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अपने अंदर झांके मीडिया

३ अप्रैल २०१३

भारत में महिलाओं की सुरक्षा के दावों की पोल खोलते दिल्ली गैंग रेप मामले ने भारत की मीडिया के गैर जिम्मेदाराना रवैये को भी उजागर कर दिया. 2008 में दिल्ली के बाटला हाउस मुठभेड़ के बाद फिर से मीडिया सवालों के घेरे में है.

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तस्वीर: Reuters

खास तौर पर समाचार चैनलों को लेकर तो अदालत के भी कान खड़े हो गए. बीते साल 16 दिसंबर को हुए इस हादसे के बाद फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में यह मामला सुनवाई के लिए गया ही था कि विशेष अदालत ने इसकी संवेदनशीलता और मीडिया की संवेदनहीनता को देखते हुए अदालती कार्यवाही की रिपोर्टिंग पर पाबंदी लगा दी. मीडिया की आज़ादी को लेकर तमाम बहस मुबाहिसों के बाद भी कुछ हासिल होते न देख प्रिंट मीडिया के कुछ पत्रकारों ने इस फैसले को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी. हाई कोर्ट ने जो फैसला सुनाया, उससे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को गिरेबां में झांकने के लिए मजबूर कर दिया है.

दिल दहला देने वाली इस घटना के बाद भारत में बहस शुरू हुई कि देश में इस तरह का माहौल बनाया जाए, जिससे महिलाएं घर और बाहर खुद को सुरक्षित समझ सकें. वहीं दूसरी ओर मीडिया की सीमा रेखा तय करने पर हाई कोर्ट में सार्थक बहस और दलीलों के बाद आया अदालत का फैसला निश्चित तौर पर मीडिया को गहरा धक्का पहुंचाने वाला साबित हुआ.

फटाफट खबरें ब्रेक करने की होड़ में लगे चैनलों को इस मामले की कोर्ट रिपोर्टिंग की इजाजत नहीं दी गई. अदालत ने सिर्फ प्रिंट मीडिया और भारत की दो प्रमुख समाचार एजेंसियों पीटीआई और यूएनआई को ही कार्यवाही की रिपोर्टिंग के लिए कोर्ट रूम में जाने की अनुमति दी.

यह बात सही है कि जस्टिस शकधर के इस फैसले में नहीं कहा गया है कि टीवी चैनलों को कवरेज की अनुमति क्यों नहीं दी जा सकती है. कानून इस तरह की एकतरफा रोक की इजाजत भी नहीं देता. इसलिए उन्होंने बड़ी सावधानी से टीवी चैनलों को कवरेज की अनुमति देने से इस दलील के साथ इनकार कर दिया कि दिल्ली बलात्कार मामले के कवरेज पर रोक लगाने के निचली अदालत के फैसले को टीवी चैनलों ने हाई कोर्ट में चुनौती नहीं दी.

इस दलील के आधार पर याचिकाकर्ताओं में शामिल दो चैनलों के रिपोर्टरों को कवरेज की अनुमति मिल गई. साफ है कि कानूनी मर्यादाओं में रहते हुए इस मामले में जो संदेश देना था, वह जज ने दे दिया. दूसरी ओर टेलीविजन चैनल के लिए व्यवस्था दी कि दोनों समाचार एजेंसी और राष्ट्रीय अखबारों के संवाददाताओं की मदद से दिल्ली बलात्कार कांड में कोर्ट के आदेशों की जानकारी जनता को देंगे. हालांकि उन्हें अपनी खबर के स्रोत के रूप में उस संवाददाता की बाइट लगानी होगी. देश की उच्च अदालत का इस तरह का फैसला साफ तौर पर बताता है कि टेलीविजन चैनलों की विश्वसनीयता को लेकर न्यायपालिका क्या नजरिया है.

यह फैसला सुप्रीम कोर्ट के उस मामले की याद ताजा कर देता है जब वोडाफोन मामले की सुनवाई के दौरान 2011 में अदालत ने गलत रिपोर्टिंग पर सख्त नाराजगी जताई थी. पीटीआई की एक गलत स्टोरी पर संज्ञान लेकर सुप्रीम कोर्ट ने इसकी जांच का आदेश दिया और आखिर में समाचार एजेंसी को माफी मांगनी पड़ी. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कोर्ट रिपोर्टिंग के लिए दिशानिर्देश तक जारी कर दिए और संवाददाताओं के लिए जरूरी योग्ताएं भी तय कर दी.

उसी मामले को नजीर में रखते हुए दिल्ली गैंग रेप कांड में भी कोर्ट रिपोर्टिंग के लिए बाकायदा संवाददाताओं को फोटो सहित विशेष अनुमति पत्र जारी करने का फैसला किया गया. इसके अलावा सिर्फ उन्हीं संवाददाताओं को रिपोर्टिंग की अनुमति दी गई जो बीते कुछ सालों से नियमित रूप से कोर्ट रिपोर्टिंग कर रहे हैं.

मतलब साफ है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इस बात से पूरी तरह वाकिफ है कि हाई कोर्ट के फैसले को मेरिट के आधार पर चुनौती देने की कोई गुंजाइश नहीं है. हो भी क्यों न, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के हाय तौबा वाले रवैये पर कई बार सुप्रीम कोर्ट भी उंगली उठा चुका है. सरकार भी मीडिया से आत्मनियंत्रण बरतने की वकालत कर रही है और मौजूदा हालात में यह सरकार की मजबूरी भी हो सकती है.

लेकिन बाटला हाउस, वोडाफोन और फिर दिल्ली बलात्कार कांड जैसे मामलों में मीडिया की भूमिका पर उठते सवालों पर दिए गए अदालतों के फैसलों का इस्तेमाल कर सरकार मीडिया पर नियंत्रण करने के मौके का इस्तेमाल कभी भी कर सकती है. इसलिए मीडिया को समय रहते अपने दायरे में रहना सीखना ही होगा.

ब्लॉगः निर्मल यादव

संपादनः अनवर जे अशरफ

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