असम में चुनावी नतीजों से पहले ही बढ़ा खरीद-फरोख्त का खतरा
१४ अप्रैल २०२१पूर्वोत्तर इलाके के कई राज्यों में थोक भाव से दल बदलने की वजह से रातों रात सरकार बदलती रही है. लेकिन पूर्वोत्तर का प्रवेशद्वार कहा जाने वाला इलाके का सबसे बड़ा राज्य असम अब तक खरीद-फरोख्त की राजनीति से अछूता था. लेकिन राज्य में इस बार एनआरसी और सीएए की छाया तले हुए विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ और विपक्षी गठबंधन के बीच कांटे की टक्कर मानी जा रही है. ऐसे में खरीद-फरोख्त का खतरा बढ़ गया है. बीजेपी के नेता हिमंत बिस्वा सरमा पहले ही कह चुके हैं कि हर विपक्षी पार्टी में उनके लोग चुनाव लड़ रहे हैं.
विधायकों को खोने की आशंका के मद्देनजर कांग्रेस गठबंधन के कई उम्मीदवारों को जयपुर के होटल में रखा गया है तो उसकी सहयोगी बोड़ो पीपुल्स फ्रंट ने अपने उम्मीदवारों को विदेश भेज दिया है. हालांकि बीजेपी ने कांग्रेस, एआईयूडीएफ और बीपीएफ उम्मीदवारों को राज्य से बाहर भेजने को नाटक करार दिया है. लेकिन कांग्रेस का कहना है कि बीजेपी दोबारा सत्ता हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है. इसलिए पहले से सावधानी बरतना बेहतर है.
असम विधान सभा के चुनाव
असम में तीन चरणों में 126 सीटों के लिए हुए विधानसभा चुनाव को बीजेपी की अगुवाई वाले सत्तारूढ़ गठबंधन और कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्षी गठबंधन के बीच कांटे की टक्कर माना जा रहा है. तमाम सर्वेक्षणों में भी यह बात सामने आई है. ऐसे में राज्य की राजनीति में पहली बार विपक्ष दलों को अपने विधायकों की खरीद-फरोख्त का डर सता रहा है. कांग्रेस और उसके सहयोगी बदरुद्दीन अजमल की आल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) ने इसी खतरे को भांपते हुए पहले ही अपने कम से कम 20 उम्मीदवारों को कांग्रेस शासित राजस्थान की राजधानी जयपुर के एक रिसॉर्ट में भेज दिया है.
दूसरी ओर, हाल तक बीजेपी सरकार में शामिल रहा बोड़ो पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) अबकी विपक्षी गठबंधन में है. उसने तो एक कदम आगे बढ़ते हुए अपने 10 उम्मीदवारों को विदेश दौरे पर भेज दिया है. वर्ष 2016 में बीपीएफ ने बोड़ो-बहुल इलाकों की 12 सीटें जीती थी. लेकिन बोड़ो स्वायत्त परिषद के चुनावी नतीजों के बाद बीजेपी ने बीपीएफ से नाता तोड़ कर दूसरी पार्टी के साथ हाथ मिला लिया था. तीसरे चरण के मतदान से पहले बीपीएफ के तामुलपुर सीट के उम्मीदवार आरके बसुमतारी ने तो मैदान से हटने का फैसला करते हुए बीजेपी का दाम थाम लिया था. इस वजह से खरीद-फरोख्त का अंदेशा बढ़ा है.
चुनाव में एनआरसी और सीएए
असम में एनआरसी और सीएए ज्वलंत मुद्दे रहे हैं और विधानसभा चुनाव भी इससे अछूते नहीं रहे हैं. इसी खतरे को ध्यान में रखते हुए बीजेपी ने अपने घोषणापत्र और चुनाव अभियान के दौरान राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को दुरुस्त करने के अलावा असमिया अस्मिता, भाषा और संस्कृति की रक्षा पर सबसे ज्यादा जोर दिया था. लेकिन नागरिकता कानून के मुद्दे पर उसने आश्चर्यजनक रूप से चुप्पी साधे रखी. दरअसल उसे इस मुद्दे के बैकफायर करने का संदेह है.
ऊपरी असम में करीब 45 सीटों पर मूल असमिया लोगों यानी अहोम समुदाय का जबरदस्त असर है. नागरिकता कानून का सबसे ज्यादा विरोध उसी इलाके में हुआ था. अहोम समुदाय के लोगों को आशंका है कि सीएए के कारण बांग्लादेश से आने वाले बांग्लाभाषी लोगों को भी नागरिकता मिल जाएगी और इससे असमिया लोगों के वजूद, भाषा और संस्कृति पर खतरा पैदा हो जाएगा. यही वजह है कि भाजपा ने इस मुद्दे पर चर्चा ही नहीं की.
