी.”
तेंदूपत्ता की खरीद पर टिकी उम्मीद
कमाई के हिसाब से आदिवासी इलाकों की सबसे बड़ी उपज है तेंदूपत्ता - जिसे बीड़ी उद्योग में इस्तेमाल किया जाता है. आदिवासी इलाकों में तेंदूपत्ता की खरीद अप्रैल के तीसरे हफ्ते में शुरू हो जाती है और इससे होने वाली कमाई ग्रामीण परिवारों के साल भर की पूंजी का सबसे बड़ा हिस्सा बनाती है. एक सामान्य आदिवासी परिवार की 25 से 30% वार्षिक कमाई इसी से होती है. इस साल तेंदूपत्ता की उपज अच्छी हुई है लेकिन उसे तोड़ने का काम अभी शुरू नहीं हो पाया है.
आदिवासी नेता मनीष कुंजाम ने डीडब्लू को बताया कि तेंदूपत्ता के एक मानक बोरा (1000 गड्डियों का संग्रह) की कीमत पांच हजार से बीस हजार तक हो सकती है. कुंजाम ने बताया, "कोंटा और बीजापुर जो छत्तीसगढ़ के सीमावर्ती इलाके हैं, वहां अप्रैल के अंत में तेंदूपत्ता की खरीद शुरू हो जाती है लेकिन कोरोना की वजह से अब तक संशय बना हुआ है क्योंकि इसे खरीदने वाले ठेकेदार चाहते हैं कि खरीद के वक्त उनके (ठेकेदारों के) मजदूरों को गांवों में आने दिया जाए.”
तेंदूपत्ता की पहचान और उसकी पैकिंग में निपुण अधिकांश मजदूर महाराष्ट्र के रहने वाले हैं, जो अभी कोरोना का गढ़ बना हुआ है. ऐसे में इन लोगों का गांव में प्रवेश होने से संक्रमण का खतरा है. प्रदेश सरकार ने कहा है कि तेंदूपत्ता तोड़ने के लिए राज्य के बाहर से 1245 मजदूर आएंगे और सभी का कोरोना टेस्ट होगा. छत्तीसगढ़ के वन मंत्री मोहम्मद अकबर ने कहा, "किसी मजदूर को बिना परीक्षण के राज्य में नहीं घुसने दिया जाएगा. इस काम में 13 लाख लोगों को रोजगार मिलेगा और कुल 650 करोड़ का भुगतान किया जाएगा. संक्रमण से बचने के लिए 300 करोड़ रूपये खर्च करने की अनुमति सरकार से मांगी है.”
महत्वपूर्ण है कि मध्य भारत के आदिवासी इलाकों में माओवादियों का बड़ा प्रभाव है. दूरदराज के इन गांवों में आदिवासी और ठेकेदार माओवादियों के फरमान की अनदेखी नहीं कर पाते. दंतेवाड़ा, सुकमा और बीजापुर समेत पूरे बस्तर में माओवादियों का काफी प्रभाव है. नक्सलियों ने जनता से सार्वजनिक वाहनों में यात्रा न करने और मजदूरी के लिए फिलहाल गांव से बाहर न जाने को कहा है. उन्होंने सरकार से जनता को मास्क वगैरह उपलब्ध कराने और कोरोना की जांच संबंधी सुविधाएं देने को भी कहा है. माओवादियों ने यह फरमान भी जारी कर दिया है कि स्वास्थ्यकर्मियों के अलावा कोई भी और सरकारी कर्मचारी बाहर से इन इलाकों में न आए. ऐसे में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि अंदरूनी गांवों में तेंदूपत्ता और तमाम वन उपजों की खरीद पर नक्सलियों का क्या रुख रहता है.
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