अब अदालत ही रोके संसद के समय का दुरुपयोग
२७ अगस्त २०१५सियासी अखाड़े में तब्दील हो चुकी संसद को बचाने के लिए गैरसियासी लोगों को सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगानी पडी है. पिछले एक दशक में यह समस्या कुछ ज्यादा ही गहरा गई है. संसद में हालिया मानसून सत्र हंगामे की भेंट चढ गया. देश के संसदीय इतिहास में शायद यह पहला अवसर था जबकि पूरे एक सत्र में संसदीय कामकाज लगभग नगण्य रहा. मजे की बात यह है कि सांसदों का विरोध और मुद्दे लगभग एक समान हैं, सिर्फ सरकारें बदलने पर विरोध करने वालों के चेहरे बदल जाते हैं. मसलन जमीन के अधिग्रहण के लिए कांग्रेस की अगुवाई वाली संप्रग सरकार ने जो कानून बनाया था उसका विरोध तत्कालीन मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने किया. विरोध का मूल कारण वॉलमार्ट जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सरकार द्वारा खुदरा बाजार के क्षेत्र में निवेश के लिए जमीन मुहैया कराना था. वॉलमार्ट के विरोध को लेकर भाजपा ने संप्रग सरकार के कार्यकाल में एक नहीं कई सत्रों का कामकाज ठप्प करा दिया.
थक हार कर संप्रग सरकार ने भाजपा और अन्य विपक्षी दलों की सहमति से भूमि अधिग्रहण के मानक तय कर कानून पारित करा लिया. मगर अब वही भाजपा अपनी सरकार बनने पर किसानों के हित प्रभावित नहीं होने देने के लिए जोड़े गए प्रावधानों को हटाकर नया भूमि अधिग्रहण कानून बनाना चाहती है. अब कांग्रेस इसका विरोध कर रही है. संसद का ग्रीष्मकालीन सत्र भूमि अधिग्रहण कानून के विरोध में स्वाहा हो गया और अब मानसून सत्र विदेश मंत्री सुषमा स्वराज द्वारा आईपीएल फर्जीवाड़ा मामले के आरोपी ललित मोदी की कथित मदद करने के आरोप में कांग्रेस ने नहीं चलने दिया. नतीजा भूमि अधिग्रहण विधेयक और जीएसटी विधेयक जैसे महत्वपूर्ण कानून लंबित रह गए.
विपक्ष के विरोध का यह अब तक का सबसे चौंकाने वाला तरीका माना जाएगा कि कांग्रेस ने अपनी बात तो संसद में रख ली लेकिन सत्तापक्ष की बात सुनने को तैयार नहीं है. पहली बार यह देखने को मिलना कि सडक से दूर रहने वाली कांगे्रस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी संसद से सड़क तक चले हंगामे में हमराही बनीं. विरोध का यह अब तक का सबसे उग्र तरीका, दरअसल सियासी दलों की मीडिया में ज्यादा से ज्यादा तरजीह पाने की नई जुगत है. इसमें संसद के बजाय सडक पर मुखर होना ज्यादा लाभप्रद साबित होने लगा है. पिछले कुछ सालों में मीडिया के दुरुपयोग का यह हथकंडा अपना कर सड़क पर आंदोलन के जरिए सत्ता तक का सफर तय कर दूसरे सियासी दलों के लिए हंगामे का नया फार्मूला सुझा दिया है.
पानी गले से उपर जाते देख देश के अग्रणी अधिकारी एम श्रीधरन, उद्योगपति रतन टाटा और न्यायविद एमएन वैंकटचलैया की अगुवाई में गैरसियासी जमात ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है. इन्होंने एनजीओ के माध्यम से अदालत में जनहित याचिका दायर कर सुप्रीम कोर्ट से दिशानिर्देश जारी करने का अनुरोध किया है जिससे संसद को समय की बर्बादी से बचाया जा सके. अदालत ने इस चिंता से सरोकार जताते हुए अर्जी को स्वीकार कर लिया है. संसदीय मामलों के जानकारों को संसदीय प्रक्रिया में सुधार को लेकर सुप्रीम कोर्ट के पुराने रुख को देखते हुए इस मामले में भी सकारात्मक नतीजा मिलने की उम्मीद है.
यह तथ्य सर्वविदित है कि संसद में एक मिनट की कार्यवाही पर ढाई लाख रुपये का खर्च आता है. इस एक तथ्य से संसद के समय की बर्बादी की समस्या की संवेदनशीलता को सांसदों की संवेदनहीनता को समझा जा सकता है. जनहित के विषयों पर बहस मुबाहसों के लिए बनी संसद का आज अपने मकसद से भटकर सियासी अखाड़े में तब्दील होना संसदीय विकास के सात दशक की यात्रा पर सवालिया निशान लगाना है. खासकर तब जबकि दागी सांसदों से संसद को मुक्त करने से लेकर चुनाव सुधार तक बदलाव की पहल करने वाली अदालत को ही हंगामे का तोड़ निकालने के लिए कहा जा रहा है. संसद को खुद इस तरह की चुनौतियों का हल निकालने की हालत में होना चाहिए, लेकिन संकट की हकीकत कुछ और है.
ब्लॉग: निर्मल यादव