अंतरिक्ष में उड़ेगा विशेष एंटीना
२३ अप्रैल २०१३ब्रेमन शहर में स्थित जर्मन एरोस्पेस सेंटर डीएलआर के इंजीनियर टॉम श्प्रोएविट्ज कहते हैं, "हम इसे फ्लाइंग एंटीना कह सकते हैं." श्प्रोविट्ज इस बड़े गोल आकार को आसानी से दो अंगुलियों में पकड़ सकते हैं. चार मीटर का यह एंटेना काफी हल्का है और यही इसकी खासियत भी है. आलसैट नाम का यह उपग्रह जहाजों की आवाजाही पर नजर रखने वाला पहला जर्मन उपग्रह है.
यह सैटेलाइट पुरानी प्रणाली एआईएस का ही इस्तेमाल करेगा. ऑटोमैटिक आइडेन्टिफिकेशन सिग्नल यानी एआईएस समुद्री यातायात के लिए अनिवार्य है. इससे जहाज टक्कर से बच सकते हैं. ये सिग्नल वीएचएफ फ्रीक्वेंसी इस्तेमाल करते हैं. इनकी रेंज जमीन पर 20 समुद्री मील के बराबर होती है.
व्यस्त समुद्री मार्ग पर सैटेलाइट से इन सिग्नलों को पकड़ना मुश्किल खड़ी कर सकता है. जर्मन मैरीटाइम एजेंसी हैम्बर्ग के राल्फ डीटर प्रेउस बताते हैं, "उत्तरी सागर में इतने जहाजों में एआईएस लगा हुआ है कि सिग्नल एक दूसरे से मिल जाते हैं और फिर उन्हें अलग नहीं किया जा सकता."
ऐसा इसलिए होता है कि सामान्य तौर पर भेजी जाने वाली सैटेलाइटों में नॉन डाइरेक्शनल कॉपर एंटीना लगे होते हैं जो 6,000 किलोमीटर के व्यास का इलाका कवर करते हैं. जबकि ब्रेमन में जो सैटेलाइट बनाई गई है वह बहुत सटीक है. इसका कारण उच्च क्षमता वाला कुंडली आकार का एंटीना है. प्रोजेक्ट के निदेशक योर्ग बेहरेन्स कहते हैं, "यह 750 किलोमीटर के व्यास में अपना काम करता है." पिछले चार साल से बेहरेन्स और उनकी टीम 10 लाख यूरो के इस प्रोजेक्ट पर काम कर रही है.
आज तक हेलिक्स एंटीना सिर्फ जासूसी उपग्रहों में इस्तेमाल किए जाते थे और बहुत छोटे स्तर पर ये बनाए जाते थे.
सैटेलाइट तैयार करने में इस्तेमाल की गए पदार्थों का गुरुत्वहीनता में टेस्ट किया गया. इसके बाद तय हुआ कि तांबे के खोल में कार्बन फाइबर प्लास्टिक इस्तेमाल किया जाएगा.
एंटीना का कुल वजन सिर्फ 800 ग्राम है जबकि पूरे सैटेलाइट का सिर्फ 13 किलोग्राम.
आलसैट के आखिरी टेस्ट किए जा रहे हैं और डीएलआर को उम्मीद है कि इन्हें जून तक पूरा कर लिया जाएगा. इसके बाद साल के आखिर में या फिर 2014 में इसे भारतीय रॉकेट से अंतरिक्ष में भेजा जाएगा.
धरती की कक्षा में यह 650 किलोमीटर ऊपर चक्कर लगाएगा. इसके बाद यह ब्रेमन और उत्तरी कनाडा के स्टेशनों पर डाटा भेजेगा.
वैज्ञानिकों ने आलसैट ट्रैकिंग प्रोजेक्ट के लिए महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किए हैं. इसमें संभावित आतंकी जहाजों, समुद्री डाकुओं के कब्जे में लिए गए जहाजों पर नजर रखने या फिर समुद्री पर्यावरण में प्रदूषण करने वाले जहाजों पर निगाह रखना शामिल है. प्रेउस के मुताबिक, "11 सितंबर 2001 के हमले के बाद से समुद्री यातायात पर लगातार नजर रखी जाने की मांग की जा रही है. "
हालांकि एआईएस का मुख्य काम जहाजी मार्ग की निगरानी करना ही रहेगा ताकि जहाजों की टक्कर रोकी जा सके. सैटेलाइट ट्रैकिंग फिलहाल जरूरी नहीं क्योंकि जहाज आपस में संदेश देते रहते हैं और तटीय अधिकारियों से भी संपर्क में रहते हैं.
अंतरराष्ट्रीय मैरीटाइम संगठन आईएमओ ने एक विशेष सिस्टम एलआरआईटी लगाया है जिसके तहत जहाज को हर छह घंटे में अपनी स्थिति दुनिया भर के डाटाबेस नेटवर्क को देनी पड़ती है.
एएम/ओएसजे (डीपीए)