असम के डिटेंशन सेंटरों में रहने वालों को अदालती राहत
१६ अप्रैल २०२०कोरोना वायरस का संक्रमण फैलने के बाद मार्च में पूर्वोत्तर राज्य असम के डिटेंशन सेंटरों में रहने वाले कैदियों के परिजनों और कई मानवाधिकार संगठनों ने इन सेंटरों में कथित तौर पर अमानवीय हालात में रहने वाले कैदियों को शीघ्र रिहा करने की गुहार लगाई थी. उन्होंने अंदेशा जताया था कि इन सेंटरों में भीड़-भाड़ की वजह से सोशल डिस्टेंसिंग के नियम का पालन करना संभव नहीं है. ऐसे में विदेशी घोषित लोगों में संक्रमण तेजी से फैलने का खतरा है. असम में कोरोना का पहला मामला हाल में सामने आया था. लेकिन अब ऐसे मरीजों की तादाद तेजी से बढ़ कर तीस के पार पहुंच गई है. अब तक राज्य में इससे एक व्यक्ति की मौत हो चुकी है.
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए कोरोना वायरस के मद्देनजर जेलों में भीड़ कम करने के लिए कुछ कैदियों को सशर्त जमानत या पैरोल पर रिहा करने का निर्देश दिया था. इसी आधार पर कुछ संगठनों ने अदालत का ध्यान डिटेंशन सेंटरों में रहने वालों की हालत की ओर दिलाया था. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, राज्य के छह डिटेंशन सेंटरों में फिलहाल 802 लोग रह रहे हैं. बीते साल नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजंस (एनआरसी) की अंतिम सूची से लगभग 19 लाख लोगों को बाहर रखा गया था. अब उनके सामने देश से बाहर खदेड़े जाने या फिर इन डिटेंशन सेंटरों में भेजे जाने का खतरा मंडरा रहा है.
सुप्रीम कोर्ट ने रखीं कुछ शर्तें
सुप्रीम कोर्ट ने बीते साल मई में इन डिटेंशन सेंटरों में तीन साल से ज्यादा समय हिरासत में बिता चुके लोगों को कड़ी शर्तों के साथ रिहा करने का आदेश दिया था. लेकिन तब ऐसे लोगों की रिहाई के लिए दो जमानतदारों के अलावा एक लाख रुपए के बांड की शर्त रखी गई थी. लेकिन इतनी बड़ी रकम का इंतजाम नहीं कर पाने की वजह से विदेशी घोषित कोई भी नागरिक बाहर नहीं आ सका था. अब मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.ए.बोवड़े की अध्यक्षता वाली तीन-सदस्यीय खंडपीठ ने इन सेंटरों में दो साल से ज्यादा समय से रह रहे सभी विदेशी नागरिकों को रिहा करने का आदेश पारित किया है. खंडपीठ ने 10 मई 2019 के आदेश का जिक्र करते हुए एक लाख के निजी मुचलके की रकम को घटा कर पांच हजार रुपए कर दिया है. साथ ही हिरासत में रहने की की न्यूनतम अवधि को भी तीन साल से दो साल कर दिया है.
असम स्थित संगठन जस्टिस एंड लिबर्टी इनीशिएटिव ने डिटेंशन सेंटरों में रहने वालों की तत्काल रिहाई की मांग में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी. उक्त याचिका में कहा गया था, "डिटेंशन सेंटरों में वायरस तेजी से पनप सकते हैं. वहां सफाई व्यवस्था में तत्काल सुधार संभव नहीं है. कैदियों को छोटी-छोटी कोठरियों में सोना पड़ता है औऱ वहां शौचालयों की तादाद भी कम है. ऐसे हालात में संक्रामक बीमारियां आसानी से फैल सकती हैं. इसके अलावा ऐसे माहौल में सोशल डिस्टेंसिंग भी संभव नहीं है.” याचिका में इन सेंटरों की तुलना ऐसे टाइम बम से की गई थी जो कभी भी फट सकते हैं.
लगे कैसे कैसे आरोप
इससे पहले इन सेंटरों में रहने वाले लोगों के परिजनों ने केंद्र और राज्य सरकार से कोरोना के खतरे को ध्यान में रखते हुए उनको तत्काल रिहा करने की मांग उठाई थी. शोणितपुर जिले के तेजपुर में बने एक डिटेंशन सेंटर में रहने वाले गुल मोहम्मद की पुत्री गुलबहार कहती है, "डिटेंशन सेंटर में लोगों को भेड़-बकरियों की तरह ठूंस कर रखा गया है. एक-एक कमरे में 50 लोग रहते हैं. ऐसे माहौल में मेरे पिता का वहां रहना खतरनाक है. वे पहले से ही कई बीमारियों से जूझ रहे हैं.”
