अदालत के फैसले से गुस्सा
११ दिसम्बर २०१३सोशल नेटवर्किंग साइट से लेकर सड़कों तक इस ज्वलनशील मुद्दे पर बहस हो रही है. समलैंगिक, उभयलिंगी और किन्नर (एलजीबीटी) समुदाय और इस समुदाय का समर्थन करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं में निराशा देखी गई. समलैंगिकों के अधिकारों के लिए लड़ने वालों का कहना है कि यह उनके साथ धोखे जैसा हुआ है. डॉयचे वेले से बात करते हुए समलैंगिक कार्यकर्ता और हमसफर ट्रस्ट के संस्थापक अशोक राव कवि ने कहा है कि, ''मैं इस फैसले से स्तंभित हूं. यह एक प्रतिक्रियावादी, रुढ़िवादी और पीछे धकेलने वाला फैसला है.''
कवि कहते हैं कि, ''अगर न्यायाधीश कहते हैं कि संसद को कानून बदलना चाहिए, तो फिर वे खुद क्या कर रहे हैं? उन्हें कानून का विश्लेषण करना है और उसमें नई चीजें ढूंढनी हैं और देखना है कि दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला संविधान के अनुकूल है. उनका काम नहीं है कि वे बोलें, संसद को यह करना चाहिए. अगर ऐसा है तो 2जी में ऐसा क्यों करने दिया गया?'' अशोक राव कवि का कहना है कि कोर्ट में उन लोगों ने सैकड़ों शपथपत्र दिए हैं जिनमें पुलिसिया जुल्म की बात है लेकिन कोर्ट ने इसे गंभीरता से नहीं लिया.
कोर्ट के इस फैसले के बाद समलैंगिक समुदाय से जुड़े संगठनों का कहना है कि वे फुल बेंच के पास समीक्षा याचिका दाखिल करेंगे. हालांकि कवि का मानना है कि दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले में कुछ कमियां जरूर थीं. लेकिन उनका कहना है कि दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला संवैधानिक कानून के मुताबिक था, ना कि धर्म या संस्कृति के आधार पर. कवि का कहना है कि सर्वोच्च अदालत को इसी आधार पर अपना फैसला सुनाना चाहिए था.
कवि के मुताबिक, ''अगर हमें धर्म, संस्कृति और परंपरा के आधार पर ही चलना है तो हमें संविधान की क्या जरूरत है. हम खाप पंचायतों के पास मुद्दे लेकर चले जाएंगे.'' कोर्ट के फैसले पर नाराजगी जताते हुए कवि का कहना है कि, ''हम इस कदम से सौ साल पीछे चले जाएंगे. हम पर यह कानून अंग्रेजों ने थोपा था. और अब ब्रिटेन में ही समलैंगिक संबंधों को कानूनी पहचान मिल गई है.'' सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में संसद के पाले में गेंद डालते हुए कहा है कि कानून में बदलाव या हटाने का अधिकार संसद के पास है.
रिपोर्ट: आमिर अंसारी
संपादन: महेश झा