अरुणाचल मुद्दे पर केंद्र को नोटिस
२७ जनवरी २०१६इसके पहले देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अरुणाचल प्रदेश की स्थिति को "बेहद गंभीर" बताते हुए वहां के राज्यपाल जेपी राजखोवा को केवल पंद्रह मिनट में अदालत के सामने वह “गोपनीय” रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया था जिसमें उन्होंने केंद्र सरकार से राष्ट्रपति शासन लगाए जाने की सिफारिश की थी, क्योंकि उनकी राय में राज्य में संवैधानिक तरीके से सरकार चलाना संभव नहीं रह गया था. हालांकि अरुणाचल प्रदेश की घटनाएं इस बात का जीता-जागता सबूत हैं कि भारत में लोकतंत्र की जड़ें किस तरह लगातार कमजोर हो रही हैं और उन्हें कमजोर करने में किस तरह लगभग सभी राजनीतिक दल योगदान कर रहे हैं. लेकिन लगता है कि इस घटनाक्रम का एक सकारात्मक परिणाम भी निकलेगा और वह यह कि इस मामले की सुनवाई कर रही सुप्रीम कोर्ट की पांच-सदस्यीय खंडपीठ इस बात पर अपना फैसला सुनाएगी कि राज्यपाल को कितने और किस तरह के विवेकाधीन अधिकार प्राप्त हैं. इससे भविष्य में राज्यपालों के लिए इस फैसले की परिधि के भीतर काम करना अनिवार्य हो जाएगा और वे मनमाने ढंग से केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के राजनीतिक हित साधने वाले फैसले नहीं ले सकेंगे. कांग्रेस ने अपनी याचिका में यह प्रश्न उठाया है कि क्या राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह मंत्रिपरिषद की सलाह के बगैर स्वयं विधानसभा का सत्र बुला सके?
दरअसल इस समय अरुणाचल प्रदेश में असंतुष्ट विधायकों की खरीद-फरोख्त के जरिये चुनी हुई सरकार को हटा कर वैकल्पिक सरकार गठित करने का चिर-परिचित खेल खेला जा रहा है और इसमें राज्यपाल तटस्थ अंपायर की भूमिका निभाने के बजाय केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में काम कर रहे हैं. समस्या यह है कि चाहे कांग्रेस हो या भारतीय जनता पार्टी, विपक्ष में रहते हुए वे हमेशा संविधान, राज्यपाल के संवैधानिक पद की मर्यादा और संघीय ढांचे के संरक्षण की जरूरत की बात करती हैं लेकिन सत्ता में आते ही इन्हें भूल कर केवल अपने संकीर्ण पार्टी हितों को साधने में लग जाती हैं. अरुणाचल में यही हो रहा है. और वहां कांग्रेस का आचरण भी कोई आदर्श प्रस्तुत नहीं करता.
पिछले माह कांग्रेस के 47 विधायकों में से 21 ने विद्रोह कर दिया. इन्हें भाजपा के ग्यारह विधायकों ने तत्काल समर्थन दे दिया और इसके साथ ही विधानसभा के अध्यक्ष नबम रेबिया और राज्य के मुख्यमंत्री नबम तुकी को हटाने की मुहिम शुरू हो गई. सुप्रीम कोर्ट व्यवस्था दे चुका है कि किसी भी सरकार के बहुमत का फैसला केवल विधान सभा या लोक सभा में ही हो सकता है. विधानसभा का सत्र 14 जनवरी से शुरू होना था. विधायकों के विद्रोह को देखते हुए कांग्रेस सरकार को तत्काल यह सत्र कराना चाहिए था लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. तब राज्यपाल राजखोवा ने मंत्रिपरिषद की सलाह के बिना ही स्वयं 16 दिसम्बर को यह सत्र एक होटल में बुला डाला. इसमें विधानसभा के अध्यक्ष और मुख्यमंत्री को हटा दिया गया. इस तरह राज्य में संवैधानिक संकट पैदा कर दिया गया और इसे पैदा करने में खुद राज्यपाल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी.
सुप्रीम कोर्ट इस मामले की अगली सुनवाई संभवतः एक फरवरी को करेगा. लेकिन उसके पहले ही यह हो सकता है कि राज्यपाल विद्रोही कांग्रेस विधायकों के नेता को नई सरकार के गठन के लिए आमंत्रित करके सरकार बनवा दें और शक्तिपरीक्षण के लिए विधानसभा का सत्र बुलाएं. इसमें सबसे पहले अध्यक्ष के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित कराया जाए और फिर नए विधानसभा अध्यक्ष की देखरेख में सरकार सदन में विश्वास प्रस्ताव पेश करे. यदि 21 विद्रोही कांग्रेस विधायक और 11 भाजपा विधायक एक साथ रहे तो नई सरकार को अपना बहुमत सिद्ध करने में बहुत दिक्कत नहीं आएगी.