ग्वालपाड़ा डिटेंशन सेंटर से कुछ दिनों पहले जमानत पर बाहर आने वाले एक व्यक्ति नाम नहीं छापने की शर्त पर बताते हैं, "वहां एक कमरे में 40 लोग रहते थे. हमें बेहद अमानवीय हालात में रहना पड़ता था. साफ-सफाई का बेहद अभाव है. वह बताते हैं कि एक कमरे में रहने वाले 40 लोगों के लिए एक ही शौचालय था. वहां डाक्टर जांच करने तो आते थे. लेकिन वह लोग अनुभवी नहीं थे. वह सिर्फ सिरदर्द और पेटदर्द का इलाज ही करते थे.”
राज्य में कोरोना का संक्रमण बढ़ने के बाद कई मानवाधिकार संगठन भी यह मांग उठा चुके हैं. एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के कार्यकारी निदेशक अविनाश कुमार ने बीते सोमवार को जारी अपने एक बयान में कहा था, "इन डिटेंशन सेंटरों में क्षमता से ज्यादा लोग रहते हैं. ऐसे में उनमें कोरोना के संक्रमण का खतरा बहुत बढ़ गया है. असम सरकार को इसका संज्ञान लेकर उन लोगों की तत्काल रिहाई की पहल करनी चाहिए.”
तेजपुर डिटेंशन सेंटर जिस शोणितपुर जिले में स्थित है, वहां के उपायुक्त मानवेंद्र प्रताप सिंह दावा करते हैं कि हिरासत में रहने वाले लोगों की सुरक्षा के तमाम जरूरी उपाय किए गए हैं. वह कहते हैं, "फिलहाल नए लोगों को डिटेंशन सेंटर में नहीं भेजा जा रहा है. डॉक्टर नियमित रूप से हर कैदी की जांच करते हैं. ऐसे में उनमें कोरोना वायरस का संक्रमण फैलने का कोई खतरा नहीं है.”
लंबे अरसे से विदशी घोषित किए गए नागरिकों के हक की लड़ाई लड़ रहे एडवोकेट अमन वदूद कहते हैं, "सुप्रीम कोर्ट का फैसला सराहनीय है. इससे पहले हम असम सरकार से लगातार इन लोगों को रिहा करने की अपील कर रहे थे. लेकिन उसने इस पर कोई ध्यान ही नहीं दिया.”
वदूद कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट को रिहाई के लिए हिरासत में रहने की अवधि को घटा कर एक साल कर देना चाहिए था. तब यह और बेहतर होता. उनका सवाल है कि अगर कोरोना के खतरे की वजह से सजायाफ्ता अपराधियों को अंतरिम जमानत या पैरोल पर रिहा किया जा सकता है तो बिना किसी अपराध के डिटेंशन सेंटरों में रहने वालो को रिहा करने में दिक्कत कहां है?
"ये लोग भाग कर आखिर कहां जाएंगे"
मानवाधिकार कार्यकर्ता हर्ष मंदर की टीम के सदस्य और राज्य में मानवाधिकारों पर शोध करने वाले अब्दुल कलाम आजाद कहते हैं, "डिटेंशन सेंटरों में रहने वालों के पास खाने और खाली बैठने के अलावा कोई काम नहीं है. वहां टीवी और अखबार नहीं जाते. उन लोगों के मनोरंजन की भी कोई सुविधा नहीं है. स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और इलाज के अभाव में कई युवा लोग भी दम तोड़ चुके हैं.”
मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सराहनीय है. दूसरी ओर, सरकार फिलहाल डिटेंशन सेंटरों में रहने वालों की रिहाई के लिए कायदा-कानून बनाने में जुटी है. उसके सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि रिहा होने के बाद अगर यह लोग गायब हो गए तो उनको कैसे तलाशा जाएगा? लेकिन एडवोकेट वदूद कहते हैं, "ऐसे लोग पांच-पांच पीढ़ियों से असम में रह रहे हैं. महज कुछ कागजात नहीं दिखा पाने की वजह से ही उनको डिटेंशन सेंटरों में रखा गया है. उनका भरा-पूरा परिवार है. वह लोग भाग कर आखिर कहां जाएंगे?” शीर्ष अदालत के फैसले ने इन सेंटरों में रहने वाले "विदेशियों” में उम्मीद की एक किरण तो पैदा कर ही दी है.
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