विपक्ष का जोर एनआरसी पर
दूसरी ओर, कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन ने सीएए और एनआरसी को ही प्रमुख मुद्दा बनाया था. इसके जरिए उसने ऊपरी असम के अहोम समुदाय के अलावा अल्पसंख्यकों को साधने का प्रयास किया था. राज्य के 27 में से नौ जिले अल्पसंख्यक बहुल हैं और कम से कम 49 सीटों पर इस तबके के वोट निर्णायक होते हैं. वर्ष 2016 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने इनमें से 22 सीटें जीती थीं. लेकिन तब कांग्रेस और एआईयूडीएफ के अलग-अलग चुनाव लड़ने की वजह से अल्पसंख्यक वोटों में विभाजन का फायदा उसे मिला था. इस बार यह दोनों साथ हैं. इसलिए पार्टी ने सीएए और इस पर सत्तारूढ़ पार्टी की चुप्पी को भुनाने का भरसक प्रयास किया है.
असम की राजनीति में क्षेत्रीय दलों की भूमिका अस्सी के दशक से ही अहम रही है. इस बार भी सीएए-विरोधी आंदोलन की कोख से उपजी दो नई पार्टियों, असम जातीय परिषद (एजेपी) और राइजोर दल (आरडी) ने हाथ मिलाया है. पहली बार चुनाव मैदान में उतरी इन पार्टियों के प्रदर्शन के बारे में कोई पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं है. लेकिन इनका बेहतर प्रदर्शन भाजपा के लिए नुकसानदेह हो सकता है.
राजनीतिक बहस में आरोप-प्रत्यारोप
असम में बीजेपी को खड़ा करने वाले दो ही बड़े नेता हैं, एक मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल और दूसरे कांग्रेस से बीजेपी में आए हेमंत बिस्वा सरमा. असम में सरमा को बीजेपी का चाणक्य कहा जाता है. लंबे समय तक कांग्रेस में रहने की वजह से पार्टी के नेताओं पर उनका खासा असर है. यही वजह है कि कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला से असम के उम्मीदवारों को राजस्थान भेजने की वजह पूछी गई तो उनका कहना था कि इसका जवाब हेमंत बिस्व सरमा और सर्बानंद सोनोवाल ही दे सकते हैं. इससे साफ है कि बीजेपी के यह दोनों नेता नतीजों से पहले ही कांग्रेस को डरा रहे हैं.
विपक्षी गठजोड़ के करीब तीन दर्जन उम्मीदवारों को राज्य से बाहर भेजने के बाद अब कांग्रेस अपने बाकी उम्मीदवारों को भी किसी सुरक्षित जगह भेजने पर विचार कर रही है. क्या खरीद-फरोख्त के डर से विधायकों को बाहर भेजा गया है? बीपीएफ नेता और मंत्री प्रमिला रानी ब्रह्म कहती हैं, "मौजूदा हालात में हम इसकी संभावना से इंकार नहीं कर सकते.” कांग्रेस विधायक और सदन में विपक्ष के नेता देबब्रत सैकिया कहते हैं, "हमें सावधानी बरतनी होगी. हम अपने उम्मीदवारों को अलोकतांत्रिक गतिविधियों से बचाने का प्रयास कर रहे हैं.” कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और लोकसभा सदस्य प्रद्युत बोरदोलोई कहते हैं, "हमारे गठबंधन के सहयोगी बीजेपी की घटिया चालों से अपने उम्मीदवारों को बचाने के लिए जरूरी कदम उठा रहे हैं. हमने गोवा और मणिपुर समेत कई राज्यों में देखा है कि बीजेपी सत्ता हासिल करने के लिए किस तरह जनादेश के साथ खिलवाड़ कर सकती है.”
बीजेपी का विपक्ष के आरोपों से इंकार
उधर, बीजेपी का दावा है कि विपक्ष के तमाम आरोप निराधार हैं. पार्टी ने भरोसा जताया है कि वह अपने सहयोगी दलों के साथ बहुमत हासिल कर दोबारा सत्ता में लौटेगी. प्रदेश बीजेपी प्रवक्ता सुभाष दत्त कहते हैं, "विपक्षी दलों में जो डर है उससे साफ है कि उनको अपने उम्मीदवारों पर भरोसा नहीं है. हार तय जानकर वह लोग ऐसी हरकतें कर रहे हैं. हमें उनके उम्मीदवारों की जरूरत नहीं है.” बीजेपी विधायक शिलादित्य देब कहते हैं, "आजकल खरीद-फरोख्त का काम ऑनलाइन भी होता है. अगर कोई उम्मीदवार खुश नहीं है तो सात तालों में बंद रखने पर भी वह भाग जाएगा. बीपीएफ के एक उम्मीदवार ने तो ऐन मतदान के पहले ही उम्मीदवारी वापस ले ली थी. इसके लिए कौन जिम्मेदार था?”
गौहाटी विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर अखिल रंजन दत्त कहते हैं, "मौजूदा परिस्थिति में सत्ता हासिल करने के लिए विधायकों की खरीद-फरोख्त का अंदेशा जायज है. ज्यादातर राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों का पार्टी के आदर्शों या राजनीतिक निष्ठा से कोई लेना-देना नहीं होता. पार्टी नेतृत्व का भी उन पर कोई नियंत्रण नहीं रहता. यह प्रवृत्ति असम के लिए नुकसानदेह तो है ही, जनादेश का भी अपमान है.”